विरेन्द्र कुमार यादव
गौरा बस्ती (उत्तर-प्रदेश)
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बेजुबान कढ़ाके ठंढी की कहानी,
कई हजारों साल की है ये पुरानी।
ठंढी के दिन की शुरुआत जब होये,
सभी ढूढे अपने गर्म कपड़े जो खोये।
किसान गेहूँ का बीज,खाद सब जोहे,
कड़ाके की ठंढ़ में खेत में गेहूँ बोये।
नंगे पाँव वह खेत में गेहूँ सिचने जाये,
उसे ठंढ़ की चिंता बिल्कुल न सताये।
ठंढ जनवरी में इतनी ज्याद बढ़ जाये,
सूरज ठंढ में बर्फ का गोला बन जाये।
पानी सब लोग पिये गरमाय-गरमाय,
ठंढ में खीर-पूड़ी,पकवान सब खाय।
गरम समोसा पैक करके घर ले आय,
कई गरम जिलेबी दुकान पर ले खाय।
कोई स्वैटर व जाकिट पहिन ठिथुराय,
कोई उलेन का पैंट-शर्त रहा बनवाय।
फिर भी सबको ठंढ रहा बहुत सताय,
गर्मकर रहा हाथ कोई लकड़ी जलाय।
फिर भी ठंढ नहीं रही किसी की जाय,
पीये काफी कोई पीये चाय पर चाय।
फिर भी ठंढ रहा सबको बहुत सताय,
फिर भी ठंढ रहा सबको बहुत सताय।
निवासी : गौरा बस्ती (उत्तर-प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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