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आओ लौट चलें अपने गांव…

डॉ. ओम प्रकाश चौधरी
वाराणसी, काशी

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                                  चानक आज शाम को राम निहोर काका की याद आ गई, आए भी क्यों न, शाम को वर्षों तक किस्सा सुनाते जो आए थे। एक थे राजा, एक थी रानी (राजा ब्रिज व रानी सारंगा) से शुरू होकर, राजमहल से जंगल तक की सैर कराते थे, मिलन, विरह, श्रृंगार, करुण, वीर सभी रसों से सराबोर कर देते थे। कभी-कभी आकाश विचरण भी करा देते थे, चारपाई पर लेटे-लेटे ही, मैं और बड़े भाई-कम-बचपन से आज तक के जिगरी दोस्त डॉ सेवाराम चौधरी (अवकाश प्राप्त वरिष्ठ जेल अधीक्षक) हुंकारी भरते-भरते कब सो जाया करते थे, पता ही नहीं चलता था, मानों काका हम लोगों को सुलाने ही आते थे। आज राम निहोर काका चिर निद्रा में चिर शांति के लिए विलीन हो गए हैं, उनकी याद में आंख का कोना गीला हो जाना स्वाभाविक है। उन्हें परमात्मा शांति दें व अपने चरणों में स्थान। हम लोग उसी मैनुद्दीनपुर, (अम्बेडकरनगर) गांव से शहर आ गए और लॉकडाउन की सामयिक भाषा में प्रवासी हो गए। प्राथमिक विद्यालय में पट्टी के साथ दवात, सेंठा की कलम, कांख में बोरी, जिसपर बैठकर विद्यालय में पढ़ते थे, विद्यार्थी की पहचान होती थी। ऐसे ही गांवों में रहकर उसी टूटे-फूटे कच्चे या झोपड़ियों में चलने वाले प्राथमिक विद्यालयों में पढ-लिखकर बहुत से लोग अध्यापक, तहसीलदार, पुलिस अधिकारी, कलक्टर, गवर्नर बन गये। यहां तक तो ठीक रहा लेकिन वे शहर में गये तो वहीँ बस गये। यदि ज्यादा पढाई कर लिया तो विदेश में जाकर बस गए, लेकिन माता-पिता को गाँव में छोड़कर। शहर में बसने वालों की अपने मोहल्ले/कॉलोनी में ही कोई पहचान नहीं बन पाई। गाँव में तो टोला क्या पूरे १० किलोमीटर तक तो आज भी कुछ लोगों की पहचान बनी हुई है। लोग एक दूसरे के दुःख-सुख में बढ़ चढ़कर केवल भाग ही नहीं लेते हैं अपितु पूरा सहयोग भी करते हैं। जहां तक पहचान की बात है तो लोग किसी के घर का रास्ता पूछते थे कि भैया, दादा, चाचा हमें फलाने गाँव में फलाने के घर जाना है, रास्ता किधर से है? लोग तुरंत बता देते थे और आव भगत करने के बाद ही जाने देते थे, कई बार पहुंचा भी देते थे। इतना ही नहीं यदि काफी रात हो गयी रहती थी तो अपने घर पर ही रोक लेते थे। गाँव में कोई भूखा नहीं सोता था। आज भी कमोबेश यही हाल है। इसी आस और उम्मीद से कोरोना काल में लोग शहरों से जहां उनकी रोजी थी, उसे छोड़कर अपने गांव की ओर रुख किए। मुझे याद है किसी के यहां कोई रिश्तेदार आ जाता था तो जो कुछ नहीं रहता था वो पास-पड़ोस से उनकी सारी जरूरतें पूरी करती थीं, प्रायः यह कार्य घर की बुजुर्ग महिलाएं करती थी। आज भी कोई गाँव का व्यक्ति पितृपक्ष में गया, श्राद्ध कर्म हेतु जाता है तो सभी लोग कुछ रूपये देकर सहयोग करते हैं। किसी की मृत्यु हो जाती है तो लकड़ी व पचासों कफन लोग तो उनके मृत शरीर पर चढा देते हैं। कोई गरीब है तो उसकी पूरी क्रिया-कर्म में सहयोग करते हैं। आदमी क्या जानवरों के मरने पर भी दुआर करने जाते थे। हमने अपनी मां को देखा था, एक दिन सामने के गांव से आते देखकर मां से पूछ लिया, तो बताया कि फलाने की गाय मर गई थी, वहीं से आ रहे हैं। पहले तो शादी के समय भी सबके घर से खटिया, बिछौना, बर्तन अन्य आवश्यक चीजें मांगकर आ जाती थी (अपने गांव में बिस्तर व चारपाई बटोरने व बांटने का कार्य मेरे जिम्मे आता था)। पूरे गाँव के व पास-पड़ोस के लोग मिलकर भोजन बनाते थे, व अन्य कार्य कर लेते थे। पुरुष आटा गूंथने का काम बखूबी कर लेते थे, औरते अपना-अपना चौका-बेलना लेकर पूड़ी या रोटी बेलने आती थीं। अवसर के अनुकूल गीत गाकर सारे काम बहुत ही हर्ष और उल्लास के साथ करती थी, पूरे कार्य एक दूसरे के सहयोग से ही हो जाया करता था। उड़द-चावल छूने की साईत पंडितजी से पूछी जाती थी। सब कुछ एक दूसरे के सहयोग से किया जाता था। आज भी लाख दुश्मनी आपस में हो फिर भी एक दूसरे के सुख-दुःख में उसके दरवाजे पर जाते हैं। घास-फूस की झोपड़ी भी उसके लिये राजमहल है, हालांकि अब गावों में भी लगभग सभी के घर पक्के हो गए हैं। शादी-विवाह, मरनी में आज भी दूध-दही लोग पहुंचा जाते हैं। किन्तु समाज में परिवर्तन बहुत द्रुतगति से हो रहा है। यह सब कार्य अब ठेकेदारी पर होने लगा। तम्बू-कनात, डेरा वाले अब टेंट व्यवसाई हो गए, कैटरर्स अब अपनी पैठ बना लिए हैं, पानी का भी व्यवसाय हो गया है,जार में आने लगा, जो पहले बिल्कुल ही मुफ्त था, पूरे कूंएं में केवड़ा डाल दिया जाता था। अब तो अधिकतर शादियां बारात घर से होने लगी। कुछ वर्षों बाद बांस और सरपत का मांडव धरोहर हो जाएगी, हर्श और हेंगा (पाटा) बच्चे पूछेंगे कि यह क्या होता था। आधुनिकता हमारी संस्कृति को, सभ्यता को, रीति-रिवाज को, परम्परा को, धरोहर को निगलती जा रही है।
समय के साथ बहुत परिवर्तन हमारे गांव भी देख रहे हैं, गंवई संस्कृति में अब शहरों की कल्चर आ गई, परदेशियो (जो लोग गांव से शहर चले गए, उन्हें संबोधित किया जाता है) के माध्यम से, लेकिन अधकचरी, न पूरा शहरी न पूरा देहाती। किसी ने ठीक ही कहा है कि, ‘आ मेरे गाँव चलो-आ मेरे गाँव चलो, तुझे मैं घास-फूस की झोपड़ी में राजमहल दिखाऊँगा।’ धीरे-धीरे गांव की सूरत और सीरत दोनों बदल गए, बिजली की चकाचौंध, आवागमन हेतु सड़कें, मोटर कार, बाइक सभी कुछ तो बदल गया, हीरा-मोती की जगह, महेंद्रा, सोनालिका, आयशर ने ले लिया।रहट, पुरवट, कूड़-बरहा, सैर, ढेकुली, बेड़ी सब गायब, हजारों गैलन प्रति घंटे पानी उगलती बड़ी-बड़ी मोटरें, इंजन सभी सुलभ है। खाने-पहनने, रहन-सहन का ढंग, बसावट सभी कुछ बदल गया। अब वहां भी इंसान की इंसानियत से नहीं बल्कि उसका कद उसके पद से आंका जा रहा है।सामाजिक सरोकारों से हम अलग-थलग होते जा रहे हैं, सहयोग की भावना कमतर होती जा रही है। भौतिकता की चाहत, औद्योगिकरण, परिवर्तित समाज ने हमारी आवश्यकताओं को बढ़ा दिया है। दिखावा व प्रदर्शन की भावना बलवती हो गई है, इसी चक्कर में कितने लोग कर्ज के दर्द में डूब जा रहे हैं।
गावों में अधिकतर आबादी खेती-किसानी से जुड़ी हुई है। किन्तु अब वर्तमान समय में खेती करने वाले कम होते जा रहे हैं। कारण समय और श्रम अधिक है, आय उतनी नहीं है। एम एस पी पर किसान अपना अनाज बेच नहीं पा रहे हैं, बिचौलियों का बोलबाला हैं। हम स्वयं ३० नवंबर, २०२० से लगातार जिलाधिकारी, मा मुख्यमंत्री जी को पत्र भेजकर गुहार लगा रहे हैं लेकिन अब तक कोई सुनवाई नहीं हुई। धान अभी भी दरवाजे पर पड़ा है। यह स्थिति कमोवेश सभी किसानों को है। फिर भी पुरखों की जमीन है उससे बहुत ही अधिक लगाव है। फिर धरती को माता मानने वाले हम लोग, अभी भी अपने गांव-जवार से इतना ही जुड़ाव रखते हैं, जो वहां के लोगों का है, और उतना ही प्यार हम लोगों को भी मिलता है। जननी जन्मभूमि…गरीयसी और जन्म भूमि का मोह, अपने गांव के माटी कि सोंधी महक जिसमें लोट-लपेटकर हम बड़े हुए, उसे कैसे भूल सकते हैं। वो पेड़, वो रास्ते, वो तालाब, वो कुएं, वो नदी, वो बाग-बगीचे सभी अभी भी उतना ही आकर्षित करते हैं, जितने पहले थे। अभी भी वहां अपनापन है, लगाव है, जुड़ाव है, संवेदना है, सहयोग है। गांधीजी कहते थे कि भारत गांवों में बसता है, वास्तव में वह सही ही है। गांव से नाता जोड़ो-भारत जोड़ो। पावन धरा को नमन।

परिचय :- डॉ. ओम प्रकाश चौधरी
निवासी : वाराणसी, काशी
शिक्षा : एम ए; पी एच डी (मनोविज्ञान)
सम्प्रति : एसोसिएट प्रोफेसर व विभागाध्यक्ष, मनोविज्ञान विभाग श्री अग्रसेन कन्या स्वायत्तशासी पी जी कॉलेज
लेखन व प्रकाशन : कुछ आलेख समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में प्रकाशित,आकाशवाणी से भी वार्ता प्रसारित।
शोध प्रबंध, भारतीय समाज विज्ञान अनुसंधान परिषद दिल्ली के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित। शोध पत्र का समय समय पर प्रकाशन, एवम पुस्तकों में पाठ लेखन सहित ३ पुस्तकें प्रकाशित।
पर्यावरण में विशेषकर वृक्षारोपण में रुचि। गाँधी पीस फाउंडेशन, नेपाल से ‘पर्यावरण योद्धा सम्मान’ प्राप्त।

घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है।


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