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क्या तुम मुस्करा पाते हो

शरद सिंह “शरद”
लखनऊ

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क्या सितम करते हो कान्हा,
मेरी नींद से बोझिल आंखो को,
खोलते हो अपने स्नेहिल स्पर्श से,
फिर जा छुपते हो दूर कहीं,
झुरमुटो मे तरुओं के,
मै बावरी हो दौड़ पड़ती हूँ,
तुम्हे खोजने को यहाँ वहाँ,
और तुम मुझे बदहवास होते देख
निर्दयी हो मुस्कराते से बंसी बजाते हो
नित ही खेलते हो यह
लुकाछिपी का खेल तुम कान्हा,
अँखियाँ की नींद चुरा,
दिन का चैन चुरा लेते हो
बन्द आँखों से अहसास होता है,
खोलूं जब नयन छुपे ही रहते हो,
सताते हो हर दिन यूँ ही
तुम मुझे कान्हा,
मुझे सताकर क्या तुम,
मुस्करा पाते हो?

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लेखक परिचय :- बरेली के साधारण परिवार मे जन्मी शरद सिंह के पिता पेशे से डाॅक्टर थे आपने व्यक्तिगत रूप से एम.ए.की डिग्री हासिल की आपकी बचपन से साहित्य मे रुचि रही व बाल्यावस्था में ही कलम चलने लगी थी। प्रतिष्ठा फिल्म्स एन्ड मीडिया ने “मेरी स्मृतियां” नामक आपकी एक पुस्तक प्रकाशित की है। आप वर्तमान में लखनऊ में निवास करती है।


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