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तेरे दर्शन की ख्वाहिश है

मुकेश सिंघानिया
चाम्पा (छत्तीसगढ़)

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ग़ज़ल – १२२२ १२२२ १२२२ १२२२

सुधारों अब दशा भगवन तेरे दर्शन की ख्वाहिश है
पड़े हैं सुने सब मंदिर तेरे कीर्तन की ख्वाहिश है

हुए बेचैन अब घर में ही रह हम बंदियों जैसे
खुले वातावरण में अब जरा विचरण की ख्वाहिश है

भरा है मन बहुत संवेदना हिन देख लोगों को
व्यथित मन में बहुत अब शोर की क्रंदन की ख्वाहिश है

हुई क्यूँ ऐसी ये दुनिया भला कारण है क्या इसका
इसी पर अब मनन की और गहन चिंतन की ख्वाहिश है

जगत जकड़ा हुआ अज्ञानता के घोर अंधेरों में
उजालों की नयी किरणों के अब सृजन की ख्वाहिश है

अजब सी इक हवा का डर है पसरा सबके हृदय में
सभी खुशहाल और भयमुक्त हो ये मन की ख्वाहिश है

तेरे चरणों में ही दिन रात मेरे जैसे हों गुजरे
तेरे दर पर ही निकले दम मेरे जीवन की ख्वाहिश है

मनाएँ फिर तेरा उत्सव बड़े हर्ष और उल्लासों से
तू कर दे पहले सी दुनिया ये अब जन जन की ख्वाहिश है

नही हो भेद रत्ती भी किसी के वास्ते मन में
दिखे चहुंओर बस सौहार्द इस किंचन की ख्वाहिश है

खड़े हैं दर पे तेरे बन के याचक हम प्रभू कब से
दरस की लालसा ही बस प्रभू निर्धन ख्वाहिश है

नही राधा नही मीरा सुदामा ना मैं उद्धव हूँ
मै अदना हूँ अकिंचन हूँ तेरे चरनन की ख्वाहिश है

भंवर में है फंसी नैया लगा दो पार हे भगवन
बड़ा बेबस हुआ है आमजन वंदन की ख्वाहिश है

उठी है हूक सी मन में तुम्हारे द्वार आने की
लगी जो प्यास दर्शन की बुझा नयनन की ख्वाहिश है

परिचय :- मुकेश सिंघानिया
निवासी : चाम्पा (छत्तीसगढ़)
शपथ : मेरी कविताएँ और गजल पूर्णतः मौलिक, स्वरचित हैं


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