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बंधमुक्त

सुरेखा सिसौदिया
इंदौर (मध्य प्रदेश)
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(१४ सितम्बर २०२१ को हिंदी दिवस पर राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता (विषय मुक्त) में द्वितीय स्थान प्राप्त लघुकथा।)

शब्द संख्या- ४६९

बगीचे में पौधों को पानी देते मिश्राजी के मन मस्तिष्क में अपनी बेटी का मुरझाया चेहरा घूम रहा था। तीन दिनों से घर में तनाव था। तनाव का कारण था बेटी पलक का राज्य स्तरीय बेडमिंटन स्पर्धा में जाने को इच्छुक होना परंतु मिश्राजी के अनुसार खेल से अधिक महत्वपूर्ण थी पढाई व गृहकार्य दक्षता। उचित उम्र में कैरियर बनना व गृह कार्य, दोनों का अपना अपना महत्व है।
मिश्राजी रूढ़ीवादी तो न थे पर वर्तमान परिपेक्ष्य में अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर अत्यंत चिंतित थे। उन्हें अपनी बेटी पर तो पूरा विश्वास था परंतु समाचार पत्रों में छपने वाली आये दिन की ख़बरों के कारण हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। वे बेटी पलक को इससे अवगत भी करा चुके थे।
बेटी पलक ने भरी आँखो से कहा, “पापा मैंने बहुत परिश्रम किया है इस चयन के लिए।”
“ऐसे असमाजिक तत्वों के कारण क्या लडकियों की प्रतिभा घरों में बंद हो जायेगी। “पत्नि सीमा ने समझाने का प्रयास किया।
यह कहकर, पलक की माँ और दादी ने भी समझाया था मिश्राजी को, कि पलक सुरक्षा के सारे उपायों का ध्यान रखेगी परंतु पिता का मन था कि मान ही नही रहा था।
विचारों की उथल पुथल और गमलों की मिट्टी की गुडाई साथ-साथ चल रहे थे। वे बड़े जतन से नीचे की उपजाऊ मिट्टी को ऊपर कर रहे थे ताकि पौधा पोषण पा सके। उसी के साथ नई और पुरानी सोच एकदूसरे पर हावी होने का प्रयास कर रही थी।
अचानक उनकी नज़र तुलसी के पौधे पर पड़ी। दो दिन पहले फ़ैली फ़ैली, हरी भरी तुलसी मुरझाई और सूखी सी लगी। उसके फैलाव को कस कर बाँधा भी गया था।
उन्होंने तुरंत पत्नी को आवाज़ लगाई, “सीमा यह क्या तुलसाजी को इस तरह बाँधा क्यों है, ये ऐसे मुरझा क्यों गई है?
“बहुत फैल रही थी यह, आते-जाते टकरा भी जाती थी, इसलिए इसे क्यारी की हदों में बांध दिया है।” सीमा ने सहजता से कहा।
“अरे सीमा तुम भी ! देखो बांधने से कैसे मुरझा गई है तुलसा जी और अब तो इनपर धूप भी नहीं पड़ रही बराबर।” कहते हुए मिश्रा जी ने आगे जोड़ा
“धूप के बगैर कोई पौधा पनपता है भला। “सही कहा आपने, मैं अभी खोल देती हुँ ये बंधन”। कहते हुए सीमा ने
अर्थपूर्ण मुस्कान के साथ मिश्राजी को देखा। मिश्राजी भी धीरे से मुस्करा कर पत्नी की मदद से तुलसा जी को सवारने लगे।
संतुष्ट हो उन्होंने पलक को आवाज़ लगाई, “पलक! एक गिलास पानी पिलाना बेटा।” जी पापा, उदास पलक पानी का ग्लास लिए अनमनी सी खड़ी थी।
“पलक ! बेटा कहाँ है तुम्हारा प्रतियोगिता में भाग लेने का पत्र? लाओ साईन करना है ना? और हाँ बाज़ार से क्या क्या लाना है, तैयारी के लिए लिस्ट बना लो।”
खुशी से पलक के आँसू निकल आए। तुलसी और पलक दोनों बंधनमुक्त हो खिल उठे।

परिचय :सुरेखा सिसौदिया
निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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