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फ़र्ज़

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रचयिता : श्रीमती पिंकी तिवारी

करीब बारह वर्ष की थी गुड़िया।  दादाजी के सभी पोते और पोतियों में सबसे लाड़ली थी वो।
“चलो गुड़िया, आज “बड़े-घर” जाना है हमको, बड़ी दादी के पास। उनकी तबियत ठीक नहीं है। “ऐसा कहते हुए दादाजी ने गुड़िया को लाल कपडे में लिपटी हुई एक किताब थमा दी और कहा “इसका एक पाठ बड़ी दादी को पढ़ कर सुनाना है तुम्हें, अब चलो।”
“बड़े-घर” में एक चारपाई पर बड़ी दादी लेटी हुई थीं। गाँव के डाक्साब (डॉक्टर) भी बैठे थे। पूरा परिवार बड़ी दादी के पास इकठ्ठा हो चुका था। दादाजी के इशारा करते ही गुड़िया ने किताब खोली और दादाजी के कहे अनुसार उसका अट्ठारहवाँ पाठ पढ़ना शुरू कर दिया। पाठ पूरा होते ही बड़ी दादी ने अपना कंपकपाता हाथ गुड़िया के सिर पर फेरा और आशीर्वचन देते हुए चिर-निद्रा में सो गयी।
ये वृतांत गुड़िया के कोमल मन पर गहराई से अंकित हो चुका था। कई वर्ष बीत गए। अब गुड़िया दादाजी से बहुत दूर हो गई थी। डॉक्टर बन चुकी थीं और परिवार भी बस चुका था।
अचानक एक दिन गुड़िया दादाजी से मिलने गई। दादाजी बिस्तर पर लेटे थे। अचानक अपने जिगर के टुकड़े को सामने देखकर दादाजी की आँखें गीली हो गई। बहुत कुछ कहना चाहते थे गुड़िया से, पर आवाज़ साथ छोड़ चुकी थी।  गुड़िया दादाजी के सिरहाने जाकर बैठ गई।  “आपकी किताबें कहाँ गई बाउजी ? ” दादाजी की खाली अलमारी देख कर अचानक गुड़िया के मुँह से निकल गया।  तभी चाची बोलीं “कोई पढता तो है नहीं, कल ही सब रद्दी में दे दी।”
तभी दादाजी ने कुछ कहना चाहा पर आवाज़ ने फिर साथ नहीं दिया, लेकिन गुड़िया समझ चुकी थी। उसको अपना एक आखिरी फ़र्ज़ निभाना था। आज वो किताब अपने साथ लेकर आयी थी। उसने उसी तरह अट्ठारहवा अध्याय पढ़ कर दादाजी को सुनाया। दादाजी के चेहरे पर गहन संतुष्टि के भाव प्रतिलक्षित हो रहे थे और गुड़िया को भी अपने प्रश्नों के उत्तर मिल चुके थे। गुड़िया अपना आखिरी फ़र्ज़ निभा चुकी थी।
लेखिका परिचय – श्रीमती पिंकी तिवारी
शिक्षा :- एम् ए (अंग्रेजी साहित्य), मेडिकल ट्रांसक्रिप्शन एडिटर
सदस्य :- इंदौर लेखिका संघ
मौलिक रचनाकार

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