अनुराधा बक्शी “अनु”
दुर्ग, छत्तीसगढ़
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“पिछले कई सालों से जिम्मेदारियां निभाने जी तोड़ मेहनत करता रहा। अकेलेपन से कई बार टूटा पर परिवार के लिए हर दर्द सजाता रहा। कभी फर्ज कभी पितृत्व समझ कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता रहा। पर पिछले कुछ सालों से विचारों की जमीन पर दर्द और अकेलेपन के जो बीज बोए उसकी फसल पकती, झड़ती और लहलहाती। ना कोई काटने वाला ना बांटने वाला। मन में उठती पीरें कभी आंखो तक आ जाती तो वापस अंदर ससका लेता। लॉकडाउन पिछले कुछ समय से था पर मेरी जिंदगी में खुशियों का लॉक डाउन उम्र दर उम्र साथ चल रहा था। “अपने ही ख्यालों में खोया मैं मास्टर ऑफ आर्ट ५९ साल की उम्र में कोरॉना में कंपनी द्वारा की गई छटनी में अपनी नौकरी गवांकर सिक्योरिटी गार्ड इंटरव्यू के लिए तेज कदमों से पैदल भागा जा रहा था। आज अंदर का तूफान आंखों से होते हुए गालों पर और सीने तक पहुंच गया था। कई बार परदेश की नौकरी छोड़ कर अपने गांव जाना चाहा पर गांव में नौकरी कहां। बिजनेस करता तो पैसे के प्रश्न को लेकर फिर से शहर आना पड़ा। बस एक साल और करते-करते परदेस में जवानी से बुढ़ापा आ गया। हर महीने अपने किराए, खाने के अलावा कभी हजार कभी पांच सौ अपने पास रखता और पूरा पैसा घर के खाते में डाल देता। अपनी शारीरिक तकलीफों को यह सोचकर तवज्जो नहीं देता दी कि यह पैसा बच्चों की ट्यूशन, बर्थडे, मोबाइल, त्यौहार तो कभी रिश्तेदारी से संबंधित जरूरतों को पूरा करेंगे। साल में एक दो बार घर जाता। दूर रहने से बच्चों पर मेरा अंकुश भी उतना नहीं रहा। जब कभी घर जाता दुखी होकर ही वापस आता। परिवार के अपनत्व के लिए तरसते हुए एक बार ना जाने की जिद पर अड़ गया तो पत्नी ने अपने भाइयों से समझा-बुझाकर मुझे फिर शहर भेज दिया। दर्द के साथ अकेला छोड़ने वाली खामोश आवाजें उस दिन बोल रहीं थीं। परिवार से हजारों किलो मीटर दूूूर मैं कमाने की मशीन बनकर रह गया। किसी महिने पेमेंट लेट हो जाती तो मैं निरपराधी अपराधी घोषित हो जाता। कभी सोचता झूठ मूठ ही खैरियत पूछ लेते। अपने मन से फोन कर लेते। अक्सर सोचता शायद यही जिंदगी है। मेरी सोच खत्म होने से पहले सिक्योरिटी गार्ड के इंटरव्यू का ऑफिस आ गया। वहां इतनी भीड़ देखकर मैंने सोचा उसका “हर कलाकार एक ही किरदार में है शहर में, कौन कहता है हम महफूज है शहर में” और मैं व्यंगात्मक हंसी हंस दिया।
सभी अपनी व्यथा कह रहे थे। परिवार के साथ रहते हुए भी परिवार से उपेक्षित लोग मुझे बड़ा नसीबवाला बतला रहे थे। उनकी अपनों से मिली उपेक्षा भरी कहानियों ने जैसे मेरी सोच को मेरी ही तरफ मोड़ दिया। “ना वह वक्त रहा ना यह वक्त रहेगा और इस वक्त में मैं हूं। मैं हूं तो सब कुछ है नहीं तो कुछ नहीं। “सकारात्मक विचारों ने दर्द की फसल को पलक झपकते ही नष्ट कर दिया। विचारों की उपजाऊ जमीन पर बेला महक रही थी। सोच की दिशा मुड़ते ही खयालों की नई उपजाऊ जमीन पर सकारात्मकता के बीज से खुशी की फसल लहलहा उठी।
परिचय :- अनुराधा बक्शी “अनु”
निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़
सम्प्रति : अभिभाषक
मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है।
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