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हर घर एक वृद्ध को गोद ले

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.

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हमारे देश मे १२ करोड से ज्यादा जनसंख्या ६० वर्ष के उपर के वृद्ध लोगो की है। और सन २०२५ तक यह २५ करोड से ज्यादा होने की संभावना है। वरिष्ठ नागरिको की संख्या मे होने वाली वृद्धी को एक चरम संकट की चेतावनी ही समझी जानी चाहिये। २५ करोड़ वरिष्ठ नागरीकों का मतलब दुनिया में चीन और अमेरिका को छोड़ दिया जाय तो यह किसी भी राष्ट्र की जनसंख्या से ज्यादा होगी। पश्चिमी राष्ट्रों में संयुक्त परिवारों का विघटन बहुत पाहिले ही हो चुका है। परन्तु हमारे देश में इसकी शुरवात पिछले ३० -४० वर्षो में हुई और विगत १० वर्षो में इसकी गति बहुत तेज रही है। पश्चिमी राष्ट्रों की तुलना में हमारे यहां संयुक्त परिवारों का विघटन देर से होने के कारण हमारे यहां संयुक्त परिवारों का सुख भोग चुके वृद्ध आज भी उन यादों को संजोये हुए है। वृद्धावस्था में आने वाले संकटों का सामना सभी को करना पड़ता है। परन्तु अपने बच्चो से अधिक मोह और अपेक्षा होने के कारण मध्यमवर्गीय परिवारों में यह संकट अपने भीषण रूप में दिखाई देता है।
भारत में बुजुर्गों के संकट पश्चिम राष्ट्रों के बुजुर्गों से कुछ कुछ अलग तरह के होते है। चूँकि पश्चिम राष्ट्रों की गणना उन्नत राष्ट्रों में होती है अत: वहाँ वृद्धावस्था पेंशन के साथ ही बुजुर्गों के स्वास्थ सम्बन्धी उनकी सभी तरह की देखरेख के लिए उन राष्ट्रों, की सरकार सजग रहती है। पेंशन सहित, बुजुर्गो का चिकित्सा बीमा, सामाजिक कल्याण, और स्वास्थ सम्बन्धी नियम और सुविधाओं की समस्त व्यवस्था सरकारी स्तर पर होती है। इस तरह बुज़ुर्गों के लिए भरपूर सुविधाएं होती है। पश्चिमी राष्ट्रों में बुजुर्गो की मुख्य समस्या शेष बचे जीवन में नितांत अकेलेपन की होती है। इन राष्ट्रों में विगत कई दशकों से संयुक्त परिवारों का विघटन होने के कारण वहाँ के युवा वृद्धावस्था और बुजुर्गो के बारे में तथा वृद्धावस्था की समस्याओं के बारे में अनभिज्ञ ही रहते है। युवाओं का बुजुर्गो के साथ कोई भी भावनात्मक लगाव नहीं होता। वहाँ की तरुणाई का एक ही ध्येय होता है, खाओ-पियो और मौज मजा करो। शुद्ध भोगवाद। खुद के लिए कमाओ, खुद के लिए ही समस्त उपभोग हो-खुद के लिए ही सारी सुख सुविधाएं हो-और खुद के लिए ही जियो। इस आत्मकेंद्रित व्यवस्था और भावना के कारण बुजुर्गों की दुर्दशा तो होनी ही है।
हमारे देश में भी इधर कई वर्षो से हमारी तरुणाई के कारण, भोगवाद और आत्मकेंद्रित समाज और व्यवस्था बहुत तेज गति से विकसित हुई है। हमारे देश में रोजगार के अवसर तीव्रता से बढ़ने के कारण मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग में तेजी से इजाफा हुआ है। नौकरी और व्यवसाय के कारण अपना घर बार छोड़ने की प्रवृत्ती में वृद्धि होती जा रही है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि होने से और खेती की जमीन कम होने से गावों में रोजगार का अभाव है। गावों में रोजगार नहीं होने से शहरों में पलायन की गति तेज हो गयी है और शहरों की आबादी भयंकर रूप से बढ़ रही है। और शहरों में भी रहने की उचित व्यवस्था न होने से संयुक्त परिवारों का विघटन भी तीव्र गति से होता गया।
संयुक्त परिवार सुविधा या असुविधा या यूँ कहे कि आज के परिवेश में संयुक्त परिवार एक वरदान है या अभिशाप है, यह विषय हम न भी ले तो भी वृद्धावस्था तो अटल ही है। वृद्धावस्था यह प्रकृति की एक व्यवस्था है। मृत्यु नहीं तो जन्म नहीं। शरीर यह प्रकृति की अनमोल देन है। अत: शरीर के अंग तो शिथिल होने ही है। शरीर के इन शिथिल होते अंगों के कारण बुजुर्गो की अनेक समस्याएं निर्मित होती है और उनके संकट बढ़ते जाते है। याददाश्त धीरे धीरे कमजोर होती जाती है। और द्रष्टि भी धूमिल होती जाती है। हड्डियां कमजोर होना आम बात है और उस कारण स्वयं होकर चलना फिरना बाधित होता है। इन नैसर्गिक कमियों की सजा बुजुर्गो को देना न्याय संगत नहीं है। यह हमें समझना होगा। समाज को , जीवन के इस अंतिम पड़ाव में बुजुर्गों की ओर एक संवेदनशील द्रष्टिकोण से देखने की जरुरत है। और बुजुर्गो की यह चिंता तरुण पीढ़ी को ही करना चाहिए।
हर पिछली पीढ़ी प्रत्येक अगली पीढ़ी के लिए एक ट्रस्टी का काम करती है। सम्पूर्ण एक नई पीढ़ी का निर्माण कोई आसान काम नहीं होता। अर्थात जन्म से लेकर बच्चों को तरुणाई की दहलीज तक लाने में मातापिता को अपार कष्ट और त्याग करना पड़ता है। बच्चों के स्वस्थ विकास के लिए उन्हें एक परिवार उपलब्ध कराना और उनके रोजगार के लिए उनकी शिक्षा की व्यवस्था करना यह कोई आसान काम नहीं। विचरण के लिए उन्हें एक स्वस्थ समाज देने के बाद ही हम जिसे भावी कर्णधार कहते है उस भविष्य की पीढ़ी का निर्माण हो पाता है। परन्तु आश्चर्य कि हम अक्सर यह भूल जाते है की वर्तमान पीढ़ी की सारी अपेक्षाएं जो पिछली पीढ़ी पूर्ण करती है उस पिछली पीढ़ी की भी कुछ तो अपेक्षाएं वर्तमान पीढ़ी से होना स्वाभाविक ही है।
बुज़ुर्गों को सम्हालने के लिए युवा पीढ़ी की जिम्मेदारी सबसे अधिक होनी चाहिए। परन्तु यह भावना हमें समाज में और प्रत्येक परिवार के व्यवहार में दिखाई नहीं देती। बुज़ुर्गों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वह भी अत्यंत सिमित साधनों से। और यह कि युवाओं से कही ज्यादा समस्याओं का सामना बुज़ुर्गों को करना पड़ता है। सबसे बड़ा संकट आजीविका का और उसके अभाव में दो वक्त की रोटी का होता है। हमारे देश में ४६ करोड़ कामकाजी लोगों में से तक़रीबन सिर्फ ३ करोड़ लोगों को सरकार से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्राप्त है। और इस तरह उनकी सेवा निवृत्ति के पश्चात सरकार उनकी देखभाल उन्हें पेंशन देकर कर सकती है। इसके अलावा निजी रूप से कर्मचारी पेंशन फंड में दो करोड़ लोग भी है। इसका मतलब यह हुआ की ४६ करोड़ कामकाजी लोगों में से ४१ करोड़ से अधिक लोगों को उनके वृद्धावस्था में जीवन यापन का कोई आर्थिक सहारा उपलब्ध नहीं होता। इन ४१ करोड़ से अधिक लोगों में लगभग एक करोड़ लोगों को विभिन्न राज्यों में निराश्रित पेंशन भी मिलती है जो ४००- ५०० रूपये प्रतिमाह से अधिक नहीं होती जो बहुत ही अपर्याप्त होती है। इस तरह देश मे ४० करोड लोग सेवानिवृत्ती के पश्चात असहाय जीवन जीने के लिये मजबूर होते है।
हमारे देश मे ८० प्रतिशत लोगो की आय रोजाना ३० रुपये से भी अधिक नही है । और ६५ प्रतिशत लोगो को एक वक्त का ही भोजन बडी मुश्कील से नसीब होता है । अर्थात उन्हे रोज भूखे पेट ही सोना पडता है। ऐसी परिस्थिती मे अपने भविष्य के लिये कौन बचत के बारे मे सोच सकता है ? सरकारी योजनाये भी उनकी देखभाल करने के लिये पर्याप्त साबित नही होती। सामाजिक सुरक्षा पेंशन या निराश्रित पेंशन भी ४०० – ५०० रुपये से अधिक नही होती और इसमे भी भ्रष्टाचार के कारण अनेक जरुरतमंद इसका कोई लाभ ही नही उठा पाते।
वृद्धावस्था मे स्वस्थ रहना अपने आप मे एक बहुत बडी चुनौती है। परिवार मे वृद्धो की दयनीय स्थिती, उनकी देखभाल मे लापरवाही, उन्हे जरुरत के अनुसार पोष्टिक भोजन और दवाईया उपलब्ध न होना, परिवार की और स्वयं बुजूर्गो की आर्थिक स्थिती का कमजोर होना, उचित चिकित्सा न मिलना आदि सभी समस्याओ का सामना अमुमन सभी बुजूर्गो को करना पडता है। आर्थिक परिस्थिती ठीक न होने से और उचित देखभाल न कर पाने से बुजूर्गो की बिमारियां अधिक गंभीर अवस्था धारण कर लेती है। उपचार कठीन और महंगा हो जाने से बुजुर्गो को लाचारी का जीवन व्यतीत करना पडता है। इनमे गरीब और विकलांग बुजुर्गो की स्थिती सबसे अधिक दयनीय होती है। सरकार की ओर से इस हेतू उचित प्रयास कर बुजूर्गो के लिये मुफ्त चिकित्सा सुविधा और सरल एवं सस्ती चिकित्सा बिमा योजना अमल मे लाये जाने की जरुरत है। देश भर मे कार्यरत वरिष्ठ नागरिक संस्थांओ को इस हेतू सक्रिय रूप से कार्य करने की जरुरत है।
एक और गंभीर समस्या युवा पिढी द्वारा बुजूर्गो की होने वाली निरंतर उपेक्षा और अवहेलना है और इस कारण बुजुर्गो का मानसिक रूप से जल्दी ही हताश और निराश हो जाना है। उनके खुद के ही घर मे उचित आदर और मानसन्मान न मिलना और खुद के ही घर मे उपेक्षित रहना यह अब सभी घरों मे आम द्रष्य है। खुद के ही बच्चो से मिलने वाले तिरस्कार और उपेक्षा से वे एक लाचारी भरा जीवन जीने के लिये अभिशप्त हो जाते है। और इस कारण उनकी मानसिक शांती भी भंग हो जाती है। विवशता के कारण मन मे ग्लानि निर्माण होकर उनका जिना दुश्वार हो जाता है। शारीरिक, आर्थिक और मानसिक रूप से निर्बल होने के कारण उनमे संघर्ष की क्षमता भी नगण्य रह जाती है। सच तो यह है कि युवाओं मे भले ही जोश होता हो, वे अधिक पढे लिखे होते हो, परंतु वरिष्ठ नागरिकों के पास विलक्षण और सार्थक अनुभव का खजाना होता है जिसका उपयोग परिवार, समाज और देश के लिये हो सकता है। परंतु हर एक पिढी मे युवा अपने अहं के कारण इन बातों की और दुर्लक्ष कर स्वयं का और समाज का अहित ही करता है। इस कारण परिवार और समाज के समग्र विकास के लिये युवाओं को हमेशा ही कोई कमी भी महसूस होती रहती है।
बुजूर्गो की एक और गंभीर समस्या खालीपन की रहती है ।सेवा निवृत्ती के पश्चात जिन लोगो को कोई शौक या छंद होता है वे अपने आप को उसमे व्यस्त रखने का प्रयास करते
है । और इस तऱह वे चुस्त दुरुस्त रहते है। परंतु जिन लोगों को कोई शौक या छंद नही होता है, तो उन्हे समय व्यतीत करना बडा कठीन हो जाता है । खाली दिमाग शैतान का घर होता है । इस तरह ये बुजुर्ग अपनी खुद की ही समस्याएं बढा लेते है। आर्थिक तंगी न हो तो , सेवानिवृत्ती के पश्चात पुन्ह: नोकरी नही करना चाहिये । क्योकि सेवानिवृत्ती के पश्चात दुबारा नोकरी करने से युवा बेरोजागारो का हक मारा जाता है जो समाज मे असंतोष की भावना ही पैदा करता है। परंतु बुजुर्ग अपने आप को व्यस्त रखने हेतु कोई रचनात्मक सक्रियता जरूर रख सकते है।
बुजुर्गो को सम्हालने के लिये देश मे कानून है परंतु वे पर्याप्त नही होते। इनकी बुजूर्गो को जानकारी भी नही होती और सरकारी तंत्र की उदासीनता के कारण बुजुर्ग इसका लाभ नही ले पाते । बुजुर्गो के साथ घर मे होने वाले अत्याचार और मारपीट के लिये विशेष कानून हो और बुजूर्गो को सम्हालने का उत्तरदायित्व किस का हो यह भी स्पष्ट होना चाहिये। क्योकि वारिसों के बीच होने वाले वादविवाद मे बुजुर्गो की स्वतंत्रता नष्ट हो जाती है। वैसे अनेक न्यायालायो के द्वारा बुजुर्गो के हित मे अनेक सुखद निर्णय दिये गये है। परंतु बुजूर्गो के मौलिक अधिकारो के रूप मे उन्हे रोटी कपडा और मकान के साथ ही निशुल्क चिकित्सा की भी व्यवस्था होनी चाहिये और यह व्यवस्था सरकार ही कर सकती है।
बुजुर्गो की एक और समस्या यांनी अपनी तरुणाई मे, ‘एक बंगला बने न्यारा’ का स्वप्न देखकर बनाये हुए उनके अपने ही मकान मे आज उनके लिये एक कमरा भी नसीब नही होता। इस तऱह उनकी निजता का हनन उनमे बैचेनी पैदा करता है । घर के हर कमरे मे बेटे , बहु और बच्चो का कब्जा उनकी प्राथमिकताएं बदल देता है । वे अपने आप को महत्वहीन समझने लगते है और जीवन और जीवन के प्रती उदासीन हो जाते है । युवाओं द्वारा ओढायी गयी विरक्ती मे कही गुम हो जाते है ।यह नही भूलना चाहिये कि हर भविष्य की पिढी को वर्तमान तक लाने मे पिछली पिढी का अमुल्य और त्यागभरा योगदान होता है । अपने बच्चो के हर छोटेबडे शौक को पूर्ण करने वाले मांबाप को चाहिये कि कम से कम दस बीस प्रतिशत शौक अपने मांबाप का भी पूरा किया करे ।
– सन १९५० मे भारत मे औसत आयु लगभग ४८ वर्ष थी जो आज बढकर ७२ हो गयी है । उन्नत चिकित्सा सुविधा के कारण मृत्यूदर कम हो गयी है । जीवनस्तर और चिकित्सा सुविधा के कारण आज उम्र बढ गयी है । प्रकारांतर से जीवन जीने की आशा आज और भी ज्यादा हो गयी है और इन्ही बढी हुई अपेक्षाओं के कारण बुजूर्गो की समस्याये भी कुछ ज्यादा ही बढ गयी है ।उम्र बढने के कारण कष्टप्रद बुढापा ज्यादा ही भोगना पड रहा है । इन सब का परिणाम यह कि बुजुर्गो को मृत्यू के लिये एक लम्बा असहनीय इंतजार करना पडता है ।
– बुजूर्गो के इन सभी संकटो को देखते हुए बुजूर्गो के लिये आज वृद्धाश्रमो की महती आवश्यकता है । आर्थिक द्रष्टी से कमजोर बुजुर्गो के लिये तो इन्हे सरकार द्वारा प्राथमिकता के आधार पर वार्षिक योजनाओ मे शामिल किया जाना चाहिये । ज्येष्ठ नागरिकों के लिये कार्यरत सामाजिक संस्थाओ को वृद्धाश्रम संचालित करने हेतू सक्रियता से आगे आना चाहिये । अनेक पारमार्थिक ट्रस्ट एवं सामाजिक संस्थाएं वृद्धाश्रम संचालित करती है पर आर्थिक द्रष्टी से सक्षम न होने के कारण और अन्य अव्यवस्थाओं के कारण इन वृद्धाश्रमों को विशेष प्रतिसाद नही मिलता । समाज की भावनाएं इनके संचालन मे आडे आती है । परिवार मे कितना ही अत्याचार बुजुर्ग सहन करे , परंतु वृद्धाश्रमों मे रहना आज भी हीन दर्जे का समजा जाता है ।
– कुछ बहुत बडे उद्योजक एवं लायन्स क्लब तथा रोटरी इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं के पास वृद्धाश्रम जैसी संस्थाओं के संचालन के लिये योजनाएं तथा आर्थिक मदत हेतू नियमित फंड (भवन निर्माण वगैरे ) उपलब्ध रहते है । परंतु सेवा भावना से आगे बढकर इस पुनीत कार्य को करने के लिये योग्य स्थानीय लोग नही मिलते । इसलिये योजनाएं मूर्तरूप नही ले
पाती ।अब आजकल समाजसेवा भी व्यवसाय होने से और अनेक जेबी संस्थाएं पनपने से देश मे पवित्र समाज सेवाएं बाधित हो रही है और इसका खामियाजा समाज मे वंचितों के साथ ही पूरे देश को भुगतना पड रहा है । हम अक्सर यह भूल जाते है कि कोई भी समाजकार्य और दानधर्म देश के विकास और उन्नती का ही एक हिस्सा होता है ।
– वृद्धावस्था एक अभिशाप या बोझ न हो इसकी चिंता समाज को और विशेष कर युवाओं को ही करनी चाहिये ।आज बच्चो के लिये , माताओं बहनो के लिए , युवाओं के लिये अनेक सरकारी योजनाएं अनेक लुभावने नारो के साथ उपलब्ध है । परंतु बुजर्गो के लिये कोई योजना – कोई नारा उपलब्ध नही है यह समाज का ही दुर्भाग्य है । आज के समाज में एकल परिवारो की बढती वृत्ती और और चलन देखते हुए हमे ,” हर एक घर मे एक बुजुर्ग ” जैसा कोई नारा देने की जरुरत है । और इससे आगे बढकर ” हर परिवार एक बुजुर्ग गोद ले ” जैसे नारे प्रचारित किए जाने की भी जरुरत है ।

लेखक परिचय :-  विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.

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