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क्या महिलाएं सशक्त हो गयी है?

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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स्त्री और पुरुष उस सर्वशक्तिमान की अमूल्य भेंट है। आजतक के विकास में स्त्री और पुरुष की समान हिस्सेदारी भी है। इतना होते हुए भी हर समय यश, प्रसिद्धी, मानसन्मान, निर्णय लेने का अधिकार हमें हरस्तर पर आज पुरूषों के लिए ही दिखाई देता है। देश में हर स्तर पर महिलाओं के लिए ५० प्रतिशत आरक्षण होना चाहिए परन्तु ३३ प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव भी पुरूषों के अड़ियल और महिलाओं के प्रति उनके नकारात्मक द्रष्टिकोण के कारण अनेक वर्षों से लोकसभा में लंबित था। वैसे भी वर्तमान में महिला सशक्तिकरण की अनेक योजनाये कार्यरत है, परन्तु लचर मानसिकता और भ्रष्टाचार के कारण वांछित परिमाण देश में दिखाई नहीं दे रहे है।

पुरुष सत्तात्मक समाज में आज भी महिलाओं को पुरूषों के बाद का ही दर्जा दिया जाता है। समानता को स्वीकार करने की मानसिकता ही दिखाई नहीं देती। मजे की बात यह है कि पुरूषों के महिलाओं के प्रति घर और बाहर रोज दिखाई देने वाले इस षड्यंत्र को अधिकांश महिलाएं स्वख़ुशी से स्वीकार कर रही है। पुरूषों के महिलाओं के प्रति इस अन्यायकारी व्यवहार का किसी भी प्रकार से विरोध न करते हुए, और अपने अधिकारों के लिए किसी भी प्रकार का संघर्ष न करते हुए, इस हेतु पुरूषों को किसी भी प्रकार की चुनौती न देते हुए अधिकांश महिलाओं ने पुरूषों के अधीन रहना अपनी नियति मान ली है। अपना दुय्यम दर्जा स्वीकार कर लिया है और स्वयं को प्रगतिशील कहलानेवाली गिनती की जो महिलाए आगे आने का प्रयास कर रही है वे भी परिवार, समाज और देश में अपर्याप्त व्यवस्था के करण एक सीमा के बाद खुद को विवश समझती है। हरियाणा की खाप पंचायत के तुगलकी फतवे के विरुद्ध कोई भी महिला संगठन आगे नहीं आया। मुस्लिम महिलाए बुरखे का विरोध नहीं करती। जो व्यवस्था पुरूषों ने बना दी वह ख़ुशी से अंगीकार कर ली और यही नियति मान ली।

महिलओं के ५० प्रतिशत तो क्या ३३ प्रतिशत आरक्षण हेतु किसी भी महिला संगठन की गतिविधिया हमें दिखाई नहीं दी जबकि जाट आरक्षण, पटेल आरक्षण, गुर्जर आरक्षण और मराठा आरक्षण हेतु अनके महिलाएं भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधामिलाएं हमें समाचार चेनलों में दिखाई देती है। वस्तुस्थिति यह है कि अगर ये आरक्षण मिल भी जाए तो जब तक महिलाओं के लिए आरक्षण नहीं होता तब तक इसका अधिकांश लाभ पुरूषों को ही होने वाला है। सोनिया गाँधी, सुषमा स्वराज, उमा भारती, मायावती, जयललिता, ममता बनर्जी, मीरा कुमार, समित्रा महाजन, जैसी श्रेष्ठ और योग्य महिलाएं राजनीती में होते हुए भी महिलाओं के ५० प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा अभी कोसो दूर है। आश्चर्य यह है कि इनके स्वयं के दलों में महिलाओं के लिए उचित मात्रा में स्थान नहीं है। वस्तुस्थीति यह है कि १० प्रतिशत महिलाओ को भी इनके दल, सांसद और विधायक हेतु टिकिट नहीं देते। इस कारण हर दल की निर्णय प्रक्रिया में महिलाएं आज भी नगण्य है। मजे की बात यह है कि अनेक सरपंच महिलाएं सारा कारोबार अपने पतियों को सौप कर चूल्हाचौका सम्हालने में ही अपनी सुरक्षा और खुशहाली समजती है। अर्थात पुरुष जितना ख़ुशी से दे उतना ही महिलाएं स्वीकारे और पुरुष जिसके लिए स्वीकृति दे वही काम महिलाएं करे यहीं आज भी महिलाओं की मानसिकता ही है।

स्त्रियों की इस मानसिकता के मूल में जाने की जरुरत है। गत हजारों वर्षोँ से समाज की रचना पुरुषों के वर्चस्व को बनाएं रखने के लिए बहुत ही कुशलता पूर्वक धर्म का आधार लेकर की गयी है। राजकारण हो, अर्थकारण हो, धर्म हो, समाज हो, परिवार हो, काम हो, या मुक्ति (मोक्ष ) की बात हो, पाप हो पुण्य हो, स्वार्थ हो परमार्थ हो, हर स्तर पर पुरुषों ने अपनी मनमानी ही की है। इसका उल्लेख इसलिए कि पुरुष एक उद्देश्य और उसके लिए हर पूर्ति का साधन स्त्री। इसी धरातल पर सबकुछ रचा बसा गया और इसी क्रम में विश्व के अधिकांश धर्म और जातियां यही मानसिकता लेकर पनपती रही। आधुनिक वैज्ञानिक युग में महिलाएं किस तरह सक्षत हो? उन्हें कौन सक्षत बनाएं? देश ही नहीं बल्कि प्रमुखता से विश्व की भी यही समस्या है। महिलाओं की दशा (दुर्दशा?) के लिए बहुत अंशो में महिलाएं स्वयं भी जिम्मेदार है। परन्तु यह मुद्दा हम न भी ले तो एक बात स्पष्ट है कि महिलाओं की सक्षतता के लिए महिलाओं को ही स्वयं हो कर आगे आने की जरुरत है।
अब हमें यह स्वीकार करना होगा की स्त्रियों को निम्नतर समझने और साबित करने में ‘धर्म ‘ पुरूषों का एक बहुत बड़ा अस्त्र साबित हुआ है। पौराणिक धार्मिक कथाओं को इस तरह रचा गया, और इस पद्धति से प्रचारित प्रसारित किया गया, जिसके कारण स्त्रियों को समाज में निम्नतर और दुर्बल समझा गया और नारी को मानसिक रूप से अबला बनाने में पुरूषों को वर्चस्व मिला। उदाहरणार्थ – हम सब मनु की संतान है (स्त्री इसमें कही नहीं है), आगे गोत्र के लिए हम सब सप्तऋषींयों की संतान है (स्त्री इसमें कहा है?)। पार्वती ने इच्छित वर प्राप्ति हेतु घोर तपस्या की और उसे योग्य इच्छित वर मिला। पुरूषों का वर्चस्व स्थापित करने हेतु, विवाहिताओं और कुमारिकाओं के मन में इस कथा को, इसके तथाकथित आदर्श को इतना प्रचारित प्रसारित किया गया कि हरतालिका और करवाचौथ जैसे धार्मिक आयोजनों को बल मिला और स्त्रियाँ यह उपवास रख कर अपने आपको धन्य समझने लगी, परंतु पुरूषों के लिए इच्छित पत्नी प्राप्त करने हेतु इस तरह व्रत रखने की कोई कथा हमें नहीं मिलती। इससे आगे बढ़कर स्त्रियों को चारदिवारी लांघने की इजाजत नहीं होने से स्त्रियों के लिए घर में ही तीजत्योहारों की उत्पत्ती हुई। धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है, परन्तु आज के इस वैज्ञानिक युग में अनेक नोकरीपेशा और उन्नत आधुनिक महिलाए भी इस तरह के व्रत-उपवास के आवरण से अपने आप को बाहर नहीं ला पा रही है, सिर्फ पुरूषों से उन्हें प्राप्त सुरक्षा हेतु वे दोहरी मानसिकता लिए जी रही है I

सावित्री सत्यवान की कथा भी हमें क्या बोध कराती है? पत्नी को पति के लिए अपना प्रेम मृत्यु के बाद भी प्रगट करना होता है। पुरूषों को इस त्याग की जरुरत नहीं I सावित्री के पतिव्रता धर्म से प्रसन्न हो यमराज ने सत्यवान के प्राण वापस किए I अर्थात पुरुष उद्देश्य और स्त्री साधन I स्त्री के लिए पतिव्रता सबसे बड़ा धर्म I पुरूषों के लिए धर्म में पत्निव्रता जैसी कोई कथा नहीं I इस तरह की कथाओ का इतना प्रचार किया गया की महिलाएं अपने पति के लिए बरगद के पेड़ की परिक्रमा करने लगी I इन सब पुरूषों के हित के लिए रची गयी धार्मिक कथाओं के कारण स्त्रियाँ मानसिक रूप से दुर्बल हुई और पुरूषों के मुकाबले पिछडती चली गयी और पुरूषों की उपेक्षा का शिकार होती गयी I

परिवार में स्त्रियों पर ज्यादा अत्याचार न हो इसलिए – ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ अर्थात उन दिनों भी स्त्रियों पर अत्याचार होता ही था I जिस घर में स्त्रियों को मान सन्मान और आदर मिलता हो वहा पर देवता विचरण करते है, यहाँ पर भी ‘देवता ‘कोई भी देवी नहीं है I इस तरह के अनेक उदहारण है I स्त्री पुरुष दोनों समान है इस लिए स्त्री के साथ सम्मानजनक व्यवहार हो और कोई भेदभाव नहीं हो इस तरह की कोई भी सीख या प्रेरणादायक कथा नहीं मिलती I पौराणिक कथाओं में जानबुझ कर स्त्रियों के आत्मसन्मान को खंडित किया जाता रहा I उन्हें मानसिक आघात पहुचाएं जाते और वे अपना आत्मविश्वास खोती रही I एक और उदहारण, अहिल्या पत्थर होने का है I परन्तु किसी भी पुरुष को किसी भी धार्मिक या पौराणिक कथा में इस तरह का दंड नहीं दिखाया गया I स्त्री का चरित्र और सत्व उसके जीवन से भी अधिक माना गया और स्त्री को ही सारे कठोर दंड या श्राप थे I पुरूषों के लिए इसमें छुट थी I

परिवार व्यवस्था में भी धर्म का हस्तक्षेप देखियें, मनु स्मृति में स्त्रियों को स्वतंत्रता नहीं दी गयी हैं I उन्हें पुरुषों के ही अधीन रखा गया हैं I “बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति एवं वृद्धावस्था में पुत्र, परिवार में यहीं तीन स्त्री के आश्रयस्थान (आश्रयदाता) हैं इसलिए स्त्री को स्वतंत्र नहीं रहना चाहियें I “(५/१४७-बाल्यावस्था में पिता, युवावस्था में पति एवं वृद्धावस्था में पुत्र, इनसे स्त्री का रक्षण होता हैं इसलिए स्त्री स्वतंत्रता के योग्य ही नहीं हैं) I मोक्षप्राप्ति के नाम से वैसे तो धर्म में सभी को डराया गया हैं परन्तु स्त्री के साथ यहाँ भी पक्षपात किया गया हैं I स्त्रियों के लिए अनेक बंधन लगाएं जबकि पुरुषों के लिए इस तरह का कोई बंधन नहीं हैं, ९/३ के अनुसार “ जो स्त्री मन , वचन , शरीर से अपने पति से निष्ठावान (एकरूप) रहती हैं वह उत्तम गति को प्राप्त होती हैं I वहीँ ९/२९/३३ के अनुसार स्त्री को सीधेसीधे मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता I समुन्दर में जिस तरह नदी एकरूप होकर घुलमिल जाती हैं और अपना अस्तित्व खो बैठती हैं उसी तरह से स्त्री को भी अपने पति की पतिव्रता बनकर एकरूप रहना चाहियें -९/२२ ( यहाँ पुरुषों के लिए पत्नी के साथ एकनिष्ठ और एकरूप रहने हेतु कोई भी संदेश या सलाह या निर्देश नहीं हैं ) धर्म का आवरण और सहारा लेकर स्त्री को हमेशा ही पुरुषों के अधीन रहने हेतु विवश किया गया हैं I धर्म का ही आधार लेकर समाज ने भी स्त्रियों को घर परिवार की एक चौखट में बंधुआ की तरह रखने की सदैव व्यवस्था की और पुरुषों को मनमानी करने हेतु खुला छोड़ दिया I

परिवार व्यवस्था में भी स्त्री पुरुषों के काम के बटवारे ने भी स्त्री को हमेशा ही पिछड़ा बनायें रखा I पुरुषों ने सभी निर्णय एवं बाहर के काम अपने जिम्मे रख लिए और स्त्रियों को दहलीज पार ना करने की सख्त मनाही कर दी और इसके पालन में जोरजबरदस्ती भी होती I इसतरह स्त्रियों के नसीब में हमेशा चूल्हा-चौका और बच्चों को सम्हालना ही रहा I कुलमिलाकर विगत हजारों वर्षों की इस व्यवस्था के कारण स्त्रियाँ मानसिक रूप से दुर्बल तो हो ही गयी और एक तरह से मानसिक दासत्व का भी शिकार हो गयी I

हमारे यहाँ ३३ कोटि देवी-देवता होते हैं जिनकी विभिन्न रूपों में आराधना, अर्चना की जाती हैं पर इन ३३ कोटि देवी-देवताओं में देवियों की संख्या उँगलियों पर ही गिनने लायक हैं I इसका अर्थ यह हैं कि अत्यंत पौराणिक समय से स्त्रियों के महत्व को मान्य ही नही किया गया हैं I कुलमिलाकर हमारे यहाँ ब्रह्मा, विष्णु, एवं महेश इन त्रिदेवों की महत्ता हम देखते हैं I इन्हीं के मंदिर हमें सभी जगह दिखाई देते हैं I इनमें ब्रह्माजी का पुष्कर का मंदिर छोड़ दिया जाए तो उनका मंदिर कहीं दिखाई नहीं देता, परन्तु भगवान् शिव और विष्णु के मंदिर हमें बहुतायत में दिखाई देते हैं I विष्णुपुराण में भगवान् विष्णु के १२ अवतार होने का उल्लेख हैं, इनमें प्रमुखता से श्रीराम और श्रीकृष्ण का उल्लेख होता हैं I उत्तर भारत प्रमुखता से श्रीराम और श्रीकृष्ण की लीलाओं से जुड़ा होने के कारण बहुतायत में इनके मंदिर हमें इस भाग में ज्यादा दिखाई देते हैं, परन्तु सम्पूर्ण भारत में सबसे ज्यादा मंदिर भगवान् शिवजी के हैं I महत्वपूर्ण यह हैं कि लक्ष्मी, पार्वती, या सीता या द्रौपदी या अन्य किसी देवी के मंदिर समूर्ण भारत में उँगलियों पर गिनने लायक ही हैं I अर्थात साल के पूरे ३६५ दिन किसी न किसी कारण से सभी भगवान् की पूजा अर्चना नियमित होती रहती हैं जब कि देवी की आराधना के लिए वर्ष में सिर्फ दो बार नवरात्रि में दिन रखे गए हैं I यहाँ भी समानता नहीं हैं I बालविवाह और सतीप्रथा ये सामाजिक/धार्मिक इतिहास की बेहद दु:खद, वीभत्स, क्रूर एवं भयानक प्रथाएं थी I अत्यंत निंदनीय ऐसी इन प्रथाओं को धार्मिक प्रोत्साहन के कारण पुरुषों ने या समाज में किसी ने रोकने का प्रयास नहीं किया I इसे धार्मिक प्रोत्साहन के कारण हजारों वर्षों से पुरुषों के द्वारा किये जा रहे स्त्रियों के प्रति अक्षम्य अपराध भी कह सकते हैं I गहरा धार्मिक आवरण रखने वाली, किसी भी न्याय और सिधांत के परे, स्त्रियों के अस्तित्व और उनके जीवन जीने के अधिकार को और स्वतंत्रता को बलात रूप से नकारने वाली इन कुरीतियों एवं परम्पराओं ने स्त्रियों को पुरुषों से हजारों वर्ष पीछे धकेल दिया I पति की मृत्यु उपरान्त स्त्री को सती होना पड़ता वहीँ पत्नी की मृत्यु उपरान्त पुरुष को कई विवाह करने की छूट थी I पुरुषों को जीवन जीने का अधिकार, फिर स्त्री को सती होने का मृत्युदंड क्यों ? इसका विचार समाज ने और धर्म ने कभी नहीं किया I इसके विपरीत सतीप्रति को महिमामंडित करने का षड्यंत्र किया जाता I किसी को महिमामंडित करना यहीं तो धार्मिक विषय हैं I सच तो यह हैं सतीप्रथा का तीव्र विरोध स्त्रियों की ओर से होना चाहिए था, परंतु पति की मृत्यु के, इसलिए विधवा के लिए जीते जी खुद को अग्नि में भस्म कर मृत्यु को गले लगाना मजबूरी होती थी I पुरुषों के अत्याचार की इतनी ज्यादती थी कि हजारों वर्षों के इस क्रूरता को चुनौती देने के लिए स्त्रियाँ खुद को अक्षम पाती थी और इसी कारण सामूहिक रूप से भी स्त्रियाँ इस प्रथा का विरोध करने से डरती थी I सतीप्रथा को भले ही पुरुषों ने महिमामंडित किया हो पर आगे चलकर यह प्रथा समाज में इतनी रचबस गयी थी कि महिलाएं भी इनमें बढ़चढ़ कर भाग लेने लगी I सतीप्रथा और बालविवाह के कारण स्त्रियाँ निराश जीवन जीती एवं वें मानसिक रूप से भी दुर्बल होती गयी I उनके जीवन जीने के उद्देश्य और साधन भी बदल गए I उन दिनों महिलाएं सदैव एक मानसिक दबाव में जीती, फिर क्या तो शिक्षण और कहाँ स्त्रियों का विकास?

अब स्त्रियों का स्वयंवर लीजिए, अर्थात उस समय पुरुषों के लिए कोई स्वयंवर नहीं होता था I स्त्रियों को स्वयंवर में ही अपने लिए वर चुनना था I पुरुषों को सिर्फ स्त्रियों पर अधिकार जताना होता था I इन स्वयंवरों में पुरुषों के साहसी, चातुर्यपूर्ण, और बुद्धिमत्ता जैसे गुणों की परीक्षा होती, पर अपने गुणों को दिखाने की स्त्रियों को आजादी नहीं होती I उनके सिर्फ रूप का प्रदर्शन I द्रौपदी का स्वयंवर हो या सीता के स्वयंवर के समय की बात करे तो उस समय इसके लिए किसी एक विचित्र शर्त का रखा जाना क्या दर्शाता हैं ? और वह शर्त तय करने का हक़ भी उस स्त्री को नहीं होता था I स्त्री के लिए इससे बढ़ कर दुर्भाग्य यह कि स्त्री को एक वस्तु समझा जाने लगा I नवविवाहिता द्रौपदी घर पहुचने तक एकमेव अर्जुन की पत्नी थी, पर बाद में एक वस्तु समझ कर उसका बटवारा पांच भाइयों में किया गया I बाद में उसे वस्तु ही समझ कर द्रुत में भी दाव पर लगाया गया, और पांडव हार गए I स्त्रियों के साथ कितना निकृष्टतम व्यवहार उन दिनों होता था इसका द्रौपदी से बेहतर उदहारण नहीं हो सकता I कितने निम्नस्तर का कारण द्रौपदी को वस्तु समझने के लिए और उसका बटवारा करने के लिए? सीता को भी तो बिना वजह कितना अपमान सहना पड़ा ? उसका क्या ?

द्रौपदी का वस्त्रहरण महाभारत की सबसे शर्मिंदगीवाली घटना, जिसके कारण आने वाले दिनों में स्त्रियों को मानसिक आघात में ही रहना पड़ा और स्त्रियाँ मानसिक रूप से भी अपने आप को दुर्बल समझती रही I अंधा राजा अन्याय के समक्ष शरणागत हो जानबूझकर गूंगाबहरा भी हो गया I भरे दरबार में बड़ेबड़े शूरवीर होते हुए भी राजा की बहू पर ही विकट संकट आया, फिर सामान्य स्त्रियों की क्या बिसात और सामान्य स्त्रियाँ कैसे स्वयं को सुरक्षित समझ सकती थी? हर एक की सहायता के लिए तो श्रीकृष्ण दौड़ कर नहीं आ सकते थे? इसलिए सामन्य स्त्रियों ने अपने आप को घरों में कैद करना ही स्वयं के लिए बेहतर समझा होगा? आगे आने वाले अनेक वर्षों में स्त्रियाँ इस मानसिकता से नहीं उबर पायी होंगी? स्त्रियों का आत्मविश्वास खोने के लिए पौराणिक काल में इसी तरह के महत्वपूर्ण कारण रहे होंगे, जिसके कारण पुरुषों को अपना वर्चस्व स्थापित कर पुरुष सत्तात्मक समाज स्थापित करना संभव हुआ I यहाँ हम इन्हें कथाएँ भी मान सकते हैं परन्तु जैसा कि इन घटनाओं के सत्य होने का दावा किया जाता हैं, और अगर वास्तव में ये घटनाएं घटित हुई हो तो फिर इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या हो सकता हैं? पद्मिनी समेत कई शूरवीर कहलाती स्त्रियोने अपने आप को अग्नि में भस्म कर लिया I सच तो यह कि समाज के लिए और ख़ास कर पुरुषों के लिए यह शर्मिंदगी लिए एक शोकांतिका थी, पर इसे “जौहर“ का नाम देकर महिमामंडित कर पुरुषों ने अपनी बुझदिली से छुटकारा पा लिया I सच तो यह हैं स्त्रियों ने जहां अपनी इज्जत बचाई वहीँ शूरवीर रणबांकुरे पुरुषों ने शर्मिंदगी पायी, फिर भी पुरुषों को श्रेष्ठ माना गया I शील, सत्व, पतिव्रता, घर की इज्जत, दहलीज, ये सारे बंधन और सारी अग्निपरीक्षाएं सिर्फ स्त्रियों के लिए ही थी I पुरुष स्वच्छंदी और स्त्रियों पर अत्याचार करने के लिए आजाद थे I दुर्भाग्य यह था कि स्त्रियों ने इन सब को ख़ामोशी से सहन किया , स्वीकार किया , भोगा और इस सब को अपनी नियति भी मान लिया I

वर्तमान में महिलाओं के सशक्तिकरण की कितनी ही चर्चा हो, प्रचार हो फिर स्त्रियां इन सब को अर्थात पुरुषों के पक्षपाती व्यवहार को आज भी नजरअंदाज करती नजार आती हैं I स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु स्त्री ही होती हैं ऐसा समाज में प्रस्तुत भी किया जाता हैं I अनेक फिल्मों में, धारावाहिकों में, साहित्य में महिलाओं को ही महिलाओं पर बहुत ज्यादा अत्याचार करते हुए दिखाया जाता हैं I अनेक प्रकरणों में हम देखते हैं कि परिवार में बहू की मृत्यु (ह्त्या/ आत्महत्या) के लिए, या सताएं जाने के लिए परिवार की ही सास या अन्य स्त्रियों पर अपराध कायम होते हैं I प्रश्न यह उठता हैं कि नारी जाती के अस्तित्व को बचाएं रखने के लिए, उसकी प्रतिष्ठा के लिए यें महिलाएं एक दूसरे की परिस्थितियां क्यों नहीं समझ सकती? एक दूसरे की मदत क्यों नहीं करती? बलात्कार के अनेक प्रकरणों में पुरुषों को घर की स्त्रियाँ ही मदत करती हुई पायी गयी हैं I अर्थात सभी मजबूर I

कुछ उदहारण देखे सातारा में एक पिता ने अपनी २५ वर्षीय पुत्री को जलाकर मार डाला I इंदौर में भी ऐसी ही एक अन्य घटना की पुनरावृत्ति हुई I दोनों ही घटनाओं में अपनी जाती के बाहर विवाह करना पिता (परिवार) को मान्य नहीं था I ऐसी हजारों कहानियाँ हमारे देश में मिल जायेंगी I मुद्दा यह कि आज के विज्ञानयुग में और विकसित भारत में परिवार की स्त्रियाँ अपनी लाडलियों की मदत के लिए आगे आकर पुरुषों के जुल्मों का सामना क्यों नहीं करती ? जिस बेटी को वह नौ महीने अपने गर्भ में सहेजती हैं , उसके पालन पोषण हेतु अनेक दु:खदर्द और कष्ट सहन करती हैं , तब जब कोई उसके साथ अत्याचार कर रहा होता हैं तब वह शेरनी क्यों नहीं बनती ? इसके विपरीत वह अपने पति या अन्य पुरुषों का साथ क्यों देती हैं ? इसका स्पष्ट अर्थ यहीं हैं कि स्त्री अपने पति का साथ देना ही पसंद करती हैं , और इस तरह एक स्त्री ही एक स्त्री की शत्रु बन जाती हैं I क्या स्त्रियाँ इतनी लाचार होती हैं ?

एक और मुद्दा यह कि जातीप्रथा हो या गरीबी हो इन सबमें सबसे ज्यादा स्त्रियों को ही सहन करना पड़ता हैं I उदहारण के लिए घर के रोजमर्रा के काम स्त्रियों को ही करना पड़ते थे और पहले के समय में निचली जाती के लोगों को सवर्णों के कुँए से पानी लेने की मनाही होती थी I इन परिस्थितयों में स्त्रियों को घर के काम के अलावा , बच्चों को सम्हालने के अलावा बड़ी दूरदूर से पानी लाना पड़ता था I परन्तु पुरुष कभी भी कहीं भी हमें पानी भरते दिखयी नहीं दिए I ऐसे हजारों उदहारण दिए जा सकते हैं, पर इतने वर्षों के बाद भी जाती का भेदभाव खत्म नहीं हुआ हैं और इसका अर्थ यह हैं कि महिलाओं के समक्ष अभी भी बड़ी चुनौतियां हैं I खाप पंचायतों के मनमाने फतवों का विरोध करना गाववालों के लिए आज भी कठिन होता हैं I आश्चर्य यह हैं कि एक भी संघठन, यहाँ तक कि बातबात पर केंडलमार्च निकालने वाली अनेक आधुनिक महिला संगठन भी इनके विरोध के लिए आगे नहीं आती I स्त्री-पुरुष असमानता की जड़ें बहुत गहरे तक पैठ बनायें हुए हैं I समाज की एक और विकृति की ओर यहाँ ध्यान देना होगा,वह हैं भ्रूणहत्या और इसके पहले भ्रूण की जांच ताकि यह पता लगाया जा सके की बेटी होगी या बेटा I इसके लिए अधिकतर महिला डाक्टर ही सहायक होती हैं I इस तरह घर की स्त्रियाँ और महिला डाक्टर अर्थात वें भी महिलाएं स्त्री की ही शत्रु साबित होती हैं I इससे बढ़कर महिलाओं के लिए दुर्भाग्य क्या हो सकता हैं ?

इन सब परिस्थितयों में महिलाओं की मानसिकता बदलने की आवश्यकता हैं I सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयास का उसकी योजनाओं के द्वारा पता पड़ता हैं परन्तु बिना जनसहयोग और सामाजिक जागरूकता के वें नाकाफी साबित होती हैं I इसके लिए महिलाओं के लिए कार्यरत सामजिक संगठनों को भी आक्रामक रूप से कार्य करने की आवश्यकता हैं I स्त्रियों में जागरूकता हेतु सबसे महत्वपूर्ण महिलाओं की साक्षरता बढाने की महती आवश्यकता हैं I महिलाओं की साक्षरता आज भी सबसे कठिन कार्य साबित हो रहा हैं I संयुक्तराष्ट्र संघ के शिक्षा विषयी एक समिति की रिपोर्ट के अनुसार हमारे (भारत) देश की महिलाओं को साक्षर होने के लिए अभी दस बीस नहीं वरन पूरे ५६ वर्षों से भी अधिक का समय लग सकता हैं I शिक्षा जैसी मूलभूत जरूरतों के लिए स्त्री और पुरुष में आज के इस आधुनिक युग में भी भेदभाव किया जाता हैं, इस वजह से दस करोड़ बालिकाओं को निरक्षरता की खाई में धकेल दिया गया हैं, ऐसा उस रिपोर्ट में उल्लेख किया गया हैं I ज्ञान-विज्ञान के युग में आज भी शिक्षण हेतु बेटियों की बनिस्पत बेटों को ही अधिक महत्व दिया जाता हैं I यह एक कटु वास्तिवकता हैं और इसका जिक्र भी समग्र रूप से उस रिपोर्ट में किया गया हैं I बालिकाओं की पढ़ाई अधूरे में ही रोके जाने का भी इस रिपोर्ट में उल्लेख हैं I तीसरी-चौथी के बाद पढ़ाई छुडवाने से वह बच्ची आगे सब भूल जाती हैं और उसकी गणना निरक्षर में ही होती हैं इस निष्कर्ष का भी उल्लेख उस रिपोर्ट में किया गया हैं I वैसे भी देश में शिक्षा का दर्जा अच्छा नहीं होने से कक्षा चार तक ही शिक्षित ९० प्रतिशत बालिकाएं निरक्षर होने जैसी ही हैं I उस रिपोर्ट में ऐसी राय भी जाहिर की गयी हैं I

महिला दिन मनाने वाले हम भारतीय उस रोज अनेक महिलाओं की यशोगाथा और गुणगान का वर्णन करते नहीं थकते I ऐसे लोगों के लिए संयुक्तराष्ट्र संघ की उपरोक्त रिपोर्ट आँखों में अंजन डालने का काम कर सकती हैं I विभिन्न क्षेत्रों में प्रशंसनीय कार्य करती महिलाओं का प्रतिनिधिक उदहारण देकर अब महिलाओं के सशक्त होने का दावा किया जा रहा हैं I महिलाओं की जनसँख्या की तुलना में व्यावसायिक क्षेत्रों में लक्षणीय सफलतापूर्वक कार्यरत महिलाओं की संख्या ऊंट के मुंह में जिरे जैसी ही हैं I महिला और पुरुष में भेदभाव करने की मानसिकता आज भी बड़े पैमाने पर देखने को मिलती हैं और यहीं मानसिकता महिलाओं के अग्रसर होने में प्रमुख बाधा हैं I

यूनेस्कों के शिक्षा के लिए प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में आंकड़ों समेत यहीं मुद्दा प्रमुखता से रखा गया हैं I बालक और बालिका इनमें अंतर करने की शुरुवात ही प्राथमिक पढ़ाई से की जाती हैं I उज्जवल भविष्य की द्रष्टि से बेटों को श्रेष्ठ शिक्षा की व्यवस्था की जाती हैं जब कि बेटियों को काम चलाऊ शिक्षण भी कठिनाई से उपलब्ध होता हैं I मध्यमवर्गीय और उच्चवर्गीय में यह मानसिकता आज भी इस वर्तमान समय में लक्षित होती हैं जब कि गरीबों और पिछड़ेवर्ग में लड़कियों की शिक्षा तो स्वप्नवत ही हैं I –गत दिनों ‘ इण्डिया हेबिटेट सेंटर ‘ में आयोजित चार दिनों के एक चर्चासत्र के उद्घाटन के अवसर पर ‘ यूनाईटेड नेशन्स पाप्युलेशन फंड और वाशिंगटन की महिलाओं हेतु अंतर्राष्ट्रीय संशोधन केंद्र की और से , ‘ पुरुषार्थ , पुरुषों का हिंसाचार ‘ और बेटों के लिए जिद ‘ पर सर्वे रिपोर्ट संयुक्तराष्ट्र की ओर से प्रकाशित की गयी I यह सर्वे देश के १८ राज्यों में किया गया हैं I इस सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भारत में दस में से छ: पुरुष अपनी पत्नियों से मारपिट करते हैं I ५२ प्रतिशत महिलाओं ने वे पारिवारिक हिंसा की शिकार होती हैं ऐसी स्वीकारोक्ति दी हैं I इन परिस्थितियों से हमें स्थिति की भयावहता का बोध होता हैं I पुरुषों के इस क्रूर घरेलु हिंसाचार का सामना नोकरीपेशा और उच्च शिक्षित महिलाओं को भी करना पड़ता हैं यही महिलाओं की विडम्बना हैं I
अब वास्तव में समय आगया हैं कि महिलाओं को इन सब से स्वयं होकर द्रढ़ता से बाहर आना होगा I महिलाओं को सम्पूर्ण रूप से शिक्षित कर और हर क्षेत्र में विकसित कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाना होगा I यह दिखाई भी दे इसलिए किसी समग्र क्रांतिकारी कदम की आवश्यकता हैं I ३३ प्रतिशत आरक्षण अभी भी सिर्फ कागजों पर ही हैं और उससे भी काम चलने वाला नहीं हैं I महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु महिलाओं को ही आगे आने की जरूरत हैं और बड़े साहस के साथ परिवार के पुरुषों से ही उन्हें पूछना होगा, “आपकों माँ चाहिए, पत्नी चाहिए, दादी चाहिए, बहन चाहिए, मौसी चाहिए, बुआ चाहिए, चाची चाहिए, भौजी चाहिए, और साली तो हमखास चाहिए ही, तो फिर जिसके कारण यह सब रिश्ते आकार लेते हैं वह बेटी क्यों नहीं चाहिए?“

लेखक परिचय :-  विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.

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