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दीप

डॉ. चंद्रा सायता
इंदौर (मध्य प्रदेश)

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दीप तुम जलाओ,या फिर मैं जलाऊं।
उजाला तुम्हारा न मेरा होता है।
दीप हम जलाएं कि जलते रहें दीप।
वो तो हथेली पे उगा सूरज होता है।

वह तमस की सूनी-सूनी देहरी पर,
गश्त लगाता इक प्रहरी होता है।
सच कहें अंधेरों में बसने वालों का,
उत्साह-सुरक्षा का विश्वास होता है।

किसी अकिंचन के स्वप्न का आधार।
किसी बेबस कश्ती की पतवार होता है।
बिन प्रकाश दीप का अस्तित्व केसा?
वह तो आस्था-प्रेम का पर्याय होता है।

दीप-दान करते रहें, प्रीत-दान होगा।
शनै:-शनैः मानव संस्कारी होता है।
दीप कभी विद्युत का पूरक नहीं होता।
वह तो संस्कृति का आधार होता है।

परिचय :- डॉ. चंद्रा सायता
शिक्षा : एम.ए.(समाजशात्र, हिंदी सा. तथा अंग्रेजी सा.), एल-एल. बी. तथा पीएच. डी. (अनुवाद)।
निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश
लेखन : १९७८ से लघुकथा सतत लेखन
प्रकाशित पुस्तकें : १- गिरहें २- गिरहें का सिंधी अनुवाद ३- माटी कहे कुम्हार से
सम्मान : गिरहें पर म.प्र. लेखिका संघ भोपाल से गिरहें के अनुवाद पर तथा गिरह़ें पर शब्द प्रवाह द्वारा तृतीय स्थान
संप्रति : सहायक निदेशक (रा.भा.) कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,श्रम मंत्रालय, भारत सरकार।
घोषणा पत्र : यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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