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बिंदी

डॉ. पायल त्रिवेदी
अहमदाबाद (गुजरात)

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“माँ, हम बिंदी क्यों लगाते हैं?” जब पांच साल की छोटी बिंदी ने माँ से यह सवाल किया तो माँ ने उसे हंसकर टाल दिया, तुम अभी छोटी हो, यह बात नहीं समझ पाओगीपर बिंदी जब ज़िद पर उतर आयी तो माँ ने इतना कहकर उसे समझा दिया, बिंदी हम सुहागिनों की निशानी है। सभी औरतें इसे लगाती है और इसे अच्छा शगुन भी माना जाता है इस वजह से सभी लड़कियों के लिए भी बिंदी बहुत ही शुभ मानी जाती है। तभी तो माता रानी को भी यह लगायी जाती है। बिंदी तुरंत उठकर अपनी काकी के पास चली गयी, काकी, तुम क्यों नहीं लगाती बिंदी जब यह तो शुभ मानी जाती है? बिंदी के मुँह से यह प्रश्न सुनकर दादी तुनककर बोली, अचला, इसे समझाओ की बड़ों की सभी बातों में इसे नहीं पड़ना चाहिए। जी माजी कहकर अचला ने बिंदी को अपने पास बुला लिया, बिंदी चलो, तुम अपनी गुड़ियाकी शादी में मुझे नहीं बुलाओगी?
तब बिंदी समझ नहीं पायी कि उसे क्यों रोका गया. अब वो कुछ बड़ी हो गयी थी पर प्रश्न आज भी उसके मन में घर कर गए थे. “काकी बिंदी क्यों नहीं लगाती? और दीदी बिंदी क्यों नहीं लगाती?” एक दिन मौका पाकर बिंदी काकी के पास गयी और पूछ ही लिया, काकी आप बिंदी क्यों नहीं लगाती? काकी ने हंसकर कहा, मुझे बिंदी लगाना पसंद नहीं है। और कहती भी क्या वो? कि उसका पति उसे छोड़कर किसी दूसरी औरत से प्रेम करता है और उसने ससुराल में ही उसके पति का त्याग कर दिया है और उसके नाम की कोई भी निशानी वो नहीं पहनना चाहती। क्या समझा पाती वो बिंदी को कि उसे सुहागिन के इस गहने से सख्त नफरत तब हो गयी जब अपनी आँखों के सामने उसने अपने पति को उस औरत के माथे पर बिंदी लगiते हुए देखा।

उतनी देर में दीदी वहां दिखी और बिंदी ने पूछा, दीदी आप बिंदी क्यों नहीं लगाती? दीदी बिंदी का नाम सुनकर रोते हुए अपने कमरे में जा पहुंची। क्या कहती वो बिंदी से, बिंदी मुझे लगाना बेहद पसंद है पर मैं जबसे चौदह साल में विधवा हुई, इस घर ने मुझे इस श्रृंगार से वंचित कर दिया। यह शहर नहीं, गाँव है, यहाँ यह साज श्रृंगार विधवाओं के लिए नहीं। दादी के कहे हुए इन वचनो पर आज तक अमल करके सफ़ेद साडी के सिवाय कुछ और न पहननेवाली दीदी बिंदी को कुछ कभी चाहकर भी नहीं कह सकती थी. एक दिन बिंदी की सहेली ज़ुबेदा घर आयी. घर के लोग उसे पसंद नहीं करते थे क्योंकि वह मुसलमान थी। पर बिंदी की ज़िद के कारण उसे घरमें बिंदी के कमरे में आने जाने की इज़ाज़त थी। ज़ुबेदा, तुम क्या देख रही हो? बिंदी ने उसकी ओर टकटकी लगायी हुई ज़ुबेदा से पुछा। कुछ नहीं. कितनी सुन्दर है
तुम्हारी बिंदी, मुझे भी लगानी है, ज़ुबेदा ने हँसते हुए कहा, बिंदी ने ज़ुबेदा को अपनी बिंदी लगादी. तुम पर कितनी सज रही है यह बिंदी ज़ुबेदा, तुम लगाया करो, उसने कहा, हमारे धर्म में बिंदी नहीं लगाते बिंदी। ज़ुबेदा ने तब यह जवाब दिया जब उसे धर्म क्या है यह भी ठीक से पता नहीं था, बस इतना पता था कि बिंदी लगाने से उसकी माने उसे मना किया है। उस दिन फिर भागकर बिंदी माँ के पास गयी और कहा, माँ, काकी, दीदी और ज़ुबेदा बिंदी नहीं लगाती! माँ ने उसकी और देखा और कहा, हाँ बेटी, नहीं लगाती क्योंकि वो नहीं लगा सकती, पर क्यों माँ? बिंदी ने फिर जिज्ञासा व्यक्त कर ही दी और माँने एक बार फिर उसे वहीँ टाल दिया। कुछ सालों के बाद, बिंदी समझ गयी. पर एक बात उसकी समझ में नहीं आयी कि एक छोटी सी बिंदी इतना महत्व एक औरत के जीवन में रख सकती है कि उसे समाज में सुहागन और विधवा का भी दर्जा दे सकती है, मगर कुछ दिनों के बाद किसी और को बिंदी का यह महत्त्व समझ में आना था. नहीं ज़ुबेदा! मुझे यह आडम्बर अच्छा नहीं लगता! कहा न तुमसे, तुम बिंदी लगाओ मुझे पसंद नहीं, बिंदी ने ज़ुबेदा का हाथ रोकते हुए कहा, अगर मैं लगा सकती तो लगाती। पर तुम तो हिन्दू हो तुम बिंदी लगा सकती हो, हंसकर ज़ुबेदाने जो जवाब दिया उसपर बिंदी को और गुस्सा आया, वह तुनककर बोली इसीलिए मुझे नहीं लगiनी यह बिंदी समझी! दादी को खुश करने के लिए मैं यह बिंदी नहीं लगाउंगी! क्यों लगाऊं.? जो श्रृंगार धर्म की ही पहचान बनकर रह जाये उसे क्यों लगाऊं? चiची, दीदी कोई नहीं लगiता इसे” ज़ुबेदा तुरंत बोली, “दीदी को तो लगाना पसंद है मेरी तरह! वो लगा नहीं सकती। इसे सुनते ही बिंदी की भावनाओं को जैसे और वाचा मिल गयी. उसने तुरंत जवाब दिया, हाँ. इसी वजह से मुझे नहीं
लगiनी कोई बिंदी, जिसे पसंद है वो बिचारी दीदी लगा नहीं सकती. मैं तो चiची की ही तरह बहिष्कार करती हूँ इसका! बिंदी! अचानक से माँ की आवाज़ सुनी तो बिंदी चौंक गयी, मुझे नहीं पता था की मेरी बेटी इतनी बड़ी हो गयी है की बड़ों की आज्ञा का पालन नहीं करेगी! चुपचाप बिंदी लगाओ और जलसे में चलो, हम खानदानी लोग हैं, समझी, हमारी इस गांव में पहचान है, हमारे संस्कारों की वजह से” पर माँ! बिंदी कुछ कहे उससे पहले ही माने उसे, बस चुप कहकर इशारा कर दिया की अब नहीं, और उसे चुप होना पड़ा, बेमन से बिंदी लगाकर वह नीचे जलसे में जाने के लिए आ गयी. दादी ने उसे इशारा किया कि जलसे में जाने की शुरुआत घरकी कुंवारी लडकियां माता रानी की पूजा से करती आयी हैं और इस बार बिंदी को यह करना है. क्या करना है मुझे? बिंदी ने पूछा. दादी ने कहा, माता रानी को कुमकुम की बिंदी लगाओ और उनका आशीर्वाद लेकर इस जलसे में जाने की शुरुआत हम करेंगे” बिंदी ने कुमकुम लेकर माता को माथे पर लगाया और मन ही मन बोली, कभी इस बिंदी की अनिवार्यता समझाना माँ. क्या इस बिंदी से ही तुम्हारी पहचान है? क्या तुम्हारे माथे पर इस टीके को लगाना आवश्यक है? यह समाज हम औरतों को अपनी सीमाओं में बांधकर रखता है. और इन सीमाओं का प्रतीक लगती है मुझे यह बिंदी!

सालों बाद ज़ुबेदा बिंदी की तस्वीर देखकर उसे याद करते हुए यह शब्द कहती है, बिंदी. तुम तुम्हारा महत्त्व नहीं जान पायी, किन्तु माता रानी ने मुझे तुम्हारा महत्त्व अवश्य ही समझा दिया उस रात के जलसे में, हाँ हमारे गाँव में हर साल होने वाला वह जलसा भी हिंदुत्व का प्रचार ही तो था। तुम्हारा उत्कृष्ट ब्राह्मण परिवार उस जलसे का शुभारम्भ माता की पूजा से करता था तथा हिन्दू धर्म को ही तो प्राथमिकता दी जाती थी उसमे, हम गाँव का एक अभिन्न अंग होते हुए भी पीछे खड़े रहते थे, और तुम हमेशा कहती, “यह भेदभाव क्यों” लेकिन कोई आवाज नहीं उठiता था। केवल हिन्दू ब्राह्मण परिवारों को ही जलसे में आगे बैठने का स्थान मिलता था। किन्तु जलसे का खर्च तो गाँव के हर परिवार को देना पड़ता था, फिर ऐसा भेदभाव क्यों? यही नहीं. जलसे के आरम्भ होने से पहले देवी पूजा होती थी और उसमे हम मुसलमानो को भाग नहीं लेने दिया जाता था। सदियों से चली आनेवाली गांव की इस प्रथा का विरोध करना किसी के बस की बात नहीं थी और जो करता था, उसे गाँव से निकाल दिया जाता था। ब्राह्मणो को प्रभुत्व देती इस परंपरा को सब निभा लिया करते थे. किन्तु उस दिन, उस एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसने गाँव में बहुत बड़ा फसाद खड़ा कर दिया। मुस्लमान की इस लड़की ने माता रानी की बिंदी लगा ली! क्यों? चौधराईन ने बड़ा ही गुस्सा दिखiते हुए कहा, इस लड़की को इसकी भूल की सजा मिलनी ही चाहिए उसकी माँ तभी दौड़कर आयी और अपनी बच्ची को अपने पास लेकर चौधराइन से कहा, यह छोटी बच्ची है, इसे माफ़ कर दीजिये। पर उसकी सजा तय कर दी गयी, इस लड़की के हाथ पर लोहे का जलता हुआ चिमटा रखो। बच्ची के साथ यह अन्याय होते सबने देखा, किसी ने भी आवाज़ नहीं उठाई, पर बिंदी मुझे आज भी याद है, तुम तुरंत बोल उठी, यह गलत है! इस छोटी सी बच्ची को धर्म, जाती का क्या ज्ञान? यह सुनना था की गाँव दो हिस्सों में बंट गया, हिन्दू और मुसलमान और कुछ ही पल में तूफ़ान आया, गांव में हिन्दू मुस्लिम फसाद शुरू हो गया, हाथ को हाथ नहीं सूझा, सभी
अपनी ज़िन्दगी बचiने के लिए भागने लगे और तुम और मैं दोनों एक दुसरे के साथ ही भागे वहां से हम दोनों के पीछे भीड़ लग गयी। जब भीड़ पीछे आ रही थी, हम दोनों ही जानते थे हम ज़्यादा नहीं भाग पाएंगे और कुछ ही दूर आकर दोनों के शरीर ने जवाब दे दिया और एक गली में दोनों आकर छुप गए। पर हम जानते थे वह लोग हमें ढूंढ लेंगे और हमें उनके पास आने की आहट सुनाई देने लगी। वह कहते हुए
आ रहे थे, मार डालो उन मुसलमानो को, एक को भी छोड़ना नहीं है आज. न जाने कितने सालों से हमारे गाँव में आकार डेरा जमा लिया है इन लोगों ने!” जब वह पास आए, तो हमने उनके चेहरे देखे और समझ गए कि यह हमारे गाँव के लोग नहीं बल्कि पास के गांव के या फिर कहीं बाहर से जलसे में आये हुए कुछ हिन्दू लोग थे जोकि मौका पाकर मुसलमानो के प्रति अपने क्रोध को व्यक्त करने हमारे पीछे आये थे।
मैंने डरते हुए तुमसे कहा, बिंदी मुझे डर लग रहा है, यह लोग मुझे नहीं छोड़ेंगे, अब क्या? मैं मर जाउंगी? और फिर तुमने कहा, हरगिज़ नहीं! मैं तुम्हे कुछ नहीं होने दूँगी। यह लोग मुसलमानो की जान के प्यासे हैं न, ठीक है। कहकर तुमने अपने माथे पर लगी बिंदी मेरे माथे पर लगाई और कहा, ज़ुबेदा कुछ मत बोलना जब वह आए तो चुप रहना, और मेरे गले में पड़ा हुआ पाक तावीज़ अपने गले में पहन लिया। उन्होंने आकर हमें जब देखा तब कुछ और नहीं देखा, केवल मेरी बिंदी देखि और बिंदी के गले का वो तावीज़ देखा और फिर…रुआंसे गले से बिंदी की तस्वीर को देखकर ज़ुबेदा बोली, आज भी जब मैं तुम्हे देखती हूं बिंदी तो समझ मैं नहीं आता की तुमसे क्या कहुँ? महज़ एक तस्वीर बनकर रह गयी हो तुम उस दिन से मेरी ज़िन्दगी में पर मेरी ज़िन्दगी तुम्ही ने बचाई। और मैं तुम्हे याद करके आज कभी-कभी बिंदी लगा लिया करती हूं. शहर आकर बहुत पढ़कर इस वकालत की डिग्री को हासिल किया और तुम कहती थी न, जब वकील बन जाओ शहर में पढ़कर, तब लड़ना इस समाज के खिलाफ. देखो आज वही कर रही हूं मैं बिंदी, तुम हमेशा कहती थी बिंदी क्यों लगiते हैं ज़ुबेदा? और इसका जवाब भी तुम्ही ने मुझे दे दिया बिंदी उस रात बिंदी एक औरत की नहीं, इंसानियत की पहचान है। मातारानी के माथे पर लगायी जानेवाली बिंदी एक स्त्री की वो शक्ति है जो इस संसार को पावन करती है। और बिंदी उस पवित्रता का प्रतीक है जो हमारे जीवन में सभी बुरे भावों का विनाश करके हमें एक नया जीवन, एक नाई चेतना प्रदान करती है।

परिचय :- अहमदाबाद गुजरात की निवासी डॉ. पायल त्रिवेदी को अंग्रेजी साहित्य में डॉक्टर ऑफ़ फिलोसोफी की डिग्री इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी नई दिल्ली से प्राप्त है।२०१५ से ही डॉ. त्रिवेदी लेखन कार्य में सक्रीय है तथा, अंग्रेजी भाषा मैं उनके लेख कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ. त्रिवेदी हिंदी तथा गुजराती लेखन में भी रूचि रखती हैं और अपना योगदान देती आ रही हैं। उनकी कई हिंदी रचनाएँ, हिंदी जर्नल प्रतिलिपि पर प्रकाशित हैं। साथ ही डॉ. त्रिवेदी एक नाट्यकार भी हैं और उनका पहला नाटक राकोशी देवीस अंग्रेजी जर्नल लबीरिंथ में प्रकाशित है। भरतनाट्यम मैं गुरु शिष्य परंपरा में मुद्रा स्कूल अहमदाबाद में शिक्षा प्राप्त कर चुकी हैं तथा भारतीय शास्त्रीय नृत्य और संगीत में भी इनकी विशेष रूचि हैं।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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