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तुम कितना हमको भूल सके

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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खुशियों संग आबाद रहीं
पर कुछ यादें नाशाद रही,
हमें छोड़ जो हुए बेवफा
हर पल उनकी याद रही।

यादें तो काफिला बनाकर
बढ़ती ही चली आती हैं,
कर के गुज़रे लम्हों का
उजाला नयी रौशनी लाती हैं।

नींद में झकझोरते हैं हमको
उनकी खुश्बू के झोंके,
वही सुहाने ख्वाब दिखाने
खुल जाते खामोश झरोखे।

उनको पाकर के ज़ेहन में
लहराते हैं प्यार के साये,
वक्त थमे दिल कहता है
बीते पल फिर जी जायें।

धुआँ है ग़र माज़ी तो क्या
वो भी है यादों का हरम,
रोज़ वहाँ भी देखा हमने
हो जाना पलकों का नम।

मगर कहाँ ये मेरी किस्मत
यादें मुझे सुला जायें,
और मेरी हस्ती, बस्ती अपनी
मस्ती में भुला जायें।

मैंने तो यादों की रातें
काटी हैं अपनी ही आँखों में,
तुम कितना हमको भूल सके
पूछो अपनी ही साँसों से।

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परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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