विष्णु दत्त भट्ट
नई दिल्ली
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कोरोना क्या आया दुनिया की सूरत बदल गई। प्राणवान तो इस महामारी से त्रस्त हैं ही लेकिन प्राणहीन भी कम त्रस्त नहीं हैं।
मेरे घर में अनवरत रूप से एक अखबार आता है। कोरोना से पहले बड़ा हृष्ट-पुष्ट था। किसी अच्छे खाते-पीते घर का लगता था। काफ़ी वजनी होता था। पेजों की भरमार होती थी। हालांकि उनमें वजन ही होता था पढ़ने लायक समाचार तो एक-आध पेज पर ही होते थे। बलात्कार की चटपटी खबर, हत्याओं की सनसनीखेज खबरों को देखकर ऐसा अनुभव होता था जैसे ये सारी बारदातें इसी अखबार ने की हैं? इतना बारीक विश्लेषण तो खुद बलात्कारी और हत्यारा भी नहीं कर पाता जितना बारीक़ विश्लेषण अखबार करता है।
कोरोना से पहले अख़बार बहुत ऊर्जावान लगता था। विज्ञापनों की पौष्टिक ख़ुराक़ जमकर मिलती थी। कभी-कभी तो ख़ुराक़ इतनी अधिक होती थी कि पढनेवालों को अपच के कारण दस्त लग जाते थे लेकिन अखबार की पाचनशक्त्ति इतनी मजबूत थी कि ख़ुराक़ कितनी भी क्यों न हो उससे अफ़ारा होना तो छोड़िए उसने कभी डकार तक नहीं ली।
कोरोना का संक्रमित मरीज़ जिस तरह धीरे-धीरे शिथिल होने लगता है ठीक उसी तरह कोरोना की दूसरी लहर अखबार को भी संक्रमित कर गई। कुछ दिन तो अख़बार मजबूती से इसका सामना करता रहा लेकिन धीरे-धीरे खुद शिथिल होता गया। इस बीच उसे आहार मिलना भी कम होते-होते बन्द ही हो गया। आहार की कमी एवं समय की मार न झेल पाने के कारण सूखकर एकदम काँटा हो गया है। समझ लीजिए पेट-पीठ एक हो गए हैं। पता नहीं किसी ने इसका ऑक्सीज़िन का लेबल नापा या नहीं लेकिन मुझे लगता है अगर कोई नापे तो ८५ से कम ही मिलेगा।
मैंने कोरोना काल की पहली लहर में भी इसे बंद नहीं किया था और इस दूसरी लहर में भी इसका नियमित ग्राहक हूँ। आज इसकी इतनी पतली हालत देखकर मैं बहुत दुखी होता हूँ।
सोचता हूँ हाय ! कितना ग़ज़ब का जीवट अखबार था। सरकारें जो काम करती थी उनका ब्यौरा तो देता ही था, यह उन कामों का ब्यौरा भी उसी जीवंतता छापता था जो आजतक हुए ही नहीं? विज्ञापन छापने में कभी कंजूसी से काम नहीं लिया। पूरे-पूरे पेज के सचित्र विज्ञापन देखकर ऐसा लगता था जैसे हम अखबार न पढ़कर किसी राजनैतिक पार्टी का घोषणापत्र पढ़ रहे हों। बिना मतलब के विज्ञापन देखकर रक्त्तचाप बढ़ने के कारण कई बार डॉक्टर के पास तक जाना पड़ा परन्तु इस जीवट अख़बार का फिर भी ग्राहक रहा। क्योंकि इसमें अखबार की कोई गलती थी ही नहीं। गलती तो मेरी थी कि मुझमें निरर्थक समाचार और बेमतलब के विज्ञापन पचाने की ताक़त नहीं थी तो अखबार को क्यों दोष दूँ?
कोरोना तेरा सत्यनाश हो। तूने इतने मज़बूत और जीवट अख़बार की हालत बिलकुल पतली कर दी। आज तूने इसे विशुद्ध समाचार छापने को मजबूर कर दिया। लॉकडाउन के कारण बंगाल के अलावा कहीं और हत्या, बलात्कार घटनाएँ नहीं हो रहीं तो अखबार चटपटापन कहाँ से लाए? नमक-मिर्च लगाकर पाठकों को क्या परोसे? बस बंगाल ने थोड़ा सा ऑक्सीज़न दे रखा है जिससे इसकी साँसें चल रही हैं।
जिस तरह हाइकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट लोगों के इलाज के लिए सरकारों को सख़्त निर्देश दे रहे हैं, उसी तरह मैं माननीय हाइकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट से गुजारिश करता हूँ कि अख़बारों की सेहत का भी ध्यान दें? नहीं तो बचारे विशुद्ध समाचार छापने के कारण अवसादग्रस्त हो जाएँगे। बीमारी लाइलाज हो इससे पहले कोई तो इनकी तऱफ ध्यान दो? कोई तो इसे विज्ञापन का पौष्टिक आहार दो। आहार भले ही ब्लैक में देना पड़े दो भाई? ताकि यह जीवित रह सके। नहीं तो भविष्य में खट्टी-मीठी, चटपटी, सनसनीखेज खबरों और विज्ञापनों के लिए तरसते रह जाओगे?
निवासी : नई दिल्ली
शिक्षा : एम.ए है।
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।
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