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मैं शहंशाह हूँ

मैं शहंशाह हूँ

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रचयिता : परवेज़ इक़बाल

मेरे अश्कों से गुज़र कर
बच्चों को खुशी मिलती है
मैं रोज़ मरता हूँ
तब घरवालों को
ज़िन्दगी मिलती है…
सोचता हूँ, मेरे लिए
महंगा नहीं है सौदा
सबको इस दाम भी
कहाँ ज़िन्दगी मिलती है…
यह महल, ये चौबारे
मेरी मेहनत के गवाह सारे
सब मे शामिल मेरा पसीना
सबने सीखा मुझसे जीना
फिर भी खैरात सी
मुझको मजदूरी मिलती है…
मैं रोज़ मरता हूँ
तब घरवालों को
ज़िन्दगी मिलती है…
मिले हैं सबको, मेरे सदके में
चमक और उजियारे
लेकिन मेरे नसीब में आये हैं
सारे ही अंधियारे
लाल किले की ऊंची दीवार के कंगूरे पर
लटकी है कहीं मेरी मजदूरी
ताजमहल की बुनियादों को
सींचा है मैंने, अपने लहू से
और पाए हैं ईनाम में
अपने ही कटे हाथ…
पाई शोहरत तुमने,
उसका नहीं है गम
मेरे हिस्से में कियूं कर दीं
रुसवाईयाँ तुमने…
ये किले, ये मीनारें ताने किसने ?
ऊंचे-ऊंचे ये महल बनाये किसने ?
और आज वहीं मेरे लिए
दाखिले पर हकरत भरी नज़र..?
पानी टपकती छत,खिज़ां बहार दीवारें
सीलन भरी ज़मीन,टूटा फूटा दरवाज़ा
कौन मानेगा कि मैं इस अज़ीम हिंदुस्तान
का शहंशाह हूँ…
दो दिन के ठंडे चूल्हे की राख से
टूटी रक़ाबी घिसती
मेले कुचैले कपड़े पहने
वो मरियल सी औरत
हिन्द की मलिका है
और मिट्टी में लौटते
ये नँग-धड़ंग बच्चे
हिन्द का मुस्तक़बिल हैं..?
बहरहाल सीलन भरी ज़मीन पर
फ़टी गुदड़ी पर लेटे
टूटी बीड़ी फूंकते
मैं खुश होता हूँ, ये सोच कर
कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैले
इस विशाल अखंड भारत का
मैं ही तो शहंशाह हूँ…

 

लेखक परिचय :- परवेज़ इक़बाल ४५ वर्ष
निवासी इंदौर मध्यप्रदेश
२० साल से पत्रकारिता में सक्रिय
कविता, कथा,लघुकथा और उपन्यास लेखन, कथा-पटकथा लेखन
२ सीरियल और १ टेलीफिल्म
भोपाल दूरदर्शन से प्रसारित


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