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गगन के किनारे

पारस परिहार
मेडक कल्ला
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मैने देखा उसे गगन के किनारे
बहती पवन के सहारे
शाम की संध्या का रूप निखारे
उतरती किरणों के इशारे।

डुब रहा था आग का महाराजा
कर रहा था इशारे साथ आने का
आजा मेरी गोद मे समाजा
मै हूँ इस जगत का राजा।

दुनियाँ को जगाने निकला था
पुरा करके सफर अपना,
घर अपनें जा रहा था
ओट में बादलों की,
छिपा जा रहा था
इशारों ही इशारों मे
वापस आने का
वादा कर रहा था।

सुधा अपने अंचल में,
समेट उसे रहीं थी
किरणों की महक
दूर-दूर तक फैली थी
चारों और हँसती-हँसाती
हरियाली थी
प्रकृती को सौ रंगो से
सजा रही थी।

मै विदा लेने ही वाला था…
किसामने काली घटा का
घूमड़ आ निकला था
इन्द्र ने पवन को भी
न्योता दिया था
पवन देवता भी झल्लाते
पीछे-पीछे आ रहे थे
किसानो की मेहनत को
मिटाते जा रहे थे।

इतने मे आवाज आयी…
रुक जाओ, रुक जाओ,
महाशय…! जरा रुक जाओ
इतना क्रोध हम पर ना दिखाओ
ऐसा क्या कर दिया
कसूर हमने आपका
जरा… इन भोले_भाले
बच्चो की और तो देखते जाओ…!

परिचय :- पारस परिहार
निवासी : मेडक कल्ला
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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