जीत जांगिड़
सिवाणा (राजस्थान)
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एक हजारवें स्थापना दिवस पर विशेष
संतो और शूरमाओं की मातृभूमि राजस्थान राज्य के बाड़मेर जिले में स्थित गढ़ सिवाणा शहर की स्थापना विक्रमी संवत १०७७ में पौष महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिधि को वीर नारायण परमार ने की थी! आगामी 1 जनवरी २०२० को इस ऐतिहासिक शहर की स्थापना के एक हजार वर्ष पूर्ण हो रहे है! इस अवसर पर जानते है सिवाना शहर के इतिहास और विशिष्टता को! गढ़ सिवाणा का ऐतिहासिक दुर्ग राजपुताना के प्राचीन दुर्गो में अपना विशिष्ट स्थान रखता हैं। ये दुर्ग राजस्थान के उस चुनिन्दा दुर्गों में शुमार है जहाँ दो बार जौहर हुए है! वहीं यह शहर प्राचीन काल से ही कई महान तपस्वी विभूतियों की तपोभूमि रही हैं। कस्बे के मध्यभाग में स्थित गुरू समाधी मंदिर हजारों श्रद्धालुओं के श्रद्धा का केंद्र हैं। राजस्थान का मिनी माउंट हल्देश्वर तीर्थ अत्यंत रमणीय स्थान हैं जहाँ का मनमोहक वातावरण और जगह जगह गिरते झरने आने वाले हर पर्यटक का मन सहज ही हर लेते हैं। इसके अलावा पंचतीर्थ भी क्षेत्र के प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं।
गढ़ सिवाणा दुर्ग : इतिहास
सिवाणा के दुर्ग को अण्कलों अथवा अणकिलो के नाम से जाना जाता हैं। यह दुर्ग उस समय भी विदेशी आततायियों और हमलावरों के लिये सिरदर्द बना हुआ था जिस समय यहाँ के अनेको दुर्ग अपने अस्तित्व में भी नही थे। इसकी सुदृढ़ता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता हैं कि प्रसिद्ध ईतिहासकार डॉ।आशीर्वादीलाल ने अपनी कृति ‘दिल्ली सल्तनत’ में लिखा हैं कि सन् १३०८ ई। में सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने सिवाणा के दुर्ग को अपनी मारवाड विजय योजना में बहुत बडी बाधा मानते हुए इसे हासिल करने के लिये महत्ती तैयारी की। वहीं ‘कान्हडदे प्रबंध’ के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी ७ वर्ष के दीर्घकालिक घेरे के बाद भी सिवाणा का दुर्ग नही भेद पाया था।
राजस्थान के अतिप्राचीन पर्वतीय दुर्गो में शुमार यह दुर्ग बाड़मेर से लगभग १६० मील दक्षिण में स्थित हैं। इसका निर्माण राजा भोज के पुत्र वीरनारायण परमार ने १०वीं सदी में करवाया था। तदन्तर यह दुर्ग जालौर के सोनगरा चौहानो के अधिकार में आ गया। सोनगरे अत्यंत शक्तिशाली और वीर शासक थे विशेषत: शीतलदेव चौहान, जिन्होंने अलाउद्दीन खिलजी के सन् १३०८ ई। में आक्रमण के समय अपनी आखरी सांस तक दुर्ग की रक्षा करते हुए अलाउद्दीन खिलजी से लोहा लिया और वीरगति पाई और उनकी रानियों ने हजारों स्त्रियों के साथ जौहर किया। इसके बाद यहाँ पर राठौड़ जैतमाल ने १४०१ ई।के आसपास राठौड़ वंश की स्थापना की। इस वंश में क्रमशः हाफा, देवीदास, शिवराज और डूंगरसी ने यहाँ पर शासन किया। डूंगरसी के शासन काल में संवत् १५९४ में मारवाड़ के प्रतापी शासक राव मालदेव ने सिवाणा को अपने साम्राज्य में मिला दिया मगर अपने पुत्रों में साम्राज्य का बंटवारा किये जाने पर यह दुर्ग राव रायमल को सौंप दिया। इससे रूष्ट होकर राव चंद्रसेन ने रायमल पर हमले करना शुरू कर दिया। अनवरत छीनाझपटी से परेशान होकर रायमल अकबर की शरण में चले गए और सिवाणा पर चंद्रसेन का अधिकार हो गया। राव चंद्रसेन ने जब सिरोही पर आक्रमण किया तो वहाँ के महलो के भारी भरकम किवाड लाकर दुर्ग की मध्य पोल में लगवायें। साथ ही दुर्ग को पुर्णतया सुदृढ़ और मजबूत बनवाकर यहाँ पर अपना सामरीक केंद्र बनाया। संवत् १६३३ में राव रायमल के आग्रह पर अकबर स्वयं एक विशाल सेना लेकर सिवाणा पहुँचा और दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। इस ऐतिहासिक युद्ध में दोनो पक्षो की ओर से भीषण क्षति हुई। इस दौरान गढ़ सिवाणा का द्वितीय जौहर और केशरिया हुआ! यद्यपि इस युद्ध में अकबर की सेना जीत गई तथापि वह चंद्रसेन को अपने अधीन करने में पुर्णतया असफल रही। रायमल के बाद उनका पुत्र राव कल्ला राठौड़ सिवाणा की राजगद्दी पर बैठा जो अत्यंत वीर, पराक्रमी, प्रजा वत्सल और योग्य शासक था। क्षेत्र में आज भी लोग उनकी श्रद्धा से पुजा करते हैं। जिसके बारे में कवि कहता हैं-
“तोड़ हला अकबर तणा, तेग जलाला तोड़।
असल लियंता आपने, रंग कल्ला राठौड़।।”
कल्ला यहाँ का अंतिम प्रसिद्ध शासक था। बादशाह अकबर से किसी बात पर मनमुटाव हो जाने पर उन्होने एक विशाल सेना के साथ सिवाणा पर आक्रमण किया। कल्ला झूंझार के सदृश लडता हुआ शहीद हो गया। आज भी दुर्ग के मध्य बनी उनकी समाधी पर हर वर्ष बाबा बीज को मेला भरता हैं जिसमें क्षेत्रभर से हजारो लोग आते हैं। कल्ला के बारे में कहा गया हैं-
“कल्लो अण्कलो यूं कहे, झूंझ कल्ला राठौड़,
मों सर उतरे महेंणों, तों सर बांधे मौड़।।”
गढ़ सिवाणा दुर्ग : अवस्थिति
सिवाना कस्बे के पश्चिमी भाग में हाथीनुमा आकार में अवस्थित यह दुर्ग कस्बे के प्रमुख बाजार से सहज ही दृष्टिगोचर होता हैं। पूर्व में किले के चारों ओर एक अत्यंत मजबूत परकोटा था। सुरक्षा की दृष्टि से परकोटे की यह दिवार दोहरी और तीहरी भी बनी हुई थी। किले में प्रवेश के लिये एक अत्यंत भव्य और सुदृढ़ द्वार अब भी विद्यमान हैं। मुख्य द्वार से किले के भीतर प्रवेश करते ही सामने बांयी ओर स्थित पुराने जीर्ण शीर्ण महल दृष्टिगोचर होते हैं। तत्पश्चात किले में कुछ ऊँचाई पर बढ़ने पर पूर्व दिशा की ओर मुहँ किये एक भव्य और आकर्षक पोल अब भी पूर्ववत् सुदृढ़ स्थिति में मौजूद हैं। पोल में प्रवेश करते ही समीप ही दांयी ओर मुड़ने पर दुर्ग का तीसरा और अंतिम द्वार हैं। सामरीक दृष्टि से महत्वपुर्ण यह द्वार इतना संकड़ा हैं कि एक समय में एक साथ एक ही व्यक्ति प्रवेश कर पाता हैं। इस द्वार के भीतर प्रवेश करते ही सामने कुछ खुला हुआ और मैदानी भाग हैं। शाही सेना से लडते हुए राव कल्ला ने यहीं पर प्राणोत्सर्ग किया था।
तत्पश्चात् दांयी ओर पूर्व दिशा में कुछ ऊँचाई पर दुर्ग का जलस्रोत विशाल तालाब आज भी पूर्वदशा में मौजूद हैं। इसका निर्माण संभवत किले के निर्माण के साथ ही परमार शासको द्वारा करवाया गया होगा। तालाब के बीचों बीच ईंट का एक अति सुदृढ़ खंभा खड़ा हैं। इसके किनारे एक प्राचीन शिव मंदिर भी मौजूद हैं। तालाब के दांयी ओर दक्षिण दिशा की ओर मुहँ किये एक भव्य झरोखा अब भी विद्यमान हैं। सिवाणे के शासक संभवतः इसी झरोखे से कस्बे की कुशलता की खबर लेते होंगे। महाकवि पद्मनाभ ने इसी तालाब के आस पास एक त्रिकलश महल का वर्णन भी किया हैं जिसके अवशेष आज भी यहाँ दिखते हैं। महलो से जुडते हुए कुछ कोठरीयां और भूमिगत तहखाने हैं। इनके समीप ही वह बारी भी स्थित हैं जहाँ से राजद्रोही भावले को किले से नीचे गिराया गया था। किले की प्राचीर पर जगह जगह सुरक्षा चौकियां भी बनी हुई हैं।
दुर्ग निर्माण के पश्चात् चौहान शासन काल में अंत तक यह दुर्ग अत्यंत सुदृढ़ स्थिति में विद्यमान रहा। उन दिनो देश के कोने कोने इस किले की ख्याति थी लेकिन अलाउद्दीन खिलजी के भयंकर आक्रमण के फलस्वरूप इस किले को भारी क्षति पहुँची। संवत् १६११ में इस किले की मरम्मत करवाई गई। इस संबंध का एक शिलालेख दुर्ग की मध्य पोल के आंतरीक भाग में दांयी ओर स्थित हैं। राव कल्ला राठौड़ ने इस किले की मरम्मत और बडे पैमाने पर नव निर्माण का कार्य करवाकर गढ़ को पुर्ण सुरक्षित बनाया। साथ ही परकोटा और द्वारों को भी भली भाँति सुदृढ़ बनाया।
तत्पश्चात जोधपुर शासको के संरक्षण में चले जाने के बाद यह किला विशेष महत्व का नही रहा। जिसके फलस्वरूप यह वीरान और उपेक्षित पडा रहने के कारण दिनो दिन क्षतिग्रस्त होता गया। मगर फिर भी सन् १९४२ ई।में इसी ऐतिहासिक दुर्ग मारवाड़ लोक परीषद् के सदस्य एवम् स्वतंत्रता सैनानी श्री जयनारायण व्यास, श्री मथुरादास माथुर, सर्व श्री छगनराजजी एवम् श्री भंवरलालजी को भी नजरबंद रहना पडा था। इस प्रकार यह दुर्ग अलग अलग समय में अलग अलग रूप से राजस्थान और पूरे भारतवर्ष में चर्चित रहा।
गुरूद्वारा : समाधि मंदिर
वर्तमान गढ़ सिवाना के सदर बाजार के मध्य में स्थित गुरूद्वारा में वर्षभर हजारों श्रद्धालु आते हैं और यहाँ मौजूद पांच महान तपधारी महात्माओ की जीवित समाधियों के दर्शन कर भाव विभोर हो उठते हैं। यह मंदिर कई सदियों से यहाँ पर मौजूद हैं। इसके संबंध में कहा जाता हैं कि संवत् १८२५ के आसपास रामानंदी सम्प्रदाय के संत भगवानदासजी महाराज अयोध्या से द्वारीका यात्रा पर रवाना हुए। रास्ते में उन्होंने तिरसिंगडी गांव में रात्रि विश्राम किया। रात को सोते समय उन्हें भगवान द्वारीकाधीश के दर्शन हो गए। भगवान ने उनसे कहा कि अब वे यही पर रहकर मानवसेवा करे। तब भगवानदासजी वहीं पर बच गए और तिरसिंगडी गाँव में तालाब खुदवाया। तालाब की खुदाई में उन्हें अत्यंत दुर्लभ माँ ऊष्ट्रवाहिनी की प्रतिमा प्राप्त हुई जिसके कारण उनकी छठी पीढ़ी के शिष्य अभयरामजी महाराज ने सिवाना कस्बे में माँ ऊष्ट्रवाहिनी का एक मंदिर बनवाया जो आज राजस्थान का एकमात्र ऊष्ट्रवाहिनी मंदिर माना जाता हैं। भगवानदासजी ने तिरसिंगडी गाँव में समाधि ली। उनके बाद उनके शिष्य सायबरामजी महाराज उनकी अधुरी द्वारीका यात्रा को पुरा करने के लिये निकले। सिवाना गाँव में बने नाथजी के मठ पर उन्होने विश्राम किया। यहाँ के मठाधीश को कुछ कार्य के लिये अन्यत्र जाना पडा तो उन्होने सायबरामजी को यहाँ मौजूद चमत्कारी समाधि की पूजा आरती का दायित्व सौंपा। इसके बाद सायबरामजी ने यहीं पर रहकर सिवाना क्षेत्र के आसपास छप्पन की पहाडी़यों में तपस्या की। उनकी तपस्या की महिमा दूर दूर तक फैलने लगी और मठ में श्रद्धालुओं का मेला लगने लगा। पौष वदी ३ संवत १९०२ को सायबरामजी ने जीवित समाधि ले ली। समाधि लेते समय उनके कहे अनुसार नाथजी की समाधि पर हर दिन सबसे पहले दिप जलाया जाता हैं।
सायबराम जी के बाद उनकी आज्ञानुसार उनके शिष्य भीबाराम जी को गादीपति बनाया गया। वे अत्यंत सरल और शांत स्वभाव के व्यक्ति थे और निरंतर माला में लीन रहते थे। मिगसर शुक्ला ४ संवत १९४३ को भीबारामजी भी अपनी ईच्छानुसार समाधिस्थ हो गए। बीकानेर परगने के नामी क्षत्रिय कुल के सालगराम जी महाराज को इसके बाद गुरू गद्दी पर आसीन किया गया। वे भी धीर और तपस्वी पुरूष थे। सालगराम जी ने मिगसर वदी १२ संवत १९७० को जीवित अवस्था में समाधि ले ली। ये तीनों समाधियाँ गुरू मंदिर में प्रवेश करते ही दांयी ओर उतर दिशा में मुहँ किये हुए हैं।
सालगराम जी महाराज के दो शिष्य हुए- मंछाराम जी और हरीराम जी। मंछाराम जी सिवाना के भायल राजपुत थे जो संवत १९७० में गद्दीनसीन हुए। उनके प्रताप से मंदिर की ख्याति दूर दूर तक फैली और मंदिर में श्रद्धालुओ का सैलाब उमडने लगा। श्रावण वदी १४ संवत २०२१ को मंछाराम जी ने भी जीवित समाधि ले ली। इनकी समाधि पूर्व दिशा की ओर मुहँ किये विद्यमान हैं। वहीं हरीराम जी महाराज ने समदड़ी की बगेची में रहकर सादगी से जीवन व्यतीत किया। हरीराम जी धारणा गाँव के सुथार थे। हरीराम जी ने सिवाना में घडोई नाडी के तट पर समाधि ली।
मंछाराम जी के भी दो शिष्य हुए- अभयराम जी और गोविंदरामजी। जालोर जिले के आलावास गाँव में जाय जन्मे अभयराम जी गुरू गद्दी पर आसीन हुए। इनकी किर्ति दूर दराज तक फैली हुई थी। इनके द्वारा देशभर में चातुर्मास किया जाता था। साथ ही साथ मंदिर में आने वाले भक्त भाविको की संख्या में दिनो दिन वृद्धि हो रही थी। अभयराम जी के बारे में यह मान्यता थी कि जब भी वे बांसुरी बजाते थे तब बारीश होती हैं। अतः कवि द्वारा भी कहा गया हैं-
“बंशी अधर धर तान सुनावें,
घन बरसावें गुरू हमारो!
को नही जानत हैं जग में,
संत अभय गुरू बिरद तिहारो।।”
चैत्र सुदी १३ संवत २०७५ दिनांक २९ मार्च २०१८ को ब्रह्म वेला में अभयरामजी ने भी समाधि ले ली। इनकी समाधि भी मंछारामजी की समाधी के पास ही पूर्व दिशा की ओर मुहँ किये विद्यमान हैं। मंछारामजी के दूसरे शिष्य गोविंदराम जी महाराज, जो गुडानाल ग्राम के सुथार थे, ने समदड़ी की गुरू बगेची गुरू गद्दी को प्रतिष्ठित किया। उनकी समाधी समदडी आश्रम में ही है!
अभयरामजी महाराज के समाधिस्थ होने पर उनकी सत्रहवी के भव्य आयोजन में वैशाख वदी १३ संवत् २०७५ तदनुसार दिनांक १४ अप्रेल २०१८ को उनके छोटे शिष्य श्री नृत्यगोपालराम जी महाराज इस रामानंदी गद्दी पर आसीन हुए! ये अपने आप में महत्वपूर्ण घटना थी क्योंकि करीबन पचास वर्ष अपने गुरु की सेवा में रत अभयरामजी के ज्येष्ठ शिष्य गोपालरामजी महाराज ने इस गद्दी पर अपने छोटे गुरु भाई को आसीन करवाया था! ऐसी घटनाए काफी कम ही सुनने को मिलती है! वर्तमान में नृत्यगोपालराम जी महाराज इस आश्रम के गादीपति है!
यहाँ पर हुए सभी गुरू वृंदो को १००८ की उपाधि प्राप्त हैं। गुरू समाधि मंदिर में हरवर्ष आयोजित होने वाले पांच दिवसीय बरसी महोत्सव, माखनलीला, कृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी और चातुर्मास को विशेष कार्यक्रम होते हैं।
सिवाना के दर्शनीय दर्शनीय पंचतीर्थ
बाड़मेर का कश्मीर गढ़ सिवाना चारों तरफ से छप्पन की पर्वत मालाओं और प्राकृतिक संपदाओं से घिरा हुआ हैं। यहाँ पर जगह जगह प्रकृति के अनूठे आश्चर्य देखने को मिलते हैं। आस पास के पर्वतों में दर्शनीय पंचतीर्थ स्थल मौजूद हैं। क्षेत्र के लोग सावन मास और सोमवती अमावस को इन पंचतीर्थो की एक साथ परीक्रमा करके पुण्यार्जन करते हैं।
१. मिनी माउँट हल्देश्वर
सिवाना कस्बे से १० किलोमीटर दूर छप्पन की पर्वतमालाओं की सबसे ऊँची चोटी (लगभग ३२०० फीट) पर भगवान शिवजी का प्राचीन मंदिर हल्देश्वर स्थित हैं। स्वछंद प्रकृति की गोद में बसा यह स्थान पर्यटको को बरबस ही अपनी ओर खींच लेता हैं। सात पहाडीयों की ९ किलोमीटर की दुर्गम चढ़ाई के बाद यहाँ पहुँचने पर थके मांदे पर्यटक यहाँ की चटा देखकर अपनी साऱी थकान भूल जाते हैं। जगह जगह गिरते झरने, कलरव करते पंछी, निकट से गुजरते बादल और इन सबके बीच विराजते हैं स्वयंभू शिव। ये सब मन को अपार आनंद की अनूभूति करवाते हैं। प्राकृतिक सौंदर्य से परीपूर्ण इस स्थान को मिनी माउँट कहा जाता हैं। हल्देश्वर महादेव मंदिर पर जाने वाले रास्ते में पहाडिय़ों के मध्य भाग में स्थित है पूंगला-पूंगली पोल। यह पोल सत्रहवीं सदी में वीर दुर्गादास राठौड़ ने बनवाई थी। दुर्गादास राठौड़ ने औरंगजेब के पुत्र व पुत्री ( पूंगला-पूंगली) का अपहरण कर मारवाड़ में सिवाना के समीप छप्पन की पहाडिय़ों में लाकर छुपा दिया। फिर यहा पर वीर दुर्गादास ने पत्थरों की कारीगरी से एव विशाल पोल का निर्माण करवाया। इस पोल के अंदर दो कमरे बनाए उसमें औरंगजेब के पुत्र व पुत्री को गुप्त रूप से रखा गया था।इस पोल की खासियत यह भी है कि पोल को सिर्फ पत्थरों से बनाया गया है इसमें चूना व सिमेंट का कही नामों निशान तक नही हैं। यहाँ का नैसर्गिक सौंदर्य देखकर दर्शको का मन मयूर हर्षित होकर नाच उठता हैं। यहाँ की रंगीन वादियों में खोकर दर्शक यहाँ से लौटने का नाम ही नही लेता। सरकारी सहयोग से अगर इस स्थान को अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त किया जायें तो निश्चित तौर पर यह थार का एकमात्र विख्यात हिल स्टेशन बन सकता हैं।
२. भीम गोड़ा
पंचतीर्थो में भीमगोडा सबसे प्राचीन और महत्वपुर्ण स्थान हैं। संबंधित ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार पांडव अपने अज्ञातवास के दौरान यहाँ पर आए तब उनके सामने पीने के पानी की समस्या उत्पन्न होने पर भीम ने पहाड पर गोडा (घुटना) मारकर पानी निकाला। उस स्थान से जल का प्रवाह आज भी निरंतर जारी हैं। कालांतर में संवत् १८६३ में महाराजा मानसिंह ने यहाँ पर पंचमुखी शिव मंदिर का निर्माण करवाया। इसके बाद गुरू महाराज अभयरामजी ने यहाँ भगवान श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीविश्वकर्मा, श्रीहनुमान और देवी अन्नपुर्णा के मंदिर बनवायें। साथ ही एक वृहत् क्षेत्र पर एक गौशाला का भी निर्माण करवाया जिसका संचालन विख्यात गौभक्त श्री गोपालराम जी महाराज द्वारा किया जाता हैं। निकट ही पर्वत पर वह गुफा भी हैं जहाँ सिवाना के गुरू वृंदो ने तपस्या की थी।
३. शुक्लेश्वर महादेव
यह स्थान भी छप्पन की पर्वत मालाओं में स्थित हैं। प्राचीन ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी की प्रतिमाएँ यहाँ से प्राप्त हुई हैं। यहाँ वर्षा काल में जगह जगह स्वच्छ जल के झरने बहते हैं। आसपास का वातावरण प्रकृति की सुंदरता और शीतलता से समृद्ध हैं। यही कारण हैं कि सावन मास में यहाँ श्रद्धालुओ का मेला लगा रहता हैं।
४. भीडभंजन महादेव
सिवाना कस्बे से छ: किलोमीटर दूर पूर्व दिशा में देवंदी गाँव की सरहद पर भीडभंजन महादेव का पुराना मंदिर आया हुआ हैं। एक भक्तविशेष को यहाँ पर भगवान भोलेनाथ ने साक्षात दर्शन दिये थे। साथ ही यहाँ पर स्वयंभू शिवलिंग की पुजा करने को कहा तब से यहाँ पर उक्त शिवलिंग यथास्थिति में रोज पुजा जाता हैं।
५. थानमाता हिंगलाज
सिवाना के निकट स्थित माँ हिंगलाज का मंदिर क्षेत्र का प्रमुख शक्तिपीठ हैं। इसके बारे में मान्यता हैं कि यहाँ पर प्राचीन काल में एक दैत्य का आतंक था। वह यहाँ रहने वाले लोगो पर तरह तरह के अत्याचार करता था। पुरे क्षेत्र के लोग उससे त्रस्त थे। एक बार दैत्य ने भयंकर उत्पात मचाया और यहाँ के पर्वत से एक भारी भरकम पत्थर नीचे स्थित बस्तियों की ओर लुढ़काया। सभी लोग घबराकर माँ हिंगलाज का आह्वान करने लगे तब कोयलिया पर्वत को फोडकर माँ हिंगलाज प्रकट हुई और अपने हाथ के इशारे से उस भारी भरकम पत्थर को यथास्थान पर स्थिर कर दिया। आज भी यह एक कमरे के आकार का बड़ा सा पत्थर उसी स्थिति में तिरछा पहाड़ पर लटक रहा हैं। माँ हिंगलाज ने यहाँ पर उस दैत्य का वध किया। आज भी उस गुफा में माता की वह प्रतिमा मौजूद हैं जो पर्वत फोडकर प्रकट हुई थी। इस चमत्कारी गुफा के नीचे से स्वच्छ जल की धारा अनवरत बह रही हैं। नवरात्र में यहाँ पर मेला लगा रहता हैं और दुर दुर से लोग दर्शन के लिये यहाँ पर आते हैं।
इन सबके अतिरीक्त सामुजा महादेव, पिपळिया महादेव, दूदनाथ महादेव, पहाडेश्वर महादेव, कोटेश्वर महादेव आदि भी क्षेत्र के प्रमुख शिव मंदिर हैं। निकटवर्ती दंताला पीर की मजार कौमी एकता की प्रतिक हैं। दंताला वली रहमतुल्ला अलैह ख्वाजा साहब के समकालीन थे। मोकलसर स्थित प्राचीन बावड़ी भी दर्शनीय स्थल हैं। ऐसी कलात्मक बावड़ी दूर दूर क्षेत्र में देखने को नही मिलती। करीब २५०-३५० वर्ष पुरानी यह बावड़ी इतनी भव्य और विशाल हैं कि उस काल में भी इस पर लाखों रूपयों के व्यय का अनुमान हैं।
तेलवाड़ा स्थित गोगाजी का मंदिर, गुरू महाराज की बगेची समदड़ी, ललेची माता का मंदिर समदड़ी, हेमगिरीजी का गडा, नागाजी की बगेची खंडप आदि के अलावा मठ खरंटिया भी प्राचीन धार्मिक स्थल हैं।
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परिचय :- जीत जांगिड़ सिवाणा
निवासी – सिवाना, जिला-बाड़मेर (राजस्थान)
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