डॉ. पंकजवासिनी
पटना (बिहार)
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बड़ा अभिमान होता है मुझे कि मैं मानवता के पैरोकार, ४८ पुस्तकों के रचनाकार प्रोफेसर श्यामनंदन शास्त्री जी की बेटी हूंँ! जिन्होंने आज से आधी सदी पूर्व ईश्वर से विकल प्रार्थना में मुझे मांँगा और मेरे जन्मोत्सव में विवाह जैसा भव्य आयोजन कर रिश्तेदारों में १०,००० के कपड़े मारे खुशी के बाँट दिए……. ये सब उस देश, प्रदेश और समाज में जहांँ बेटियों के जन्म की खबर पाकर मांँ-बाप और रिश्तेदारों की छाती सूख जाती है! चेहरे पर मुर्दनी छा जाती है!! तथा मन और घर में मातम पसर जाता है!!!…. जहांँ आज के इस इकीसवीं सदी में भी कन्या भ्रुण-हत्या जैसा क्रूर, घिनौना और अमानवीय कृत्य बेखटके चलन में है!!
फिर बड़े नेह से, छोह से, जतन से पाला मुझे…. रेशा-रेशा गढ़ा मुझे … भाइयों से जायदा दुलारा मुझे… पढ़ाया मुझे… डबल एम.ए., पीएच. डी. नेट. स्लेट कराया मुझे…. (परिवार में सबसे अधिक उच्च शिक्षा दिलाई बेटों से भी अधिक) कभी रोका नहीं… कभी बांँधा नहीं वर्जनाओं में, निषेधों में, कुरीतियों में! – – – – बस स्वतंत्रता दी… उड़ने को उन्मुक्त आकाश दिया… गहन विश्वास दिया…. पापा! आप के जनतांत्रिक, प्रगतिशील, क्रांतिकारी अति मानवीय, स्नेह वत्सल, समदर्शी व्यक्तित्व के कारण ही मेरे अंदर इतना आत्मिक साहस पैदा हुआ था कि मैं आपसे कह सकी कि मुझे एक ऐसे लड़के को अपना जीवन साथी बनाना है पापा जो मुझसे नहीं आपसे आकर कह सके कि मैं आपकी बिटिया को अपनी जीवन संगिनी बनाना चाहता हूंँ! जो आत्मनिर्भर तो हो पर धनी घराने का न हो! और परिवार में कईयों के विरोध के बावजूद आपने मेरी यह ख्वाहिश पूरी की थी! मैं बड़भागी हूंँ कि आपकी बेटी हूंँ!!
हिंदी संस्कृत मगही के प्रकांड विद्वान, विद्यार्थी जीवन में ही ख्यातिलब्ध कवि, लेखक, कहानीकार लघुकथाकार होने के साथ-साथ हिंदी के औघड़ विद्वान साहित्यकार आचार्य नलिनविलोचन शर्मा द्वारा “बाल पंडित” की उपाधि से विभूषित, पटना विश्वविद्यालय के टॉपर (एम. ए.) एवं रिकॉर्डब्रेकर समाज में कई संस्थाओं के उच्च पदाधिकारी होने के बावजूद आपका अत्यंत विनम्र और निरहंकारी व्यक्तित्व मुझमें सदा आत्मिक उजास भरता रहा! महज सातवीं पास मांँ को आपने अपनी जीवन-संगिनी बनाया था और स्नेह सम्मान तथा स्वतंत्रता तो उन्हें इतनी दी थी कि कभी जीवन में आप ने उन्हें “तुम” नहीं कहा!
एक स्त्री का अस्तित्व ही नहीं, व्यक्तित्व भी इतना सुरक्षित था आपके संसर्ग में कि आप जीवन भर आर्यसमाजी मूल्यों-आदर्शों वो से बंँधे रहे और मांँ सनातनी संस्कारों को जीती रहीं…! मांँ की भावनाओं के सम्मान के लिए हर वर्ष दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश पूजन उनके बताए निर्देशों के अनुसार परम आज्ञाकारी की तरह आप करते रहे! उससे इतर मैंने जीवन में कभी एक अगरबत्ती जलाते भी नहीं देखा आपको! और हाँ, जब माँ छठ पूजा करतीं तो उन्हें छठी माई का दिव्य प्रतीक समझकर आप खरना के दिन उनके पैर छूकर आशीर्वाद अवश्य लेते!!आपका मानना था कि गलती आपकी हो या न हो यदि क्षमा मांँगकर आप किसी रिश्ते को बचा सकते हैं तो अनिवार्यत बचा लें। एक बार मांँ किसी बात पर आपसे बेहद नाराज थीं और घर का माहौल सहमा हुआ… इतने में आप आए और आंँख बंद किए लेटी हुई मांँ के चरण छूकर कहने लगे माफ कर दीजिए…! माफ कर दीजिए….!! सुकोमल सौम्य मुखवाली मांँ का तनावपूर्ण चेहरा हठात् सलज्ज हो आया और वो हड़बड़ाकर उठ बैठीं तब समझ में आया कि रौद्र रूपा मांँ काली का भीषण क्रोध भाव चरणों के नीचे नीलकंठ शिव को पाते ही कैसे लज्जा भाव में परिणत हो गया होगा!!… और मैं आज भी सोचती हूंँ कि एक विद्वान और एक व्यक्ति का तो फिर भी समझ में आता है, पर एक पुरुष… एक पति इतना अहंकार शून्य कैसे हो सकता है!?!
मांँ के प्रति आपका प्रेम-अनुराग अप्रतिम था! आप हमेशा कहा करते थे कि कैसे पति-पत्नी आपस में कई-कई दिन और माह बात नहीं करते हैं! मैं तो तुम्हारी मांँ से बात किये बिना एक भी दिन नहीं रह सकता…. उनके बिना तो मैं जी ही नहीं पाऊंँगा!! और आपने अपनी बात सिद्ध कर दी!!! आप हमेशा हम बच्चों को कहा करते थे कि तुम लोग यदि अपनी मांँ का सम्मान करते हो, उनका ख्याल रखते हो तो समझ लो मेरा सम्मान कर लिया… मेरा खयाल रख लिया…! दाम्पत्य-जीवन में रहते ऐसा प्रेम दुर्लभ है!! वंदनीय है!!!
परिचय : डॉ. पंकजवासिनी
सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय
निवासी : पटना (बिहार)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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