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महामारी

मो. नाज़िम
नई देहली (सुल्तानपुर)

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वाबा…..!

झिझक भी निकलेगी,
मन के दरवाजों से।
इंसान भी निकलेगा
अपने मकानों से
कुछ डर है जो
बरकरार बना हुआ है।

तुच्छ वाबा ने
नाक में दम करा हुआ है
अब चीटियों की चाल
जब चलने लगा है इंसान
निकलता है घर से डर डरा के
जब भूख से मरने लगा है।।

दरवाजे कपाट सब
हाथ रोककर खुले हैं,
जो समझते हैं,
बुद्धिजीवी खुद को
सियासत की चाटुकारिता से भारे है।।

मस्जिदों में इबादत,
गंगा घाट की भजन संध्या
दोनों में…
भक्तों का मेला
ईका दुका..
बारिश की बूंदों की
तरह लगने लगा है,
इंसान परेशान है वाबा से,
अपने आराध्यओ के सामने
फिर झुकने लगा।।

भले ही राहत मिली हो,
पर संख्या बढ़ी है।
छूने से डरता हूं अपनों को
हर तरफ वाबा जो पड़ी है।
मेरे परिचय में,
ना किसी ने कांधा दिया है
ना दफनाया गया है।
रो तो रहे हैं,
अश्कों को बहा कर…

पर नज़रों में गिरे
पिछड़े लोगों ने कंधा दिया है ।
सियासत के हाथों से।
गमे गुलजार शहर लगता है
वाबा फैली भले ही है चौतरफा
इंसान अब थोड़ा बेपरवाह लगता है
और…….
झिझक भी निकलेगी,
मन के दरवाजे से
इसमें वक्त लगता है।।

शब्दार्थ :-
वाबा = महामारी

परिचय :– मो. नाज़िम
निवासी : नई देहली सुल्तानपुर


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