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पिता का होना

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रचयिता : विवेक सावरीकर मृदुल

हो सकता है कि किसी एक दिन
याद करने से ज्यादा मिलता हो पुण्य
अधिक मिलती हो लोकप्रियता
बढ़ जाती हो बहुत फैन फॉलोइंग
मगर पिता!
 तुमको याद करने को
तुम गये कब मेरे वजूद से
याद है!
 जब जामुनी बाटीक की चादर
ओढ़कर सो गये थे तुम जमीन पर
अनायास
कितने आए,कितने रोये,कितने मनाये
न हुए टस से मस ऐसे हठी
.
 देह तुम्हारी अग्निलोक में
और तुम विदेह इसी लोक मे
तबसे लगातार रहते हो मेरे संग
उठते,बैठते,सोते जागते
रोते गाते और लड़ते हुए सदैव इक जंग
 तुम मिलते रहते हो
और मेरे अंदर सूखते साहस को
दुगुना भरते रहते हो
.
अब नहीं देनी पड़ती तुमको दवाईयां
न जाना पड़ता है लेकर डॉक्टर के पास
न क्रिकेट का जोश भरा कोलाहल
घर में मचाता है हलचल
न कोई हमें टोकता और समझाता है पल पल
.
फर्क इतना सा हुआ है कि इन दिनों
तुम जब निहारते हो तस्वीर में से
 हम नहीं कह पाते अब खीजकर
थोड़ा तो लेने दिया करो न दम
देखते नहीं, कितने व्यस्त  हैं हम
 बताओ न पिता!
हम किस पर खीजें और चिल्लाएं
और तमतमा चुकने के बाद
किसके सिरहाने दुबककर सो जाएं

.

लेखक परिचय :-  विवेक सावरीकर मृदुल
जन्म :१९६५ (कानपुर)
शिक्षा : एम.कॉम, एम.सी.जे.रूसी भाषा में एडवांस डिप्लोमा
हिंदी काव्यसंग्रह : सृजनपथ २०१४ में प्रकाशित, मराठी काव्य संग्रह लयवलये,
उपलब्धियां : वरिष्ठ मराठी कवि के रूप में दुबई में आयोजित मराठी साहित्य सम्मेलन में मध्यप्रदेश का प्रतिनिधित्व, वरिष्ठ कला समीक्षक, रंगकर्मी, टीवी प्रस्तोता, अभिनेता के रूप में सतत कार्य, हिंदी और मराठी दोनों भाषाओं में समान रूप से लेखन।
संप्रति : माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक कुलसचिव।

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