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हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा

श्रीमती श्यामा द्विवेदी
वाराणसी (उ.प्र.)

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बड़े तपों से धरती पर आयी हो गंगा!
हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा?
हमने तुमको किया है कलुषित,
शुचिता भी कर बैठे दूषित।
लज्जित हैं अपनी करनी पर,
अब न करेंगे तुम्हें प्रदूषित।
बिना तुम्हारे बहुत असंभव है ये जीवन,
हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा?
गौमुख से सागर तक तुम बहती हो गंगा
जीवन के पथ को निखार चलती हो गंगा।
उद्धार सभी का करें तुम्हारी लहर लहर
तन मन को भी शीतल करती हो गंगा।
पर उपकार हमें सिखाती रही सदा,
क्या हमें छोड़ के यूँ ही चली जाओगी गंगा?
ऋषियों की माँ जान्हवी गंगा
सागर तक धार प्रवाही गंगा।
शिव के जटा जूट की गंगा,
स्वर्गातीत भागीरथि गंगा।
जीवन के संस्कार तुम्हीं से,
पाप रहित व्यवहार तुम्हीं से
तुम संस्कृति का भान हो गंगा
हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा?
अगर गयीं तो नहीं भरेगा कुंभ का मेला,
बिना तुम्हारे संगम होगा निपट अकेला।
वेद पुराणों के मंथन में रस ना मिलेगा,
अर्घ्य कहाँ अब दिया करेंगे संध्या बेला।
तीर तुम्हारे किया सभी ने व्रत पारायण,
अंतस में जैसी रची बसी तुलसी रामायण।
तुम अंत करण की शुचिता हो माँ
मत हमें छोड़ जाना गंगा माँ
आदित्य चलें अस्ताचल फिर भी,
भक्तों का नहीं रुकता ताँता।
तट के तुम्हारे स्नान ध्यान से,
जीवन से मरण तक तुमसे नाता।
तुमने सबका जीवन है संवारा,
कैसे कर सकती हमसे किनारा।
क्षमा करो माँ दया करो माँ,
हम पर हो सदा आशीष तुम्हारा।
त्याग हमें तुम कैसे रह पाओगी गंगा?
हमें छोड़कर कैसे तुम जाओगी गंगा?

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परिचय :- श्रीमती श्यामा द्विवेदी
पति : डॉ. राधा रमण द्विवेदी
जन्म : १९३५
निवास : वाराणसी (उ.प्र.)
विशेष : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं आचार्य विश्वनाथ द्विवेदी की पुत्र वधू श्रीमती श्यामा द्विवेदी जी, अपनी रचना धर्मिता में १९५५ -५६ से ही संलग्न हैं, स्वांत: सुखाय के भाव से अपनी डायरी में दर्ज करती गयीं। परिजनों के विशेष आग्रह पर अब प्रकाशन के लिये प्रेरित हुईं हैं।

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