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दिल अश्कों से जला गये

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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धुआँ दूर उठता रहा वो दिल अश्कों से जला गये,
धुंध छटी तो फिर भी आँसू रुके नहीं छलछला गये।
यादों के भीगे दर्पण में वो खुद को खोजते ही रहे,
पलकें फिर से सजल हुईं और अक्स धुँधला गये।
कैसे और भला किसको फूलों के हार दिये जायें,
बाग़ेवफा में जाने क्यों सब गुलदस्ते कुम्हला गये।
चुप रहने की ठानी थी जाने क्यों मौसम बदल गया,
वो प्यार का इज़हार कर खामोश लब सहला गये।
अपने तो सफर का सबब है मुख्तसर ‘विवेक’,
उनकी राहों में फूल बिछाते हम काँटों पे चला करें।

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परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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