सुधीर श्रीवास्तव
बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.)
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देर रात तक पढ़ने के कारण बिस्तर पर लेटते ही नींद आ गई। पढ़ाई के लिए मैनें शहर में एक कमरा किराए पर ले रखा था। मकान मालिक, उनकी पत्नी और मैं कुल जमा तीन प्राणी ही उस मकान में थे। मकान मालिक पापा के परिचित थे, इसलिए मुझे रहने को कमरा दे दिया वरना इतना बड़ा मकान और रहने को मात्र दो प्राणी, मगर शायद किसी अनहोनी के डर से किसी को किराए पर रखने के बारे में नहीं सोचते रहे होंगे। खैर………।
मैं कब बिस्तर पर आया और कब सो गया, कुछ पता ही न चला। तभी किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। मुझे लग भी रहा था पर मुझे लगा कि शायद ये मेरा भ्रम है। लेकिन जब रूक रूक कर लगातार दस्तक होती रही तो न चाहते हुए भी मै उठा और दरवाजा खोला तो सामने जिस व्यक्ति को देखा, उसे मैं जानता नहीं था।
मैनें उससे पूछा कि आप कौन है?
उसनें शालीनता से कहा- मैं यमराज हूँ।
मैं थोड़ा खीझ गया, अरे भाई ! तुम यमराज हो या देवराज इस तरह रात के अँधेरे में आने का मतलब क्या है?
यार! बड़े बेरूखे इंसान हो। मेहमान दरवाजे पर खड़ा है और तुम हो सामाजिकता भी नहीं निभाना चाहते।
चलो यार! अंदर आओ। खाम्खाह मेरी नींद खराब कर रहे हो।
अंदर आकर दरवाजा बंद करते हुए कथित यमराज ने कहा-माफ करना भाई। फिलहाल तो मुझे एक कप चाय पिलाओ, जिससे मेरी नींद गायब रहे।
मैं विस्मय से उसे देखने लगा।
लेकिन श्रीमान आप हैं कौन ?
बताया तो यार! मैं यमराज हूँ।
चलो माना कि तुम यमराज हो। लेकिन मुझसे तुम्हारा क्या काम है? मैनें पूछा
काम कुछ नहीं है, बस केवल तुम्हारे मकान मालिक को लेने आया था, मगर अभी उसका थोड़ा समय बचा है तो सोचा तब तक तुम्हारी चाय ही पी लूँ। नींद भी नहीं आयेगी और मेरा समय भी कट जायेगा।
लेकिन इतनी रात में आने का क्या मतलब है? दिन में ही आ जाते। कम से कम मेरी नींद तो न खराब होती।
यमराज थोड़ा गम्भीर हुआ! मैं लोगों के प्राण ले जाने वाला यमराज हूँ।जब जिसका समय होता है उसी समय लेने आना पड़ता है। मृत्यु दिन रात नहीं देखती। मृत्यु का समय निश्चित है, बस इंसान जान नहीं पाता।
मैं भी थोड़ा मजे लेने के मूड में आ गया।
तो कम से कम उनको फोन ही कर देते।
कम से कम बेचारे तैयारी तो कर लेते।
हम फोन का प्रयोग नहीं करते। न ही हमारे यहाँ मरने वाले को सूचित करने की कोई व्यवस्था है। मेरा काम है जिसका समय पूरा हो, उसके प्राण ले जाना बस।
चलो मान लिया लेकिन कुछ भाईचारा मानवता भी होता है।
ये सब यहीं चलता होगा। अब मैं चलता हू्ँ, उसका समय पूरा हो गया।
अरे-अरे सुनो तो मेरा मोबाइल नंबर ले लो और मेरे समय से मुझे फोन करके ही आना।
लेकिन वो जा चुका था और मुझे मकान मालकिन के रोने की आवाज साफ सुनाई दे रही थी।
तब तक मेरी नींद खुल गई। कमरे में कोई नहीं था।
मैं सोचने लगा आखिर यमराज गया कैसे? दरवाजा तो अंदर से ही बंद है।
मैनें सिर झटका और आगे बढ़कर दरवाजा खोला तो बाहर चमक धूप स्वागत कर रही थी। मकान मालिक बरामदे में बैठे रोज की तरह अखबार पढ़ रहे थे।
मैंने अपने दिमाग पर जोर डाला। तब मुझे लगा कि शायद मैं सपना देख रहा था।
परिचय :- सुधीर श्रीवास्तव
जन्मतिथि : ०१.०७.१९६९
पिता : स्व.श्री ज्ञानप्रकाश श्रीवास्तव
माता : स्व.विमला देवी
धर्मपत्नी : अंजू श्रीवास्तव
पुत्री : संस्कृति, गरिमा
पैतृक निवास : ग्राम-बरसैनियां, मनकापुर, जिला-गोण्डा (उ.प्र.)
वर्तमान निवास : शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव जिला-गोण्डा, उ.प्र.
शिक्षा : स्नातक, आई.टी.आई.,पत्रकारिता प्रशिक्षण (पत्राचार)
साहित्यिक गतिविधियाँ : विभिन्न विधाओं की कविताएं, कहानियां, लघुकथाएं, आलेख, परिचर्चा, पुस्तक समीक्षा आदि का १०० से अधिक स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित। दो दर्जन से अधिक संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन।
सम्मान : एक दर्जन से अधिक सम्मान पत्र।
विशेष : कुछ व्यक्तिगत कारणों से १७-१८ वषों से समस्त साहित्यिक गतिविधियों पर विराम रहा। कोरोना काल ने पुनः सृजनपथ पर आगे बढ़ने के लिए विवश किया या यूँ कहें कि मेरी सुसुप्तावस्था में पड़ी गतिविधियों को पल्लवित होने का मार्ग प्रशस्त किया है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।
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