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रचयिता : अर्चना मंडलोई
अन्धेरा उस घर में हो गया
हाथ बढा कर
एक दिया रख देना तुम।।
निगल गया उसे
मौत का कोई सौदागर
हो सके तो, बेटी के सर पर
हाथ जरा रख देना तुम
अन्धेरा उस घर में हो गया
एक दिया रख देना तुम
मेरा घर रौशन हो जाए
जला डाला उसने अपना घर
आँखे उसकी तकती रही
ताबुत हो गया उसका तन
हो संभव तो, हाथ बढाकर
चुडी हाथो में उसके पहना देना तुम
अन्धेरा उस घर में हो गया
एक दिया रख देना तुम।।
मेरे घर में दीवाली हो
हो जाए बैसाखी और ईद
इसलिए हो गया वो शहीद
हो सके तो बढकर
उसे नमन् कर लेना तुम
अन्धेरा उस घर में हो गया
एक दिया उसके भी घर
रख देना तुम।
नन्हें हाथों ने जब
पकडी होगी चीता की लौ
काँप गई होगी उसकी रूह
आशीषों का हाथ जरा तुम
उसके सर पर रख देना
अन्धेरा उस घर में हो गया
एक दिया रख देना तुम।।
काँपते हाथो ने जब छुआ होगा
धूँधली नजरो ने माथे को जब चूमा होगा
तिरंगे में लिपटे लाल को
माँ ने जब देखा होगा
वो करूण रूदन सुनकर
हो सके तो
माँ की रौशनी लौटा देना तुम
उस माँ को शत्-शत् नमन् कर लेना तुम
अन्धेरा उस घर में हो गया
एक दिया रख देना तुम।।
पथराई आँखों से तकते
पिता की आँखों के सपने
कंधे पर हाथ जरा रख देना तुम
अन्धेरा उस घर में हो गया
एक दिया रख देना तुम।।
लेखिका परिचय : इंदौर निवासी अर्चना मंडलोई शिक्षिका हैं आप एम.ए. हिन्दी साहित्य एवं आप एम.फिल. पी.एच.डी रजीस्टर्ड हैं, आपने विभिन्न विधाओं में लेखन, सामाजिक पत्रिका का संपादन व मालवी नाट्य मंचन किया है, आप अनेक सामाजिक व साहित्यिक संस्थाओं में सदस्य हैं व सामाजिक गतिविधियों मे संलग्न।
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