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कितना राष्ट्रप्रेम कितनी राष्ट्रभक्ती

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विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमा ये उस राष्ट्र का अस्तित्व, महत्व, और पहचान के लिये पर्याप्त नही होती। जमीन पर दिखने वाली इस सीमा रेखा के अंदर उस राष्ट्र के नागरिकों के अपने राष्ट्र के प्रति जो आदर, जो कर्तव्य, जो प्रेम और अपनत्व की भावनाएं अपने परिपक्व स्वरूप मे होती है, और यह सब जब राष्ट्र के नागरिकों के व्यवहार और आचरण मे प्रत्यक्ष रूप से परिलक्षित होती है, तब हम इसे राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ती कह सकते है। राष्ट्र के स्थायित्व और सर्वांगीण उन्नती के लिए तथा भावनात्मक रूप से राष्ट्र को एक सूत्र मे पिरोये रखने के लिए इसी राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ती की नितांत आवश्यकता होती है।
– इतिहास साक्षी है कि राष्ट्रप्रेम के अभाव मे भारत का विभाजन हुआ। आगे संयुक्त पाकिस्तान मे भी नागरिकों के राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ती की भावनाओं का ऱ्हास होने के कारण पाकिस्तान दो टुकड़ों में बट गया। संयुक्त पाकिस्तान के नागरिक जितने अपने धर्म के लिए कट्टर और असहिष्णु थे उतने शायद अपने राष्ट्र के लिए नहीं होने के कारण बांग्लादेश की निर्मिति हुई। हमें यह समझना होगा कि धर्म का स्थान कभी भी राष्ट्र से ऊपर नहीं हो सकता । भारत, पाकिस्तान सहित दुनिया में सर्वत्र आँतकवाद सिर्फ राष्ट्रभक्ति की भावनाओं के नष्ट होने से ही पनप रहा है। सोवियत संघ का विभाजन भी इसी कारण होते दुनिया ने देखा है। इसके विपरीत नागरिकों की देशभक्ति और द्रढ अपनत्व की भावनाओं के कारण जर्मनी और वियतनाम का एकीकरण भी हमने देखा है।
– राष्ट्र अपने हर नागरिक को सुरक्षा देने के साथ ही उसकी मूलभूत आवश्यकताएं, यथा रोटी, कपड़ा, और मकान जैसी सुविधाएं मिलने हेतु साधन उपलब्ध कराता है। राष्ट्र अपने नागरिकों को समाज में , और परिवार के प्रत्येक व्यक्ति सहित सबको विकसित होने के लिए समान रूप से संधि उपलब्ध कराता है। महत्वपूर्ण यह कि राष्ट्र अपने नागरिकों को सम्मानजनक एक पहचान भी देता है। इसलिए राष्ट्र का महत्त्व अलग से वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। पितृऋण, मातृऋण जैसा ही राष्ट्रऋण का महत्व भी हमें समझना होगा।
– हमारे राष्ट्र मे, राष्ट्र के लिए किए गये त्याग, बलिदान, और संघर्ष के अनन्य उदाहरण मिलते है । ऐसे उदाहरण राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ती की भावना के बिना नही मिल सकते। सत्ता की मोह माया से कोसो दूर, महात्मा गांधी, भगतसिंग, वीर सावरकर, लोकमान्य तिलक, इन जैसे अनेक राष्ट्रभक्तों के नाम आदर के साथ लिए जा सकते है। यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है।
– त्याग, राष्ट्रभक्ति की भावनाओं से परिपूर्णता का एक सर्वश्रेष्ठ उदहारण है। राष्ट्र को उसके नागरिकों की ओर से असीम राष्ट्रप्रेम की आवश्यकता होती है। राष्ट्र और नागरिक का सम्बन्ध परस्पर निर्भरता का होता है। अपने नागरिकों को पीढ़ी दर पीढ़ी सुरक्षितता देने के साथ ही राष्ट्र अपने नागरिकों से राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभक्ति और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य की अपेक्षा रखता है। किसी भी नागरिक को अपने राष्ट्र के हितों के विरूद्ध कुछ भी कार्य नहीं करना चाहिए। और यही अपेक्षा एक राष्ट्र की अपने नागरिकों से होती है। राष्ट्रभक्ति की ओतप्रोत भावनाओं के कारण राष्ट्र के प्रति कर्तव्य बोध जागृत होता है, और इस कर्तव्यनिष्ठता के कारण सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना दृढ़ होती है। इन सब के कारण राष्ट्र सदैव बौद्धिक उन्नति के मार्ग पर अग्रसर रहता है।
– स्वतंत्रता के बाद भारतीयों के राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति की अनेक अवसर पर कठिन परीक्षा हो चुकी है। इनमे चीन और पाकिस्तान के साथ युध्द, बांग्लादेशी शरणार्थीयों का १९७०-७१ मे आना, देश मे अनेक सांप्रदायिक दंगो का होना। लेकीन गर्व के साथ हम कह सकते है की हम भारतीय हर कठीन परीक्षा मे सफल हुए है। अनेक किंतु-परन्तुओ के साथ मजबूत होता हमारा लोकतंत्र यही इस राष्ट्रभक्ती और राष्ट्रप्रेम की विशिष्टता है। लेकीन इससे भी इन्कार नही किया जा सकता की पिछले कुछ वर्षो से राष्ट्रीयता की भावनाओं मे कमी महसूस की जा रही है।
– राष्ट्रीयता के मुल्यो मे गिरावट चिंता का विषय है। कुछ उदाहरण अगर हम ले तो उनमे, पिछले दिनो पाकिस्तान स्थित भारतीय दूतावास की एक महिला अधिकारी को पाकिस्तान के लिये जासुसी करते पकडे जाना, कुछ भारतीय सैन्य और पुलिस अधिकारियो द्वारा नक्सलवादियो और माओवादियो को शस्त्रो की आपूर्ती करना, भारतीय मूल के अफजल गुरु का संसद पर हमला करने मे योगदान देना, आज भी बांग्लादेशियो को भारतीय नागरिक बनाने मे सरकारी अमले द्वारा और कुछ राजनीतिज्ञो द्वारा मदद करना, धर्म के नाम पर पाकिस्तान के झंडे लहराना, सिर्फ उकसाने हेतू पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाना, कुछ भटके हुए स्थानीय नागरिको के सहयोग के कारण आतंकवादियो का खुले घूमना, और अपने षड्यंत्रो को अंजाम देना। राष्ट्रध्वज या राष्ट्रगान के अपमान की घटनाये निरंतर होना। नकली नोटो की भरमार, और इन सबमे कहर ढाता और देश को खोकला करता भ्रष्टाचार। वर्तमान में सहिष्णुता और असहिष्णुता के नाम के आगे अपने नागरिक कर्तव्यों को भूला देना, आदि I
-राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति कम होने के अनेक कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण, विगत ७५ वर्षो में राजनीतिक दलो द्वारा और राजनीतिज्ञो द्वारा की गयी स्वार्थी , कपटपूर्ण और विध्वंसकारी , भस्मासुरी राजनीति। इस कारण राष्ट्र से कोई बडा नही , के बजाय हम ही राष्ट्र से बडे है , और कानून हमारा क्या बिगाड लेगा इस भावना की जडे गहरा गई है।
– हमारे राष्ट्र की धर्मनिरपेक्षता सभी ने स्वीकार की , परंतु तभी से राजनीतिक दलो ने , राजनीतिज्ञो ने और यहां तक की निर्वाचित सरकारो ने भी नागरिको को सांप्रदायिकता के चष्मे से देखना शुरू कर दिया। क्षेत्रीयता को , धर्म विशेष को , और जाती विशेष को , ध्यान मे रख कर और उनके मत हासिल करने के उद्देश्य से सिर्फ स्वार्थ पूर्ति हेतु राजनीतिक दल मैदान में आ गये। एक दूसरे को कमतर बताने के लिए योजनबद्द तरीके से , और चतुराई से नागरिकों में धर्मान्धता और असहिष्णुता पनपने दी गयी। सिर्फ चर्चा में रहने के लिए और वर्ग विशेष के मत हासिल करने के लिए नए विवादास्पद मुद्दे कायम रखे गए। राजनितिक दलों की इन्हीं घृणित नीतियों के चलते नित नए वाद विवादो को जन्म मिला। अराजक तत्वों को पोषित किया गया। और कुछ कम था तो भाषाई राज्य बनाए गए आज यह प्रमाणित हो चुका हैं की भाषाई राज्य बनाने की नीतिया अहितकारी साबित हुई है।
– आंतकवाद और आतंकवादियों का कोई धर्म या जाती नहीं होती । परन्तु आतंकवादियों का वर्गीकरण हमारे ही देश में देखने को मिलता है। राजनीतिज्ञों द्वारा आतंकवादियों को मुस्लिम आतंकवादी और हिन्दू आतंकवादी में वर्गीकृत किए जाने से दोनों ही धर्मावलम्बियों के निरपराध लोगों को लम्बे अर्से से अपमानित और प्रताड़ित किया जा रहा है। आतंकवादी तो उंगलियों पर गिने जाने लायक ही होते है , परन्तु इस हेतु सभी समुदायों को दोष देने की प्रथा राजनीतिज्ञों ने शुरू की। इतना ही नहीं नक्सलवाद और माओवाद का भी वैचारिक वर्गीकरण किया गया।
-हमारे यहाँ पिछले कुछ वर्षो से मिडिया, विशेष कर इलेक्ट्रॉनिक मिडिया और सोशल मिडिया , आग में घी डालने का काम सफलता पूर्वक कर रहा है। योजनाबध्द तरीके से सबके मन में कूटकूट कर यह भरा जा रहा है कि कानून का राज्य नागरिकों को सुरक्षा नहीं दे सकता। यह भी कि राष्ट्र से महत्वपूर्ण धर्म और जाती है। कानून और व्यवस्था सबसे आखिर में मदद के लिए आते है , आधे अधूरे वह भी अपने भ्रष्ट रूप में ।’ कोई भी आए , कुछ भी कर के जाए , कानून किसी को भी नही रोक पाता। ‘ यही भावना जनमानस मे घर करती जा रही है। और आजकल इसीलिये लोगों मे कानून की व्यवस्था से ज्यादा , बल्की अपने स्वयं से भी ज्यादा खुद की सुरक्षा के लिए अपने धर्म और अपने जातिगत समूह से अपेक्षा होती है। इतना ही नही अनेक बार नागरिक अपनी सुरक्षा की अपेक्षा उग्रवादी संगठन और गुंडो, माफियाओं से तक कर लेते है। बिहार की रंगदारी , महाराष्ट्र समेत अन्य स्थानो पर हफ्ता वसुली , और नक्सलवाद तथा माओवाद प्रभावित क्षेत्र इसके ज्वलंत उदाहरण है। प्रकारांतर से राष्ट्र के प्रती उदासीनता और अनासक्ती निर्माण होती है।
– भ्रष्टाचार , राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ती कम होने का एक महत्वपूर्ण कारण है । ‘ हरी अनंत हरी कथा अनंता ‘ अब भ्रष्टाचार देश मे कभी खत्म न होने वाली लाईलाज बिमारी हो गया है। आर्थिक भ्रष्टाचार के कारण समाज मे उदंडता , उश्रृंखलता , अनाचार , और संसाधनो का दुरुपयोग बढ गया है। भ्रष्टाचार के कारण , कानून और व्यवस्था हर स्तर पर प्रभावी प्रतीत नही होती। देश ने अरबो खरबो रुपयो का भ्रष्टाचार सहन किया है और इसकी गंगोत्री अभी सूखी नही है। इस कारण अमीर ज्यादा अमीर और गरीब ज्यादा गरीब और लाचार हो गया है। दो प्रतिशत लोगों के पास राष्ट्र की ९८ प्रतिशत संपत्ती है। इसलिये आर्थिक असमानता और असंतोष तीव्रता से बढा है। हमारे यहां ८० करोड लोगों की आमदानी आज भी २५ रुपये प्रतिदिन से कम है। और इनमे से इस भीषण महंगाई के समय ५० करोड लोग एक समय ही खाना खा पाते है। अब भोजन नही , वस्त्र नही , और छत भी नही तो ऐसे लोगों से राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ती की अपेक्षा करना व्यर्थ सी  होकर  उन पर अन्याय करना ही होगा ।
-आने वाले समय मे भुखमरी और असुरक्षा सहन करते ये लोग राष्ट्र के लिये और राष्ट्र मे व्यवस्था बनाये रखने के लिये एक चुनौती साबित हो सकते है। मुलभूत अधिकार ही नही होंगे तो ऐसे दुर्बल और लाचार लोगो से नागरिक उत्तरदायित्व की क्या अपेक्षा ? इसके अलावा भुखमरी झेलते लोगों से बढते अपराधो के कारण कानून व्यवस्था बनाये रखना भी एक संकट हो होगा। बढते अपराधो के कारण लोगों के मन मे कानून और व्यवस्था के प्रती नकारात्मकता गहराती है। न्याय व्यवस्था के प्रती भी विश्वास कम होता है और इसका दुष्परिणाम यह कि राष्ट्र के प्रती आकर्षण भी प्रभावित होता है।
– राष्ट्रप्रेम कम होने का एक और कारण बाजार व्यवस्था द्वारा रोज नये नये षड्यंत्र करके भारतीय संस्कृती और परंपराओ पर आघात करना है । बदल होना स्वाभाविक है । पर कितना , कैसा , और क्यो इसका विचार भी राष्ट्र के हित से जोडा जाना चाहिये। बाजार सजाने के लिये , भारतीय भाषाए , भारतीय जीवन स्तर , भारतीयों की आदते , भारतीय संस्कार , भारतीय त्योहार , भारतीय वस्तुए , कुल मिलाकर सभी संस्कारो पर एक विकृत और उपहासात्मक तरीके से रोज हल्ला किया जा रहा है। इसका एकमेव उद्देश्य युवा उपभोक्ताओ की भावनाओ को भडकाकर अपनी वस्तुए बेच कर मुनाफा कमाना है। पूंजीपतियो द्वारा अमीर और मध्यमवर्गीय युवाओ का एक ऐसा वर्ग तयार किया गया है , जिसे उपभोक्ता संस्कृती को बढावा देने का काम दिया गया है। इतना ही नही उपभोक्ता संस्कृती के लिये अहितकारी भारतीय संस्कृती , भारतीय मूल्य , भारतीय परंपरा , और सभी भारतीय भाषाओ को जड से उखाडने का काम भी इसी वर्ग को दिया गया है। उद्योजक , नोकरशाह , और राजनीतिज्ञो की मिलीभगत से गत अनेक वर्षो से यह खूब फलफूल रहा है। युवा और शिक्षित वर्ग द्वारा राष्ट्र मे सब सुख सुविधाए उपभोग करने के बाद विदेश मे स्थायी होने की लालसा अन्य लोगों को दिग्भ्रमित करती है और सबकी नजर मे राष्ट्र का महत्व कम करवाती है। इस वर्ग की कुशलता और ज्ञान का राष्ट्र को कोई लाभ नही मिलता और पैसो की खातिर यह वर्ग राष्ट्र को भूल जाता है।
– भारतीय शिक्षण पद्धती मे भारतीय संस्कृती , भारतीय परंपरा , राष्ट्रीय एकात्मकता , सांस्कृतिक इतिहास , राष्ट्रीय मूल्य , आदि विषयो की जानबूझ कर उपेक्षा किए जाने से राष्ट्रीयता की भावना विकसित नही हो पाती। ऐसे सभी विषयो को पढने और पढाने की अनिच्छा के कारण राष्ट्रीय संस्कृती के आधार तक हम नही पहुच पाते और राष्ट्र का महत्व और राष्ट्रीय मूल्य नयी पिढी को नही समझा पाते।
– रोजगार,व्यवसाय , नोकरी आदि के लिये ,जरुरत न होने पर भी अंग्रेजी भाषा का ज्ञान होना अनिवार्य करने से समुची शिक्षण पद्धती ही दुषित हो गयी। आजादी के समय ३ प्रतिशत अंग्रेजी भक्त नोकरशाह हमारे देश के ९७ प्रतिशत अंग्रेजी न जानने वालों पर राज कर रहे थे। आज भी वही प्रतिशत कायम है। आज आजादी के ७० वर्ष बाद भी अंग्रेजी की गुलामी से हमारी मुक्ती नही है।
– मातृभाषा राष्ट्रीयता की पहचान होती है। शिक्षण पद्धती मे हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओ को खत्म कराने मे अब तो मिडिया भी सबसे आगे है। आज राष्ट्र मे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय लाखों  में है , जबकि हिंदी माध्यम के थोडे से ही शेष बचे , विद्यालय अपनी अंतिम सांसे गिन रहे है। एक रोचक स्थिती यह है की सरकारी खजाना भरने मे ९७ प्रतिशत हिस्सा हिंदी और क्षेत्रीयभाषी क्षेत्र देते है। और ९७ प्रतिशत खर्च अग्रेंजी भाषा के लिए किया जाता है। यही सरकारी नीती भी है। इस कारण देश मे दो वर्ग तयार हो गये है। एक अशिक्षित , कुपोषित , लाचार और गरीब। जो राष्ट्र मे रहते तो है , पर राष्ट्र के अस्तित्व के बारे मे उन्हे कोई एहसास ही नही होता। दुसरी और धनाड्य लोग जो राष्ट्र , राष्ट्रप्रेम , राष्ट्रभक्ती , आदि शब्दो से थोडी दूरी ही बनाए रखते है। इनके लिये सिर्फ पैसा और व्यवसाय ही महत्वपूर्ण होता है। यही वर्ग सारे नागरिक अधिकारो का बखूबी उपयोग करके अपने कर्तव्यो को आसानी से भूल जाते है। इनके आचरण और व्यवहार का दुष्परिणाम दूसरो पर भी होता है। इस तरह समाज मे नैतिक मुल्यो का पतन होने से जीवनमूल्य विकसित नही हो पाते। आज के व्यस्ततम परिवेश मे सामाजिक मुल्यो के विकास के लिए किसी के पास समय ही नही है। और इसीलिये राष्ट्र की एकात्मकता के लिये हमेशा ही समस्या बनी रहती है।
– राष्ट्रप्रेम कम होने का एक और महत्वपूर्ण कारण संयुक्त परिवारो का विघटन होना है। आज घर घर मे बच्चो को नैतिकता , संस्कार , प्रेम , त्याग , राष्ट्रीयता , राष्ट्रप्रेम , राष्ट्रभक्ती , सामाजिक मूल्य , आदि इन सब उदात्त और श्रेष्ठ भावनाओ के पाठ पढाने के लिये दादा दादी , नाना नानी , उपलब्ध नही होते। इसलिये बच्चे इन सब की कल्पना भी नही कर सकते। आज टीव्ही , मोबाईल , कम्प्युटर , बाईक , और विज्ञान ने खोज कर दी हर सुख सुविधा को भोग कर हर अगली पिढी इंसानियात के पाठ भूलती जा रही है। बच्चे दिनभर अकेले होने से आत्मकेंद्रित हो जाते है। अन्य किसी के बारे मे जब वे सोच ही नही सकते तो समाज और राष्ट्र के बारे मे कैसे विचार कर सकते है ? कुल मिलाकर राष्ट्रप्रेम के पाठ उनके जीवन मे नही होते।
– भौतिक सुख की लालसा बढने से सेवा भावना लुप्त हो गयी है। सरकार की मानसिकता आज उद्योजको जैसी हो गयी है। इसलिये राष्ट्रीयता के नैतिक चिंतन मे ऱ्हास हुआ है। आज भी राष्ट्रीय पर्व पर धार्मिक त्योहारो जैसा उल्लास और उमंग नही होती। जिस देश मे राष्ट्र गान और वंदे मातरम के लिये वाद विवाद होते हो उस राष्ट्र को राष्ट्रीय मुल्यो के लिये अभी और कितनी अग्नीपरीक्षा देनी पडेगी यह कोई नही बता सकता।
– चिंतन खत्म होने से यह परिस्थिती निर्मित हुई है। वर्ष मे सिर्फ एक दो बार राष्ट्र गान कहने से राष्ट्र का कल्याण नही हो सकता। अगर राष्ट्र ही नही होगा तो हम कहां से होंगे ? सीमेंटकांक्रीट के मखमली रास्तो पर तेज गती से दौडती महंगी आलिशान गाडियो को दौडते देख , एक ही विचार मन मे आता है , ” राष्ट्र को अपने नागरिको के कारण पिछड्ना नही चाहिये। हर एक मे नजदीकिया मखमली रास्तो के कारण नही वरन विकसित वैचारिकता के कारण और शुद्ध नि:स्वार्थ भावनाओ के कारण होना चाहिये।

लेखक परिचय :-  विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.

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