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दिल धड़कता रह गया

विवेक रंजन ‘विवेक’
रीवा (म.प्र.)

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यूं अचानक से कोई कुछ पास आकर कह गया,
बस उन्हें फिर याद कर ये दिल धड़कता रह गया।

जज़्बातों की बात क्या सब ख्वाब जलकर खाक हैं,
अरमानों की बुझी राख में शोला भड़कता रह गया।

शोर सहता है बहुत मन पर भीड़ में रहता अकेला,
अपने तो दिल का मंजर सूनी सड़क सा रह गया।

कनखियों से वार कर खामोशियां रुखसत हुईं,
मुट्ठियों में उसके बस वह खत फड़कता रह गया।

खुशी ओढ़ ली चेहरे पर पत्थरदिल बनकर विवेक
वह उन्मन है यही सोच तन मन तड़पता रह गया।

परिचय : विवेक रंजन “विवेक”
जन्म –१६ मई १९६३ जबलपुर
शिक्षा- एम.एस-सी.रसायन शास्त्र
लेखन – १९७९ से अनवरत…. दैनिक समय तथा दैनिक जागरण में रचनायें प्रकाशित होती रही हैं। अभी हाल ही में इनका पहला उपन्यास “गुलमोहर की छाँव” प्रकाशित हुआ है।
सम्प्रति – सीमेंट क्वालिटी कंट्रोल कनसलटेंट के रूप में विभिन्न सीमेंट संस्थानों से समबद्ध हैं।


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