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वनवासी

मंजिरी पुणताम्बेकर
बडौदा (गुजरात)

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                                   भारत देश संस्कृति, विभिन्न धर्मों, जनजातियों और भाषाओ का सम्मिश्रण है। इस देश के लोग शहरों में, गावों में और जंगलों में रहना पसंद करतें हैं। हम शहरों में रहने वालों को शहरी, गाँव में रहने वालों को ग्रामीण और जंगलों में रहने वालों को हम आदिवासी कहते हैं। यदि आदिवासी इस शब्द का सन्धि विच्छेद किया जाय तो आदि(म)+वासी =मूल निवासी।
आखिर ये आदिवासी क्या होते हैं? क्या खाते हैं? ये समाज से कटे हुए क्यों होते हैं? इनमें क्या अदभुत और विलक्षण होता है? इन्हें लोग अजूबे की तरह क्यों देखते हैं? इनकी वेशभूषा, खानपान क्यों आम आदमियों की तरह नहीं होती? ये क्यों समाज से दूर भागते हैं? ऐसे अनगिनत प्रश्न मन में उठते हैं।
सुना है कि ये वनवासी प्रकृति पूजक होते हैं क्यूकि प्रकृति ही इन्हें अन्न, परिधान, आवास और औषधि प्रदान करती है। ये अंधविश्वास में बहुत विश्वास रखते हैं। ये पूजापाठ में बकरे या मुर्गे की बलि देते हैं। ये अपने कबीले में किसी आगंतुक को पसंद नहीं करते।यही कारण है कि इनमें शादियाँ भी कबीले के कबीले में ही होतीं हैं। ये जनजाति ऐसी जगहों पर रहतीं हैं जहाँ कोई सूचना पहुँचाना तो दूर वहाँ पहुंचना भी करीब करीब नामुमकिन सा होता है। ये अमूक होते हैं।
इनकी परम्पराएं, इनकी संस्कृति, इनकी कला अभिवक्ति, इनका पारस्परिक रिश्ता, इनकी वेशभूषा हमें कई वर्ष पुराने इतिहास से इंगित कराती है।
आज जब उद्योगों के विकास के लिये खनिज खोदे जा रहे थे, जंगल काटे जा रहे थे, सड़कों के चौड़ीकरण के लिये पठारों और चट्टानों को काटा जा रहा था इस वजह से इनको अपना आशियाना छोड़ गावों के पास अपना आशियाना बनाना पड़ा। इनमें से कुछ हिजरती भी थे।
आज मैं कुछ ऐसे ही हिजरती आदिवासियों के साथ रहने का अनुभव साझा कर रही हूँ जो मरुस्थल से इंटर नेशनल फेस्टिवल तक पहुंचे और राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित हुए।
मैं भुज जो कच्छ जिले में आता है, वहाँ गई थी। मैं वहाँ कच्छ का रण देखने जा रही थी। रास्ते मे मुझे एक जगह आठ से दस अंडाकार झोपड़ियाँ दिखाई दीं। थोड़ी आगे जाकर फिर आठ से दस झोपड़ियाँ दिखाई दीं। मेरी उन्हें देखने की जिज्ञासा हुई। मेरी गाडी उन झोपड़ियों के पास रुकी। मैंने देखा झोपडी के बाहर का स्थान साफ सुथरा था। वहाँ एक खाट बिछी थी और उस पर पैच वर्क की चादर जो हमको सिर्फ हेंडी क्राफ्ट के शो रूम में दुर्लभ ही देखने को मिलती है वो बिछी थी। मैंने गाड़ी से उतरकर देखा कि सारी झोपड़ियाँ प्राकृतिक रंगों से अलग अलग चित्रकरियो से सजी हुई थीं। झोपड़ियों के दरवाजो पर मिरर आर्ट की एक दीवार थी जो उस झोपडी जिसे भुंगा कहते है की सुंदरता में चार चाँद लगा रही थी। गाडी का आवाज सुनते ही एक व्यस्क महिला जिसके चेहरे की झुर्रियाँ वक़्त के थपेड़े दर्शा रहीं थीं बाहर आईं। उन्होंने बहुत ही सुन्दर कांच की कलाकारी का रंग बिरंगा परिधान पहना था और वो कम से कम एक किलो चांदी के आभूषणों से सिर से लेकर पाँव तक सजी हुई थीं। मैंने उस महिला से इस रेगिस्तान में रहने का राज पूछा तो उन्होंने अपने दिल को मेरे सामने किताब की तरह खोल कर रख दिया। उन्होंने बताया कि वो सिंध प्रान्त के हिजरती आदिवासी हैं। मवेशियों की घास और पानी की तलाश में कच्छ के रण में आये। आगे आने पर उन्हें “बन्नी “जो एशिया का सबसे बड़ा घांस मैदान दिखा और फिर वहीं के हो गए।
मवेशियों की तो खाने पीने की मौज हो गई पर हमको अपनी आजीविका चलाने के लिये बहोत हाड़तोड़ संघर्ष करना पड़ा l रेगिस्तान में पीने का पानी लाने के लिये कोसों मील दूर जाना पड़ता था l खेती के लिये ज़मीन भी नहीं l गाँव वहाँ से काफ़ी दूर थे और उन गावों को जोड़ने वाले रास्ते भी पक्के नहीं थे l इनके पास था तो इनके मवेशियों का दूध और इनकी कपड़ों की कारीगिरी का हुनर l रेगिस्तान में पथदर्शक दिन में सूरज और रात में चाँद और तारे l इनके कबीलों के पुरुष रेगिस्तान से इतने वाकिफ थे कि वहाँ के बी. एस. एफ के लोग इन्हें अपने साथ रखते क्यूकि ये लोग उन जवानों को ऊँट के पैरों के निशान देखकर बता देते थे कि ऊँट पर कितने व्यक्ति सवार थे, कितने पुरुष, कितनी स्त्रियाँ, कितने बच्चे और कितना भार l
जब ये दूध बेचने जाते तो पंसारी की भार्या इनसे इनके पहनावे पर की गई कारीगिरी का दूसरा नमूना खरीदने की बात करती पर दूसरा पहनावा बनाने में उन्हें नब्बे दिन लगते थे l एक बार कच्छ संगठन के लोगों की नजर में इनकी कारीगिरी आई l उन लोगों ने इन्हें अलग अलग रंगों के प्लेन कपड़े, अलग अलग नंबर वाली सुइयाँ, रंग बिरंगी धागों की गिट्टियाँ, छोटे छोटे काँच मुहैया कराये और पचास लिबास बनाने को कहा l फिर क्या था सारे कबीलों की स्रियाँ इकट्ठी हुईं और सबने जैसे -उल्टे बखियों की, साटन स्टिच की, चेन स्टिच की, बटन होल की और काँच की सजावट की कारीगिरी से अनोखे डिजाइन बनाये उसके बदले में उन्हें अच्छे पैसे मिले l धीरे धीरे उन्होंने उनके इस हुनर को उनका उद्योग बनाया l और उन संस्थाओं ने उनके इस हुनर को देश के राज्यों में पहुंचाया और विदेश में इंटर नेशनल फेस्टिवल में भी इनकी कारीगिरी को पहचान दी l
मेरा यह मानना है कि हर वनवासी, हर आदिवासी कबीले की अपनी कला है, अपनी पहचान है l यदि इन्हें सही मार्ग दिखाने वाला मिले तो ये भी अपने हुनर को सारे संसार के सामने रखकर सिद्ध कर सकतें हैं कि “जंगल में रहने वाला हर कोई जानवर नहीं होता और परिस्थिति बदलने में समय नहीं लगता।

परिचय :- मंजिरी पुणताम्बेकर
निवासी : बडौदा (गुजरात)
घोषणा पत्र : मेरे द्वारा यह प्रमाणित किया जाता है कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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