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भूल गया मैं ज़िन्दगी को

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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जीवन के करुण कथानक का
प्रकाशन नहीं चाहता हूँ,
पर क्या करूँ??
पैबन्दों के उजागर होने से
ऐसा करने पर मजबूर हूँ।

जन्म कहानी का कहूँ
या कविता के छंद का।
सिलसिला ऐसा ही है
हर एक पैबन्द को।
पैबन्दों का हर टाँका
जीवित करता जाता है,
जैसे पात्रों का खाका।
इसलिये बहुत बेफ़िक्री से
फटे भागों को सी रहा हूँ।
पैबन्दों को ही जी रहा हूँ।

पैबन्द दंभ से इतराकर,
रह रह मुझको चिढ़ा रहा है।
मेरी हर पहचान मिटाता,
अपना कद वह बढ़ा रहा है।
कई रंगों के पैबन्द देखकर
दुनिया मुझे रंगीला कहती है
मगर मैं तो कब से कहता ही यही हूँ
रंगीन होकर भी मैं रंगीला नहीं हूँ।

चीथड़ों पर टिकी हैं सभी की निगाहें,
इनसे ही रिश्ता कुछ ऐसे जुड़ा है।
भूल गया मैं ज़िन्दगी को,
पैबन्दों को जी रहा हूँ !
पैबन्दों को जी रहा हूँ !

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परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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