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मैं हूं भी, नहीं भी

मैं हूं पर कहां?
यह मेरा नाम है।
जिस ओहदे से
जाना जाऊं
वह मेरा काम है।
संबंधों में बिखरा है
वह मेरा अस्तित्व है।
खुद को जानने
ढूंढ बना वह
जीवन स्पंदन है।
मेरी शिक्षा, परवरिश,
आयु शरीर में मुझे
समझने का जरिया है।
पंचतत्व से बना
उसी में विलीन होकर
माटी का पुनर्निर्माण किया।
मुझे जानने की अनंत
यात्रा में मैं हूं भी नहीं भी हूं।
दिखता है वह
मैं नहीं हूं जो नहीं दिखता
वह मैं हूं।
मैं शरीर नहीं हूं,
मैं मन भी नहीं हूं।
सिर्फ मैं ही मैं हूं
हर जगह चराचर जगत में।
जीवन की अनंत यात्रा में
मैं हूं भी नहीं भी हूं।

.

परिचय :- अनुराधा बक्शी “अनु”
निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़
सम्प्रति : अभिभाषक
मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है।


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