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मानव ही मानव का शत्रु

रचयिता : रीतु देवी

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मानव ही मानव का शत्रु

मानव ही मानव के शत्रु है,
कुदृष्टि डालकर तृप्त करते तन अनेक चक्षु हैं।
मानवता का यहाँ कोई मोल नहीं,
भाईचारा का बंधन अब दिखता नहीं कहीं,
आनंदित होते धन-दौलत की अंधी गलियों में ही
फंसकर मोह जाल मिल जाते मिट्टी में ही
न जाने क्यों वहशी बन शैतानी करते है?
लालची निगाहें अनगिनत जिन्दगानी लेते हैं।
जागो, जागो इंसान मानवता का मूल्य पहचानों,
वसुंधरा है सबकी न नष्ट करो अरमानों।

लेखीका परिचय :- 
नाम – रीतु देवी (शिक्षिका) मध्य विद्यालय करजापट्टी, केवटी दरभंगा, बिहार

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