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मैं भी तो शहीद था

दीपक मेवाती ‘वाल्मीकि’
सुन्ध – हरियाणा

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बारिशों के बाद जो
बीमारियों की घात हो
जंग का ऐलान तब
मेरी ख़ातिर हो चुका

मानकर आदेश को
मन में सोच देश को
ना ख़याल आज का
ना फ़िकर बाद का

सिर्फ़ एक लक्ष्य है
जो मुझे है भेदना
सीवर हो जहाँ रुका
वो मुझे है खोलना

बाल्टी, खपच्ची, रस्सी
ली उठा हाथ में
दो मेरे संगी भी
चल-चले थे साथ में

सुबह-सुबह की बात है
थोड़ी पर ये रात है
खोला ढक्कन जैसे ही
बदबू आई वैसे ही ।

कुछ नहीं था सूझता
कुछ नहीं था बूझता
बदन से कपड़े दूर कर
कमर में रस्सी बांधकर

सुरक्षा की ना बात है
ईश्वर का ही साथ है
आसपास मेरे सब
नाक-भौंह सिकोड़कर

साथ मे खड़े हैं सब
पास में ना कोई अब
मैं अकेला ही भला हूँ
जो भी हो देखेगा रब

काली-काली गंदगी
कितनों का ये मल है
और
कितनो की ये लेट्रिन

दुश्मन से लड़ना है अब
सोच छोड़ उतरना है अब
एक को पकड़ा के रस्सी
देह नरक की ओर बढ़ दी

गर्दन तक मल में हूँ
आज हूँ बस कल ना हूँ
गैस अब चढ़ रहा है
सिर दर्द बढ़ रहा है ।

है अंधेरा ही अंधेरा
रोशनी की बात ना कर
जैसा अब ये हो रहा है
वैसा फिर ना साथ कर

बढ़ रहा हूँ,
चल रहा हूँ
कुछ नहीं सुनाई देता
कुछ नहीं दिखाई देता

मुहँ में मल घुस रहा है
नाक में भी ठुस रहा है ।
आँख तक भी आ रहा
साँस नहीं आ रहा है ।

चीखना मैं चाहता हूँ
रो नहीं भी पा रहा हूँ
डर रहा हूँ, डर रहा हूँ
मर रहा हूँ, मर गया हूँ।

देह मेरी को खोजते हैं
पर नहीं अभी पा रहा हूँ
मिल रहा हूँ, मिल गया हूँ
मल के साथ, बन मल गया हूँ।

नहीं कोई चर्चा हुई है
नहीं कोई बातें है करता
कैसे मरा, किसके लिए था
नहीं कोई ये पूछता।

सोचता हूँ?

स्वस्थ जीवन देने को ही
सीवर में मैं था उतरा
देश का सोचा था मैंने
देश का सम्मान था करता।

ना कहीं भी नाम आया
ना कोई मुझे जानता
ना कहीं गिनती है मेरी
ना कोई सम्मान आया

ना कोई मैडल मिलेगा
ना अखबारों में छपूँगा
ना मिलेगा मान मुझको
ना स्वर्णाक्षरों में लिखूँगा।

लड़ा मैं भी था
लड़ाई की थी मैंने भी
लड़ते-लड़ते ही मरा था
मैं भी जीत के करीब था
देश पर जो मर मिटा
मैं भी तो शहीद था …..।।

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परिचय :-  दीपक मेवाती ‘वाल्मीकि’
शिक्षा – पी.एच.डी. शोध छात्र (IGNOU)
निवासी – सुन्ध, तह.-तावड़ू, जि. – नूंह (हरियाणा)


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