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इंसानियत

राकेश कुमार तगाला
पानीपत (हरियाणा)
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आखिर तुम समझती क्यों नहीं?
क्या समझूँ, तुम खुद को बड़े समझदार मानते हो? पत्नी की आँखों में गुस्सा साफ झलक रहा था। क्या किसी की मदद करना गलत हैं?
ये मदद करना नहीं होता, सुरेश। ये तो मौत को अपने पास बुलाना होता। जब गाँव का कोई आदमी उसकी लाश को हाथ लगाने को तैयार नहीं था, तो तुम क्यों जिद्द पर अड़े हुए थे। तुम्हें पता है, सुरेश उसकी मौत कोरोना महामारी से हुई। फिर भी तुम…..। क्या तुम्हें डर नहीं लगता? हमारे छोटे-छोटे बच्चे हैं।तुम्हें कुछ हो गया तो। कोरोना छूने से फैलता है। अब बस भी करो, सुजाता। तुम कितनी मतलबी हो? वो एक लाश ही नहीं हैं। कुछ घंटों पहले जीती-जागती औरत थीं। जिसे तुम बार-बार लाश कह रही हो। उसने हमारी कितनी मदद की थीं? वो हमारी क्या लगती थीं? उसनें हमेशा इंसानियत के नाते, हमारी मदद की थीं। ठीक हैं, सुरेश मैं मानती हूँ। पर तुम्हें कुछ हो गया तो, भगवान पर भरोसा रखो। पर शमशान घाट में कोई नहीं जा रहा है, उसके साथ। मैं जा रहा हूँ, पर तुम किस नाते से जा रहे हो। इंसानियत के नाते से। और वह उस अकेली औरत के अंतिम संस्कार के लिए चल पड़ा। उसे देखकर कुछ और लोग भी साथ चल पड़े।
इंसानियत के लिए….।

परिचय : राकेश कुमार तगाला
निवासी : पानीपत (हरियाणा)
शिक्षा : बी ए ऑनर्स, एम ए (हिंदी, इतिहास)
साहित्यक उपलब्धि : कविता, लघुकथा, लेख, कहानी, क्षणिकाएँ, २०० से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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