डॉ. ओम प्रकाश चौधरी
वाराणसी, काशी
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दुनियां में सबसे ज्यादा कीमत तीन चीजों की है- जमीन, कच्चे तेल और हथियारों की। इनमें से एक चीज किसान के पास है फ़िर भी किसान आत्महत्या की दर १०,००० प्रतिवर्ष से अधिक है। एक दुकानदार, व्यापारी या व्यवसायी के पास अगर ५० लाख का माल दुकान में भरा है तो वो महीने का ५० हज़ार तो कम से कम कमा ही लेता है। जबकि भारत में ७-१० बीघा जमीन की कीमत भी इस से ज्यादा होती है और उतनी जमीन में ५० हज़ार महीना मतलब ६ लाख सालाना की बचत नहीं होती। बचत छोड़ो ४-५ बीघा वाले किसान को छोटा किसान समझा जाता है। ४-५ बीघा खेत वाला किसान अपने बच्चे को किसी अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ा सकता, बीमार हो जाने पर अच्छा इलाज नहीं करवा सकता है, और न ही अच्छे कपड़े आदि खरीद सकता है। उसका खर्च मुश्किल से चलता है। वह देश की अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर होता है, जबकि अभी कोरोना काल में जब सभी अपने-अपने घरों में दुबके (चिकित्सकों, पैरा मेडिकल स्टाफ,पुलिस बलों के अतिरिक्त)पड़े थे तब भी देश का अन्नदाता खेतों में अपने पसीने बहा रहा था ताकि सभी का पेट भर सके, अन्न उत्पादन में भारत आत्म निर्भर हो सके। किसान के परिवार का हर सदस्य उसी में लगा रहता है।
कारण
एक तो किसानी (फार्मिंग) की रनिंग कॉस्ट ज्यादा है। बुवाई, जुताई, सिंचाई, कटाई इत्यादि मशीन से होती है जिसमें ईंधन के रूप में तेल की जरूरत होती है जिसका रेट सरकार तय करती है। बीज, खाद, कीट नाशक आदि सभी बाज़ार से खरीदना पड़ता है, सहकारी समितियों से उधार पर मिल भी जाता था, लेकिन उत्तर प्रदेश का सहकारी आंदोलन दम तोड़ने के कगार पर खड़ा है। जहाँ सिंचाई बिजली से होती है वहां बिजली की दर भी सरकार तय करेंगी। सारी लागत एक तरह से सरकार तय करती है लेकिन ज़ब उसकी फसल तैयार होती है तब किसी व्यापारी की तरह लागत का २०-३०% मुनाफा देने की बजाय सरकार एक न्यूनतम समर्थंन मूल्य(MSP) तय कर देती है जो अक्सर लागत से भी कम होता है। व्यापारी वर्ग के उत्पादों का अधिकतम खुदरा मूल्य तय होता है और वो भी फैक्ट्री मालिक स्वयं तय करता है जबकि किसान की फसल का “मिनिमम समर्थन मूल्य” तय किया जाता है और वह भी सरकार व उसके नुमाइंदे एसी कमरों में बैठकर तय करते हैं। पुरानी कहावत है कि “का जाने पीर पराई, जिसके पांव फटे न बिवाई”। बड़ी-बड़ी फैक्टरियों, गाड़ियों, सबसे ज्यादा तो उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम की बसों द्वारा निकलते प्रदूषण से नहीं, बल्कि किसानों की पराली से ही वातावरण प्रदूषित हो रहा है, बिना उसके निस्तारण की ठोस व्यवस्था किए, मुजरिम की तरह किसानों को पकड़कर बन्द किया हा रहा है। वाराणसी के राजातालाब के एक किसान को सेटेलाइट/ ड्रोन के माध्यम से रात के १ बजे गिरफ्तार किया गया। गो हत्या बंद की गई, अच्छी बात है, किन्तु छुट्टा पशुओं की कोई व्यवस्था नहीं की गई, वे दिन रात किसानों की फसल चर जा रहे हैं, दुर्घटना का कारण बन रहे हैं, जबकि पहले किसान उस बेचकर कुछ धन भी प्राप्त कर लेता था। हम खुद भी छोटी जोत के किसान हैं, लेकिन खाने भर का व थोड़ा बहुत बेचने भर का अनाज, गन्ना, तिलहन, दलहन पैदा कर लेते थे।परन्तु छुट्टा जानवरों व घडरोज के कारण विगत कई वर्षों से दाल व मटर बेचने को कौन कहे, स्वयं खरीद कर खा रहे हैं। धान की फसल घर के दरवाजे पर रखी है, व्यापारी प्रति क्विंटल ९५०-१००० रुपए ही दे रहे हैं वह भी आधार कार्ड, खतौनी, पासबुक की प्रति लेने के पश्चात। हम लगातार स्वयं तथा अन्य के साथ प्रयास कर रहे हैं, लेकिन सरकारी खरीद पर बेच पाना संभव नहीं हो पा रहा है। जिले के आला अधिकारियों से क्रय केंद्र स्थापित किए जाने हेतु एक महीने से प्रयासरत है, लेकिन आश्वासन वह भी कोरा, ही मिलता रहा है। गन्ने को लेकर रात ट्रैक्टर ट्रॉली के नीचे बितानी पड़ रही है। वह भी कभी कभी रुपया मिलता भी नहीं। इन मुसीबतों के बीच किसान आंदोलित हैं, तो उनकी आवाज सुनी जानी चाहिए। अन्नदाता का अपमान व कमजोर कर कोई भी राष्ट्र आत्मनिर्भर नहीं हो सकता है। आज “लाठी मारे जवान, लाठी खाए किसान! जय जवान, जय किसान” का नारा बुलंद करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की आत्मा चीत्कार कर उठी होगी।
जिस देश में व्यापारी वर्ग अपने कच्चे माल, प्रोसेस की लागत और मशीनों के दाम खुद तय कर रहा है, वहीं किसानों को दूसरों पर निर्भर किया गया है। खाद्, बीज, सिंचाई से लेकर बेचने तक के सारे चैनलों पर बड़े-बड़े उद्योगपतियों के घरानों का कब्ज़ा है। कब चावल, दाल, गेंहू एक्सपोर्ट होगा कब रोक लगेगी ये भी सरकार तय करती है जिससे देश में इसके दाम रेगुलेट होते हैं, दूसरी तरफ व्यापारी के उत्पाद पर ऐसी रोक कभी नहीं लगती। एक तरफ भारत सरकार प्रति वर्ष १.२५ लाख करोड़ का कॉरपोरेट डेट (ऋण) प्रतिवर्ष माफ़ कर रही है दूसरी तरफ पूरे भारत के किसानों का कुल ऋण करीब ६ लाख करोड़ है जबकि उससे ज्यादा ऋण सरकार देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों का माफ़ कर चुकी है।
भारत १९४७ में जब आजाद हुआ तब रुइया, बजाज, टाटा और मारवाड़ी घरानों को छोड़ पूरा देश लगभग किसानी पे सीधा या परोक्ष रुप से निर्भर था। आज सरकार की भक्ति में लीन होकर किसानों को गाली देने वाले मीडिया कर्मियों से लेकर सभी भक्तगणो के बाप या दादा या पुरखे किसान ही थे। ये अपना अतीत भूल गए हैं, संस्कृति से भटक गए हैं। किसानों के हित में आवाज उठाइये, आज इसकी जरूरत है।
खेती-किसानी बचेगी, किसान बचेगा, देश आत्मनिर्भर होगा, राष्ट्र का गौरव, मान-सम्मान बढ़ेगा, भारत रत्न अटल बिहारी बाजपेई जी का सपना “जय जवान, जय किसान जय विज्ञान” साकार होगा।
परिचय :- डॉ. ओम प्रकाश चौधरी
निवासी : वाराणसी, काशी
शिक्षा : एम ए; पी एच डी (मनोविज्ञान)
सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग श्री अग्रसेन कन्या स्वायत्तशासी पी जी कॉलेज
लेखन व प्रकाशन : कुछ आलेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित,आकाशवाणी से भी वार्ता प्रसारित।
शोध प्रबंध, भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद दिल्ली के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित। शोध पत्र का समय समय पर प्रकाशन, एवम पुस्तकों में पाठ लेखन सहित ३ पुस्तकें प्रकाशित।
पर्यावरण में विशेषकर वृक्षारोपण में रुचि। गाँधी पीस फाउंडेशन, नेपाल से ‘पर्यावरण योद्धा सम्मान’ प्राप्त।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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