अनुराधा बक्शी “अनु”
दुर्ग, छत्तीसगढ़
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उस नन्ही किलकारी से सारे घर का वातावरण संगीतमय में हो गया। उसके हाथ पैर की थिरकन, चेहरे की भाव-भंगिमा का आकर्षण किसी को भी उससे दूर ना जाने देता। पंडित जी ने यह कहते हुए उसका नाम लीना रखा-
” कि उससे उसके गृह नक्षत्र बता रहे हैं कि जो इससे मिलेगा इसमें लीन हो जाएगा।”
बड़े होते हो हुए उसके नाम की खूबी बखूबी उसके स्वभाव में झलक रही थी। अपने मुस्कुराहट की डोर में सभी को समेटे लीना ने सभी के अच्छे गुणों को अपने में समाहित कर रखा था। हर विद्या में पारंगत, स्वभाव से नम्र, कुशाग्र बुद्धि लीना मेरे दिखाए रास्ते का अनुसरण कर आज सफल ड्रेस डिजाइनर बन चुकी थी। उसके स्वभाव, पेंटिंग और रंगोली की ही तरह उसके ड्रेस की डिजाइन भी अनूठी होती ।
आज उसकी शादी का रिश्ता आने पर उसके युवा होने का पता चला। मैं हैरान सोच रहा था अभी तो मैंने उसे जी भर कर देखा भी नहीं, मन भर लाड लड़ाया ही नहीं। कई दिन आंखें आंखों में जागती रही। नींद सुदूर हो गई थी।
आज लेना कुछ शर्माती, थोड़ा उत्साहित और ढेर सपने आंखों में लिए पहले सभी के लिए अंत में अपने लिए खरीदारी कर रही थी। उसके चेहरे की कांति उसके स्वभाव को दिखा रही थी। वह सभी मे खोई हुई थी और मैं अश्रुपूरित नजरों से निहार रहा था।
आज घर में शहनाई की गूंज हो रही थी। पकवानों की महक, मेहमानों की उपस्थिति ने घर की रौनक में चार चांद लगा दिए थे। मैंने कांपते हाथों से उसके दोनों हथेलियों पर हल्दी लगाकर, आटे का पिंड बनाकर, गंगाजल से भीगे हाथों से सपत्नीक उसका कन्यादान कर दामाद के हाथों सौंप दिया था। इस पीड़ा को कहना और सहना मेरे लिए असंभव था। सोचता रहा-
” क्या बेटियां कोई वस्तु है? उनका दान क्यों? वह मेरा अंश है।”
परंतु मैं सामाजिक परंपरा के आगे नतमस्तक था। सीने के क्रंदन ने साफ-साफ अपने शरीर के किसी अंग के कटने का दर्द व्यक्त किया था। ध्रुव तारे के निकलने के साथ सभी की आंखों में लालिमा थी और वह विदाई लेते हुए सभी को सांत्वना दे रही थी-
“आप लोग क्यों रो रहे हैं? मैं कहीं नहीं जा रही हूं। मैं जल्द ही वापस आऊंगी। आप लोग एक दूसरे का ध्यान रखिए। “इस बात से बिल्कुल अंजान कि कन्यादान के पश्चात यदि बेटी पड़ोस में भी ब्याह कर जाए तो परबस पराई हो जाती है।
आज उसकी विदाई को एक बरस हो चुका था। आज वह फिर मिल कर वापस जा रही थी। पर आज उसके पैर धीमी धीमी गति से आगे बढ़ रहे थे, कभी-कभी रुक भी जाते और नजरें मेरे तरफ गडी हुई थी। पुराना दर्द लिए मैं उसे जाते देख रहा था। वह कर्तव्य मूड आगे बढ़ते हुए कुछ ही देर में आंखों से ओझल हो गई। उसके चेहरे के भावों ने अंदर तक तोड़ दिया था। “सचमुच बेटियां पवित्र ग्रंथ की ऋचाएं होती हैं। अनंत ब्रह्मांड को अपने अंदर समेटे। सारी सृष्टि इनकी एक एक भाव में समाहित और यह संसार को समर्पित।
परिचय :- अनुराधा बक्शी “अनु”
निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़
सम्प्रति : अभिभाषक
घोषणा पत्र : मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है।
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