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मै खुश थी

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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मै खुश थी अपनी तन्हाई में,
क्यो स्वप्न दिखाए बहारो के।
तन्हाई संग हॅसना रोना
या बाते करना बस तन्हाई से,
भाई थी मुझको अपनी दुनिया,
क्यो स्वप्न दिखाए बहारो के,
बही जब जब नयनो से अश्रु धार,
गले लगाया तन्हाई ने,
जीवन के खट्टे तीखे क्षण मे
साथ निभाया तन्हाई ने
जब भूख लगी तो गम खाये
जब प्यास लगी अश्रु पिये मैने,
जब दर्द हुआ दिल तड्प उठा,
साथ निभाया तन्हाई ने,
कुछ पल को मै जब भटक गयी,
आ राह दिखाई तन्हाई ने,
मै खुश थी अपनी तन्हाई ने,
क्यों स्वप्न दिखाये बहारो के,
रोका मुझको बहुत था उसने,
पल पल समझाया तन्हाई ने
कोई किसी का नही यहाँ
कितना बतलाया तन्हाई ने
बोली थी ठोकर खा जायेगी
रोडे़ है पग पग बिछे यहाँ,
महफिल न आये रास तुझे
फिर क्यो ख्वाब सजाये तू,
मै तेरी ,तू मेरी साथी
और न कुछ अब समझे तू,
न ही कोई संगी साथी
कह गले लगाया तन्हाई ने
मै खुश थी अपनी तन्हाई में,
क्यों स्वप्न दिखाये बहारो के
क्यों स्वप्न……

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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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