उत्सवों के माध्याम से एकात्मकता का विकास हो
रचयिता : डॉ सुरेखा भारती
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अध्यात्म व्यक्ति को जोडता है
सनातन धर्म में उत्सवों की एक श्रृंखला होती है। दीपावली, वसंत पंचमी, शिवरात्रि, होली, नववर्ष प्रतिपदा, श्रीरामनवमी जितने भी उत्सव आते हैं, उन्हे धर्म से, आध्यात्मिकता से जोड़ा गया है। इसी सच्चाई के लिए यह घोषणा की गई की मनुष्य जाति एक है। जो भौतिकवाद से जुडे़ हैं, वह नहीं कहतें कि हम एक है। क्योकि वहाँ एक-दूसरे का स्वार्थ आता हेै। जिस मंच से, जिस धरातल से यह बोला गया है कि मनुष्य जाति एक है वह आध्यात्मिक धरातल है। अध्यात्म व्यक्ति को जोडता है और भौतिकता व्यक्ति को तोडती है।
आधात्मिक व्यक्ति निर्लिप्त रहता है
आध्यात्मिक व्यक्ति निर्लिप्त रहता है। आध्यात्मिक व्यक्ति समाज में रहता हैं। अन्य मनुष्य की तरह आहार -विहार करता है, पर वह मेरा -मेरा नहीं करता, क्योंकि वह जानता हेेै कि यह सम्पदा, यह भूमि उसकी नहीं है। पदार्थ के साथ भोग करना और पदार्थ के साथ ममत्व रखना यह दोनों ही अलग-अलग हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति पदार्थ का सेवन करता है, पर उससे ममत्व नहीं रखता । जो ममत्व को जोडकर रखता है वह माया में उलझा रहता है, वही स्वार्थ है। धर्म आत्मा की आंतरिक पवित्रता है। जैसे सूर्य का धर्म है निष्काम कर्म, निस्वार्थ प्रकाश देना। जल का कार्य है प्यास बुझाना। वायु का कार्य है निस्वार्थ रूप से प्राणों को गति देना। प्रकृति में सभी अपने-अपने धर्म से जुडे़ हैं।
धर्म और अध्यात्म वैसे ही हैं जैसे कि शरीर और आत्मा
धर्म आत्मा की आंतरिक पवित्रता है और अध्यात्म उसका प्राण है। बिना प्राण के शरीर कोई कार्य नहीं कर सकता और बिना शरीर के प्राण कोई कार्य नहीं कर सकता। प्रत्येक शरीर धारी प्राणों को इस सृष्टि से जोडकर रखता है ।यह जोडना भोैतिकता से लेकर आत्मा तक होती है। हम अपने परिवार में रहते हैं, मित्रों के बीच रहते हैं, तो एक दूसरे भावों को, विचारों को तुरंत समझ जाते हैं, इसलिए कि हम वहाँ मनसे जुडे़ हैं। जुडना और जोड़ना मनुष्य जाति के लिए हो, इसी कारण युगानुसार नियम बनाए गए हैं। किसी सूफी शायर ने कहा है कि ‘खुदा ने मनुष्य को इसलिए पैदा किया कि वह एक दूसरे के काम आए, वर्ना खुदा के पास फरिश्तों की क्या कमी थी’। कहीं उत्सवों को लेकर, कही ध्यान, समाधि को लेकर, तो कहीं सत्कार्यो का लेकर व्यक्ति एक दूसरे को समझे और एक दूसरे के विकास में सहयोग दे।
उद्देश्य है एकता का भाव हो
सभी उत्सवों को मनाने के पीछे भाव यह होता हे कि परस्पर सहयोंग और सौहाद्रता बनी रहे।पहले की कबीले संस्कृति खत्म हुई, ग्राम हुए, शहर हुए, राष्ट्र और समस्त विश्व की संकल्पना हुई। विश्व की संवेदना व्यक्ति से जुडे, समाज, विश्व और व्यक्ति एक रूप हो जाए। संत ज्ञानेश्वर महाराज ने आज से छःसौ-सातसौ साल पहले परमेश्वर से पसायदान में समस्त विश्व शांति के लिये अभय दान मांगा। एक योगी जो मात्र उन्नीस बीस वर्ष की उम्र में गीता पर भाष्य लिखता है और परमात्मा से विश्व शांति का दान मांगता है। हमारे संतो के कारण, समाज के मार्ग दर्शकों के कारण ही उत्सवों को मनाने की परम्पराएं, परिवार की चाहर दीवारी से निकल कर चौापालों और चैराहो तक आ गई। यह मानवता की बात है।
उत्सवों में मानवता और प्रकृति के हितों को ध्यान रखें
उत्सवों को मनाते समय अवश्य ध्यान रखा जाए कि यह सुन्दर सात्विक विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्याम है। अन्तर के सुन्दर भावों का मिलन है जिसमे सिर्फ मानवता का रस घुलता है। मानवता और प्रकृति के हितों को ध्यान में रखकर मनाएं जाने वाले यह उत्सव व्यक्ति को व्यक्ति से जोडते हैं। तो आइये प्रत्येंक आने वाले दिन को उत्सव रूप में मनाकर हम अपनी सनातनी परम्परा को कायम रखे।
परिचय :- नाम :- डॉ सुरेखा भारती
कवियत्री, लेखिका एवं योग, ध्यान प्रशिक्षक इंदौर
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