अंजली सांकृत्या
जयपुर (राजस्थान)
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मेरे पथ का साथी हैं,
पाखी मेरे हूनूर का…
गुरु संग क़दम बढ़ाते चल,
गुरु द्रोण की तस्वीर बन…
मैं मुसाफ़िर, मँझधार में…
मेरे उड़ान को भरते चल…
क़िस्मत का खेल ना बन,
कर्म का भाग्य बन।।
मैं उदय हो जाऊँ सूरज सा,
ऐसा उत्साह भरता चल…
तूँ परछाईं बनाता चले,
मै संग रास्ते चलता चलूँ।।
गुरु हैं सफ़लता का मंत्र,
थामे उसका हाथ चल।।
मेरे ज़ुनून की आग को,
पाक नज़रो ने तराशा हैं..
मैं हीरा तेरे कक्ष का,
मंज़िल का साथी बन।।
क़िस्मत की आँखे दिए,
हवाओं को सन्न करता चल…
गड़गड़ाहटों के दोर का,
मेरा हिस्सा बनता चल…
क़लम तूने सिखाई हैं,
हवाओं में रूत आइ हैं..
छेड़खानिया मेरे सपनो से,
शैतानिया बढ़ाई हैं।।
तूँ संग मेरे जलता गया,
मैं लोहे जेसे पिघलता गया।।
मैं हथियार, तेरी धार का..
तेरा नाम जहांन में करता गया…
तेरा नाम जहान में करता गया।।
गुरू इत्र महकाता हैं,
सपनो को अपने सजाता है..
पतवार लिए नोका अपनी,
गुरू शिष्य को चमकाता हैं।
गुरू शिष्य को महकाता हैं।
की गुरू शिष्य को चमकाता हैं।।
परिचय :- अंजली सांकृत्या
निवासी : जयपुर राजस्थान
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