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पुरवाई

श्रीमती अंजू निगम
जाखन, (देहरादून)

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हिन्दी रक्षक मंच द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा लेखन प्रतियोगिता में प्रथम विजेता रही लघुकथा

“अरे !!! रमेसी!! कब आया सहर से?” काका की आवाज खुशी से चमक रही थी।
“आये तो पंद्रह दिनो से ऊपर हो गये। पर यहाँ आये के पहले, वो नजदीक का अस्पताल वाले धर लिये। वही चौहद दिनो का वनवास काट के कल ही गाँव आये गये रहेन। सोचे खेतो की तनिक सुध ले लूँ।”
“अच्छा हुआ भईया, जो खेत बेच के न गये। कौनो ठौर तो रही अब। बढ़िया किये जो वापसी कर ली।”
“हाँ कक्का!! खाने रहने सब का जुगाड़ खतम हो गया था। परदेस में कोई हाथ थामने वाला न बचा। सोचे, मरना ही हैं तो अपनो के बीच मरे। कोई मिट्टी देने वाला तो हो।”
“ऐसा असुभ न निकालो रमेसी। तुमको मालूम, तुम्हारे बाद कितना लड़कन सहर की ओर भाग गये
रहे। आधा गाँव खाली हुई गया था। तुम भी तो पलट कभी गाँव का सुध न लियो। चलो, अब धीमे धीमे गाँव भर जाई। सच पूछो तो बड़ी हौल उठती थी। गाँव का रौनक तो तुम्ही लोगन में बसी थी।” काका का चेहरा सूरज सा खिल गया था।
“शहर की चकाचौंध ने मति हर ली थी। हाड़ तोड़ मेहनत के बाद दो जून रोटी मिलती थी। और बसर को एक खोली। बड़े दलीद्दर में रहे काका। न इज्जत, न रोटी, न गाँव का हवा पानी।”
रमेशी की बात सुन काका पसीजे तो फिर तनिक रोष से बोले, “लल्ला, आज मजबूरी पड़ी तो तुम गाँव मुड़ आये। कल जरूरत होगी तो फिर सहर का रास्ता पकड़ लेगा।”
“न काका, अब नाही। फिर कक्का, अब जे वो पूराना गाँव कहाँ रह गया!! कितना तो तरक्की उतर आयी। और फिर यही विपदा ने तो सिखाया, गाँव की मिट्टी और अपनो का मोल।”
रमेशी का मन अब पुरवाई सा बहने लगा था।

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परिचय :- श्रीमती अंजू निगम
जन्म : २० अगस्त १९६८
निवासी : जाखन, देहरादून


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