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रंगबिरंगी

विश्वनाथ शिरढोणकर
इंदौर म.प्र.
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मंच पर से वक्ता बोल रहा था। अचानक वह बोलते बोलते रुक गया। सबसे अंतिम पंक्ति की ओर उसने टेढ़ी नजरों से देखा, एक क्षण देखता रहा और फिर विषय से हट कर बोला, “मुझे ऐसा लगता हैं कि अंतिम पंक्ति में बैठे हुए चारों सज्जन अगर मेरी बात शांति से सुने तो बेहतर होगा, इससे वें भी मेरी बात ठीक से समझ सकेंगे और दूसरों को भी कोई परेशानी नहीं होगी और वें सब भी शांति से मेरी बात सुन सकेंगे। आखिर हम लोग सेवानिवृत्ति के पश्चात् आने वाली समस्याओं पर ही तो चर्चा कर रहें हैं, और यह सबके भले के लिए ही तो हैं।“

वें चारों सकपका गए, फिर मुस्करा दिए और गर्दन हिला कर शांति से भाषण सुनने का वक्ता को आश्वासन दिया। वक्ता फिर से विषय पर बोलने लगा। परन्तु उन चारों की हरकते बदस्तूर जारी थी। इन अभिन्न मित्रों की शरारती चौकड़ी अनेक वर्षों के उपरान्त एकत्रित हुई थी और जिगरी दोस्तों की यह चौकड़ी सेवानिवृत्ति के पश्चात सिर्फ एक दूसरे से मिलने के लिए ही इस संमेलन में आई थी।

“मैं कह नहीं रहा था तुमसे कि चुपचाप बैठों?“ इनमें से एक चिंटू अर्थात गणेशशंकर अय्यर मद्रासी ने अपने मित्र रामू से कहा I “मैं नहीं ! ये वाहियात अली जोर-जोर से बोल रहा थाI“ रामू अर्थात रमाशंकर अवस्थी ने जवाब दिया I
“फिर मुझे वाहियात अली कहा I “वाहिदअली ने रामू की पीठ पर धौल जमाया, “मेरा नाम वाहिद अली हैं I सबके सामने वाहियात अली नहीं कहने का I“ वाहिद अली ने गुस्से से कहा I
“मतलब अकेले में कह सकता हूँI“ रामू हसते हुए बोलाI
“शरम नहीं आती वाहियातअली कहते हुए? हम सब बूढ़े हो गए हैं अब I“
“सब नहीं I सिर्फ तुम तीनों I मैं तो अभी भी सरदार हूँ I सरदार अमरीकसिंह I ओये सुनो ! सरदार कभी बूढा नहीं होता I “सरदार अमरीकसिंह ने कहा I
“सच हैं I तभी तू पचास के बाद बाप बना हैं I “चिंटू ने कहाँ , चिंटू के इतना कहते ही सारे फिर जोर से हस पड़े I
वक्ता ने मंच से एक बार फिर इन चारों की ओर नाराजी से देखा I वाहिदअली ने चिंटू की पीठ पर धौल जमाया, “खामोश रहों I वो हमारी ओर ही देख रहा हैं, क्या बोलना हैं वहीँ भूल जाएगा, इसलिए कहता हूँ खामोश बैठो I“
इतने में वक्ता की किसी बात पर हॉल तालियों से गूँज उठा I यह देख कर अमरीकसिंह भी तालियाँ बजाने लगा I वक्ता ने क्या कहाँ यह बाकी तीनों समझने का प्रयत्न कर रहे थे I अमरीकसिंह को बड़ी देर तक तालियाँ बजाते देख चिंटू बोला, “अब बस करो I सब रुक गए हैं तालियाँ बजाने से I तुम्हारी यही आदत …. यही आदत अभी भी नहीं गयी I“
“कौनसी ?“ अमरीकसिंह ने पूछा I
“तुम्हें जब कुछ भी समझ में नहीं आता तब तुम तालियाँ बजाने लगते हों I“
अमरीकसिंह शरमाया I
“अब जब तक मैं ना कहूँ , तालियाँ नहीं बजाना I समझे ?“ चिंटू ने ताकीद ही करदी और इस पर सब एक बार फिर हंस पड़े I “सुनो, चाय पीने चले ? वैसे भी इसका भाषण लम्बा और उबाऊ हो चला हैं I“ अमरीकसिंह बोला I
“ओ.के.“ चिंटू बोला, वैसे भी तुम्हें इसका भाषण कुछ भी समझ में नहीं आएगा और हमें कई दिन लग जाएंगे तुम्हें समझाने में तो फिर चाय ही ठीक रहेगी I“
एक-एक कर के चारों उठकर बाहर आ गए और नजदीक के ही एक रेस्ट्रारेंट में जा कर बैठ गए I
“क्यों रामू अब कैसी तबियत हैं तुम्हारी ?“ वाहिदअली ने पूछा I वाहिदअली के रामू से यह पूछतेही सभी मित्र गंभीर हो गए I रमाशंकर अवस्थी की पत्नि विवाह के दस वर्ष बाद ही चल बसी थी I एक बेटी थी I बेटी की देखभाल ठीक से हो सके इस के लिए रमाशंकर अवस्थीने दूसरा विवाह नहीं किया, परन्तु अब बेटी का विवाह हो गया था और वह पिछले कई वर्षों से अमेरिका में ही स्थायी हो गयी थी I अब इस ६५ साल की उम्र में रमाशंकर अवस्थी अकेले ही जीवन गुजार रहा था I मधुमेह और ब्लडप्रेशर के अलावा रामू का बायपास ऑपरेशन भी हो चूका था I बिमारी और कमजोरी के कारण रामू को जीवन में निराशा ने घेर लिया था I अपने गिरते स्वास्थ को देखते हुए रामूने ही सब मित्रों से फोन कर, एक बार मिलने की इच्छा व्यक्त की थी और इसीलिए सभी मित्र यहाँ इस संमेलन के बहाने इक्कट्ठे हुए थे I अपनी चालीस वर्षों से भी ज्यादा की मैत्री के पुराने दिनों को याद करते हुए बीते एक दिन से यहाँ संमेलन में हंसीठिठोली कर रहे थे I
वाहिदअली ने एक बार फिर रामू से पुछा, “अरे भाई कैसी तबियत हैं तुम्हारी ? कुछ बोलो ना ? दवाई वगैरे ठीक से ले रहों ना ?“ “कैसे होगी ?“ रामू ने उलटे वाहिदअली से ही प्रश्न किया, “अकेले की गृहस्थी I बिटियां हमेशा अमेरिका में आने की रट लगा रही हैं, वैसे हो के भी आया दो बार I पर मुझे बताओं क्या करूंगा उस पराए देश में ? बेटी हैं तो वो अपनी गृहस्थी में व्यस्त रहती हैं I उसे क्यों बार-बार बिना कारण तकलीफ दें? अब उस पराए देश में अपना कोई परिचित ही नहीं हैं तो वहां स्थायी रहकर क्यां करेंगे ? यहाँ अपने देश में आप भले, हम भले और हमारा देश भला I मरने के बाद कम से कम तुम यारों का कान्धा तो मिलेगा I वहां मिलेगा क्या तुम लोगों का कान्धा?“

“हाँ ! जरुर मिलेगा “ चिंटू बोला, “चिंता मत करों हम इंटरनेट से भेज देंगे I“ फिर से चारों जोर से हंस पड़े I
“अब तुम यहाँ से वापस बंगलौरु नहीं जाना, और वहां अकेले रहने की भी जरूरत नहीं I मेरे साथ चलों, अब तुम मेरे साथ मेरे घर में ही रहोगे I इस बिमारी की हालत में मैं तुम्हें अकेले नहीं रहने दे सकता I“ चिंटू बोला I
“तुम्हारे यहाँ अकेला आकर ये क्या करेगा? सिर्फ कबाब में हड्डी I तुम दोनों की राजारानी की गृहस्थी, इस बूढ़े को गोद लेने वाले हो क्या ?“ अमरीकसिंह ने चिंटू से पूछा और सब मित्र एक बार फिर जोर से हंस पड़े I

गणेश शंकर अय्यर हँसते हँसते गंभीर हो गया I उसकी हँसी मानों एक पल के लिए ही थी I बोला, “मेरा जाने दो, मुझे मेरी चिंता नहीं हैं I पर तुम्हारी भाभी बहुत चिडचिडी हो गयी हैं I हम लोगों को बच्चा नहीं हो सका इसलिए उसकी मानसिक हालत ठीक नहीं रहती, हमेशा बच्चें के बारे में ही सोचती रहती हैं I हम दोनों की भी अब उम्र हो गयी हैं और इस बुढापे में पत्नी को सम्हालते सम्हालते मैं खुद कई बार अस्वस्थ हो जाता हूँ I इस उम्र में उसकी जिद हैं बच्चा गोद लेने की परन्तु उसका मन रखने के लिए कहें या उसकी तबियत के लिए कहें पर अब इस उम्र में तो किसी बच्चे को गोद नहीं लिया जा सकता ना? अब तो बहुत देर हो चुकी हैं I हमारी भी ऐसी कितनी सी जिन्दगी बची हैं? और अब अगर किसी बच्चें को गोद लेते हैं तो उसको ठीक से कैसे सम्हाल पायेंगे? हमारे बाद कौन उसे सम्हालेगा? क्या होगा उस बच्चें का? क्या करूँ यह समझ में नहीं आता I घर हैं, सारी सुविधाएँ हैं, रूपया पैसा हैं, पर सब बेकार और व्यर्थ लगता हैं I “चिंटू की ऑंखें भीग गयी I

“ए … चिंटू… मुझे माफ़ कर यार I“ अमरीकसिंह ने कहा, “मुझे ऐसा नहीं कहना था I मेरी मंशा तुम्हें दु:ख पहुँचाने की कतई नहीं थी I“ सरदार अमरीकसिंह भी अब गंभीर हो गया था और लगातार अपनी दाढ़ी पर हाथ फेर रहा था I क्या कहें यह उसे समझ में ही नहीं आ रहा था I मित्रमंडली में रामू की बिमारी की ही एक चिंता थी, पर अब चिंटू के निपुत्रिक होने और उसकी पत्नी की बेहद खराब मानसिक हालत के लिए भी चिंता व्याप्त हो चुकी थी I यह वेदना सभी को तीव्रता से महसूस भी हो रही थी I थोड़ी देर तक वातावरण में ऐसी ही गंभीरता छायी रही फिर अचानक चिंटू ही बोल पडा, “आश्चर्य हैं …. आश्चर्य ही हैं I“
सब ने एक स्वर में पूछा, “क्या?“
“अरे हमारा अमरीकसिंह भी गंभीरतापूर्वक सोच सकता हैं I“ एक बार फिर से सब को हंसी आगयी और ये चारों मसखरे जोर से हंस पड़े I सरदार अमरीकसिंह का उसकी दाढ़ी पर हाथ फेरना कब का बंद हो चुका था I
“नहीं , पर अब तुम अकेले कतई मत रहों I“ चिंटू ने रामू से कहाँ, “तुम्हें याद हैं हमें नोकरी मिलने पर हम दोनों ने एक ही कमरा लिया था किराये से और दोनों मिलकर ही खाना बनाते थे, खूब फ़िल्में देखते, धमाल करतें I कितने अच्छे दिन थे I उन दिनों नोकरी एक जगह, रहना भी एक जगह I चौबीस घंटों का साथ था I अब फिर से उसी तरह से दिन गुजारेंगे I

रामू पुरानी यादों में खो गया, “हाँ वो भी क्या दिन थे I काश वे दिन फिर से लौट सकते? चिंटू, तुम्हें याद हैं मुझे टायफाइड हो गया था तब तुम कितने परेशान हो गए थे I वो डॉक्टर को बुलाना, वो मेरी सेवा करना, मुझे फल खिलाना, सब …. सब मुझे याद हैं I“

“मुझे अच्छी तरह से याद हैं I कुछ भी भूला नहीं हूँ मैं I तुम्हें तेज बुखार था और मम्मी ….मम्मी …पापा ….पापा …की तुम्हारी रट बंद ही नहीं हो रही थी I मैं भी घबरा गया था I तुम घर जाने को तैयार ही नहीं थे और मुझे तुम्हारे घर पत्र लिखकर खबर भी नहीं करने दे रहें थे I तुम्हें यह डर सता रहा था कि तुम्हारे मम्मी पापा घर से इतनी दूर लगी लगायी तुम्हारी नौकरी छुडवादेंगे I आखिर तुम्हारा बुखार उतरता ना देख कर चार दिन बाद मैं ही जबरन तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ कर आ गया था I रामू, जैसे उन दिनों मैंने तुम्हारी देखभाल की थी वैसे ही अब भी करूंगा रे I वैसे तुम्हारी भाभी भी बहुत अच्छे स्वभाव की ही हैं, करेगी देखभाल हम दो बच्चों की I“

“दो की ही क्यों? तीन की क्यों नहीं?“ वाहिदअली बीच में ही बोल पडा, “अरे , मैं भी तो अकेला ही हूँ ना? फिर मैं भी आता हूँ तुम दोनों के साथ I मुझे तो पूछ ही नहीं रहे हो I“
“ए ! वाहियात अली तेरी क्या जरुरत हैं वहां ?“ अमरीकसिंह ने छेड़ा और वाहिदअली नाराज हो गया, “फिर वाहियातअली? पिछले चालीस साल से बता रहां हूँ कि मेरा नाम वाहिदअली हैं, पर तू ठहरा निरा मूरख I सुधरने का नाम ही नहीं लेता I तूने ही मेरा नाम सब जगह बिगाड़ कर रखा हैं, अब मैं तुझे नहीं छोडूंगा I“
“क्या करेगा अब इस बुढापे में तू? ले तू भी बिगाड़ दें मेरा नाम? बस हो गया? नहीं मैं तो कहता हूँ तू मेरा दसटोन (नामकरण संस्कार) ही कर डाल नए से I“ अमरीकसिंह बोला और मंडली ने एक बार फिर जोर से ठहाके लगाए I

वाहिदअली झेंप गया I अमरीकसिंह बोला, “जाने दे रे छोड़ सब, पर मुझे यह बता तू चिंटू के यहाँ जा कर क्या करेगा? तेरी तो बेटी तेरे साथ रह रहीं हैं I फिर?“
वाहिदअली का विषय निकलते ही सब मित्रमंडली गंभीर हो गयी I वाहिदअली उदास हो गया I
“अल्ला ने मेरे नसीब में मालूम नहीं क्या लिख कर रखा हैं?“ वाहिदअली ने कहा I
“क्यों क्या हुआ? “ रामू ने पूछा I
“तुम सब को तो मालूम ही हैं कि मेरी बीबी ने अर्थात वहिदा ने खुद को जला कर आत्महत्या कर ली थी I“ वाहिदअली कह रहा था, “हम दोनों में झगडे की वजह मेरा मेरे छोटे भाई-बहनों का ज्यादा ख्याल रखना होता और भाईबहनों की जरूरतें पूरी करना होता I हर बात में अम्मी और अब्बू को तवज्जो देना भी उसे पसंद नहीं होता था I अब्बू की तो एक छोटी सी सायकल मरम्मत की दूकान ही थी और उससे पूरे घर का गुजारा होना संभव ही नहीं था I उस पर अम्मी हमेशा ही बीमार रहती थी I हम सब की परवरिश करते करते अब्बू के ऊपर कर्जे का भी बहुत बड़ा बोझा हो गया था I इसलिए मुझे जब नोकरी लगी तो मैं घर की जरूरतें पूरी करने लगा और यहीं बात वहीदा को पसंद नहीं थी I वह अपनी अलग गृहस्थी चाहती थी और जब तक छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी से मैं बंधा था मुझे उसकी यह इच्छा पूरी करना संभव नहीं था I छोटे भाई की पढ़ाई पूरी होना और छोटी बहन का निकाह, ये दो काम ऐसे थे कि वहीदा की ख्वाइश पूरी करना मेरे लिए संभव ही नहीं था I रोज घर में झगडे होते थे I फिर भी मैं सम्हालने की कोशिश करता I ऐसे ही एक बार मेरी गैरहाजरी में अम्मी के साथ वहीदा का झगडा बहुत बढ़ गया और गुस्से में वहीदाने अपने पल्लू को स्टोव से सुलगा लिया I आग इतनी जल्दी भड़की कि किसी को उसे बचाने का मौका ही नहीं मिला I सारे रिश्तेदारों ने मुझे ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराया कि मैंने दहेज़ के लिए अपनी बीबी को जलाकर मार डाला I वहीदा के मायकेवालों ने मेरे ऊपर केस भी किया और बड़ी मुश्किल से मैं उसमें से निकल पाया I यह सारी बदनामियाँ और परेशानी झेलते-झेलते मेरा जीना तो दूभर हो ही गया था, पर अम्मी-अब्बू और छोटे भाई-बहन की हालत भी कुछ अलग नहीं थी I अब इन सब बातों को तीस बरस से ज्यादा हो गए, पर उस वक्त अब्बू ने मेरे दूसरे निकाह के लिए बहुत कोशिश की I बाद में स्थिति सामान्य होने के बाद बहुत से रिश्ते भी आये पर मैं ही मना करता रहा I अब्बू-अम्मी का कहना था कि इस्लाम में चार निकाह किये जा सकते हैं, मेरा तो अभी एक ही निकाह हुआ हैं और उम्र भी हैं निकाह की I वहीदा से मैं बेइन्तहा मोहब्बत करता था और जब भी निकाह का विचार मन में आता, हर बार वहीदा का चेहरा मेरे सामने आ जाता I ऐसा लगता जैसे वह मुझसे कुछ मांग रही हैं I आज इतने साल के बाद भी वहीदा का चेहरा मैं भूला नहीं पाता I“
वाहिदअली बता रहा था और दोस्तों के कलेजे पर आघात हो रहा था I वाहिदअली के कंधे पर सात्वना का हाथ रख कर रामू बोला, “जाने दे रे … जो बीत गया सो बीत गया ….हमारे नसीब में जो लिखा हैं उसे कोई नहीं बदल सकता I पर अब इन सब बातों से क्या फायदा ? तुम्हारी तो एक बेटी हैं ना, उसकी ओर देखों I नयी उम्मीदों के साथ जीने की राह मिलेगी तुम्हें I चिंता मत कर हम सब भी तुम्हारे साथ हैं I“

“अब उसीका तो गम हैं I“ वाहिदअली बोला, “वहीदा की आत्महत्या के बाद हमें कहीं भी मुंह दिखाने की जगह नहीं बची थी I वहीदा गयी तब ज़ीनत चार साल की थी I वहीदाके साथ ही ज़ीनत भी घर में सबकी लाडली थी I वहीदा मुझसे हमेशा कहती थी कि उसे ज़ीनत को खूब पढ़ाना हैं, उसे अपने पैरों पर खड़ा होते देखना चाहती हैं वह, ताकि उसे औरत की लाचार जिन्दगी से आजादी मिल सके I खूब पढ़ी ज़ीनत I अब चौतीस साल की हैं I पर ज़ीनत का अभी तक निकाह नहीं हो सका हैं I यही गम हैं मुझे I“
“पर क्यों …..?“ रामू ने पुछा I
“ज़ीनत पढ़ाई में बहुत अव्वल थी I“ वाहिदअली बताने लगा, “मदरसे में वह हमेशा सबसे आगे रहती I मैं तो नोकरी की वजह से हमेशा बाहर ही रहता था और ज़ीनत को अम्मी अब्बू के पास छोड़ मैं बेफिक्र भी था I अम्मी अब्बू भी उसका बहुत ख्याल रखते I पर ज़ीनत जैसेजैसे बड़ी होती गयी, बाहर के लोगों के संपर्क में आने से वह वहीदा की आत्महत्या के लिए मुझे ही कसूरवार समझने लगी और उसके दिल में मेरे लिए एक नफ़रत सी पनपती गयी I आगे छठी कक्षा में उसे मदरसा छोड़ना पड़ा और सरकारी स्कूल में उसने ‘संस्कृत‘ यह ऐच्छिक विषय ले लिया और उसे संस्कृत भाषा से लगाव हो गया I शुरू-शुरू में हमने इसे उसका बचपना समझ कर ध्यान नहीं दिया I अब्बू उसकी तारीफ़ करते परन्तु अम्मी उसकी संस्कृत पढ़ाई के लिए नाराज होने लगी, उसे डांटती परन्तु वह अम्मी को कुरआन की आयते पढ़ कर सुनाती और अम्मी का दिल जीत लेती I पर धीरे-धीरे उसके संस्कृत पढ़ाई की बात सब जगह फ़ैल गयी और मदरसों से, मसजिदों से उसकी संस्कृत पढ़ाई के विरोध की बात सामने आने लगी I मोहल्ले में सब उसे नफरत भरी निगाहों से देखने लगे I परन्तु इस खिलाफत से ज़ीनत की संस्कृत सिखने की जिद और बढती गयी I मैं तो बाहर रहता था पर अम्मी अब्बू का जीना मुश्किल हो गया था I आगे उसने संस्कृत में एम.ए. किया और पीएचडी भी कर लीI“
“अरे पर इसमें बुराई क्या हैं? यह तो बहुत ही अच्छी बात हैं I“ चिंटू बोला I

“बुराई कुछ भी नहीं ऐसा तुम समझ रहे हो I पर हमारे समाज में संस्कृत सिखना और सिखाना यह हजम होने जैसा नहीं था I वहिदा की आत्महत्या का मामला बार-बार उठा कर अब ज़ीनत को भी संस्कृत के लिए ताने मिलने लगे थे, और इसका उसके मन पर कुछ ऐसा प्रभाव पडा कि उसकी मेरे प्रति नफ़रत बढती गयी I इन सब बेइज्जती को दरकिनार कर ज़ीनत ने एक कॉलेज में संस्कृत पढ़ाने की नोकरी प्राप्त कर ली I बहुत जल्द ही प्रोफ़ेसर के पद तक पहुँच गयी और इतना ही नहीं संस्कृत भाषा के अनेक ग्रंथों का उसने उर्दू में अनुवाद किया, और दो बार विश्व संस्कृत संमेलन में जर्मनी भी शिरकत कर के आई हैं I“
“यह तो सब अच्छा ही है ?“ रामू बोला I
“हाँ I पर हमारे समाज ने ज़ीनत को ताने मारना बंद नहीं किया I कट्टरपंथी हमेशा उसके पीछे पड़े रहते थे और उन लोगों ने उसका जीना दूभर कर दिया I एक तरह से ज़ीनत के संकृत पढ़ाने के कारण हमारा हुक्कापानी जैसे बंद कर दिया हो I इसीलिए इसी संस्कृत प्रेम के कारण मेरी ज़ीनत का अब तक निकाह नहीं हो पाय। “ वाहिदअली कह रहा था I
“क्या?“ सब को आश्चर्य का धक्का पहुंचा I
शुरवात में कहाँ गया कि हमारे घर में वहीदा ने आत्महत्या की थी इसलिए किसी को हमारे घर में रिश्ते नहीं करना इसलिए ज़ीनत के लिए कोई रिश्ता नहीं आया I फिर कहाँ गया कि संस्कृत भाषा मजहब के खिलाफ हैं और जो संस्कृत पढ़ा रही हैं उसे मजहब के खिलाफ माना गया इसलिए दिखने में सुन्दर होने के बावजूद ज़ीनत के लिए अच्छा रिश्ता आना ही बंद हो गया I हमारे यहाँ शिक्षण भी कम ही हैं, ऐसे में मैं अपनी उच्चशिक्षित बेटी को किसी के भी गले में कैसे क्या बाँध सकता था?“ वाहिदअली बता रहा था और सभी ख़ामोशी से सुन रहें थे I कॉलेज में पढ़ते हुए ही संस्कृत पढने वाले कर्मकांडी सनातन ब्राह्मण परिवार के एक सहपाठी से ज़ीनत का प्रेम हो गया I वह लड़का भी ज़ीनत से बेइंतहा मोहब्बत करने लगा था I दोनों ही बच्चें एक दूसरे के साथ जीने मरने की कसमें ले बैठे I अब हमारे परिवार पर यह एक और नयी मुसीबत आन पड़ी थी I वहीदा की आत्महत्या के बाद हमारे जिन रिश्तेदारों ने हमारा बहिष्कार कर रखा था वें ही लोग खुले आम हमें धमकाने लगे कि एक हिन्दू लड़के से ज़ीनत का निकाह नहीं होने देंगे I
ज़ीनत के साथ ही हम सब का जीना मुश्किलात भरा हो गया I अब्बू अम्मी को ही सब का सामना करना पड़ता था I अब्बू ने ज़ीनत को समझाया, “हमारे यहाँ किसी भी मजहब की लड़की से निकाह हो सकता हैं पर हमारे यहाँ की लड़कियां किसी दूसरे मजहब के लड़के से निकाह नहीं कर सकती I हम बहुत ही साधारण परिवार से हैं, समाज की खिलाफत नही कर सकते I “परन्तु ज़ीनत अड़ गयी I आखिर अब्बू ने एक कठोर फैसला लिया और ज़ीनत को बताया, “निकाह करना हैं तो हमारे मजहब के लड़के से ही I“ अब उस उम्र का ही कमाल था ज़ीनत अड़ गयी की निकाह करेगी तो उसी लड़के से I उसने अब्बू को चुनौती ही दे डाली कि उनके मजहब का कोई उससे ज्यादा पढ़ा लिखा लड़का अगर वो ढूंढ कर ला सके तो वह अपने फैसले पर फिर से विचार कर सकती हैं I

अब्बूने बचपन से ही ज़ीनतको सम्हाला था। नौकरी के कारण मैं तो अक्सर हमेशा बाहर ही रहता था। अब्बू-अम्मीकी बहुत लाडली थी ज़ीनत और ज़ीनत को भी मुझसे ज्यादा उनका ही सहारा उनको ही चाहती भी थी वो था I अब अम्मी नहीं और अब्बू भी नहीं हैं, और मेरी बदनसीबी देखों ज़ीनत मुझे उसकी माँ की आत्मह्त्या के लिए जिम्मेदार मानती हैं I मैं हमेशा ही बाहर रहा इस कारण मुझमें और ज़ीनत में वह अपनापन और एक लगाव सा पनप नहीं पाया I अब तो ज़ीनत मुझसे नफरत भी करने लगी हैं I हम साथ साथ रहते हैं पर हममें बोलचाल ना के बराबर हैंI ज़ीनत का इन्तजार कर अब तो उस लड़के ने भी विवाह कर लिया हैं Iज़ीनत अब बिलकुल अकेली पड गयी हैं और निराश भी हो गयी हैं I उसने खुद को संस्कृत भाषा के शोध में अपने आप को व्यस्त कर लिया हैं I मेरी ज़ीनत को कौन समझाएगा? सब कैसे बिखर सा गया हैं I आखिर मैं और ज़ीनत अब किसके लिए जिए?” वाहिदअली की आँखों से सर दो आंसू गालों पर से बहकर बाहर आगए I

रामूने वाहिदअली के कंधे पर हाथ रख कर उसे सांत्वना दी, ‘जाने दे रे ! अब इस उम्र में रोने का काम नहीं I खुद भी नहीं रोना और दूसरों को भी नहीं रुलाना I सब ठीक होगा I देर से ही सहीं ज़ीनत को भी एक दिन बाप के प्यार का एहसास जरुर होगा I समय का सिर्फ इन्तजार करने के अलावा हमारे हाथ में कुछ भी नहीं हैं I सिर्फ समय का इंतजार समझ में आ जाएगा I ‘खुद की बेटी की याद से रामू की आंखें भी भीग गयी ‘

थोड़ी देर नि:शब्द शांतता थी I किसी के भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोला जाय? फिर अचानक चिंटू उठ कर खड़ा हो गया, ‘ए ! चलों … बहुत देर हो गयी हैं, वहां सब खाना खत्म हो जाएगा I’

सब शरारती चौकड़ी धीरे-धीरे हॉटेल से बाहर आ गये I

सम्मेलन में, भोजन के बाद की सभा में ये चारो शरारती बूढ़े, फिर से आखरी पंक्ति में बैठे हंसी ठिठोली कर रहे थे I चिंटू, सरदार अमरीकसिंह को धमका रहा था, जब तक मैं ना कहूं तुम ताली नहीं बजाओगे I’

परिचय : विश्वनाथ शिरढोणकर इंदौर म.प्र.
इंदौर निवासी साहित्यकार विश्वनाथ शिरढोणकर का जन्म सन १९४७ में हुआ आपने साहित्य सेवा सन १९६३ से हिंदी में शुरू की। उन दिनों इंदौर से प्रकाशित दैनिक, ‘नई दुनिया’ में आपके बहुत सारे लेख, कहानियाँ और कविताऍ प्रकाशित हुई। खुद के लेखन के अतिरिक्त उन दिनों मराठी के प्रसिध्द लेखकों, यदुनाथ थत्ते, राजा-राजवाड़े, वि. आ. बुवा, इंद्रायणी सावकार, रमेश मंत्री आदि की रचनाओं का मराठी से किया हुआ हिंदी अनुवाद भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। इंदौर से ही प्रकाशित श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति की प्रसिध्द मासिक पत्रिका ‘वीणा’ में आपके द्वारा लिखित कहानियों का प्रकाशन हुआ। आपकी और भी उपलब्धियां रही जैसे आगरा से प्रकाशित ‘नोंकझोंक’, इंदौर से प्रकाशित, ‘आरती’ में कहानियों का प्रकाशन। आकाशवाणी इंदौर तथा आकाशवाणी भोपाल एवं विविध भारती के ‘हवा महल’ कार्यक्रमों में नाटको का प्रसारण। ‘नईदुनिया’ के दीपावली – २०११ के अंक में कहानी का प्रकाशन। उज्जैन से प्रकाशित, “शब्द प्रवाह” काव्य संकलन – २०१३ में कविता प्रकाशन। बेलगांव, कर्नाटक से प्रकाशित काव्य संकलन, “क्योकि हम जिन्दा है” में गजलों का प्रकाशन। फेसबुक पर २०० से अधिक हिंदी कविताएँ विभिन्न साहित्यिक समूहों पर पोस्ट। उपन्यास, “मैं था मैं नहीं था” का फरवरी – २०१९ में पुणे से प्रकाशन एवं काव्य संग्रह “उजास की पैरवी” का अगस्त २०१८ में इंदौर सेर प्रकाशन। रवीना प्रकाशन, दिल्ली से २०१९ में एक हिंदी कथासंग्रह, “हजार मुंह का रावण” का प्रकाशन लोकापर्ण की राह पर है।
वहीँ मराठी में इंदौर से प्रकाशित, ‘समाज चिंतन’, ‘श्री सर्वोत्तम’, साप्ताहिक ‘मी मराठी’ बाल मासिक, ‘देव पुत्र’ आदि के दीपावली अंको सहित अनेक अंको में नियमित प्रकाशन। मुंबई से प्रकाशित, ‘अक्षर संवेदना’ (दीपावली – २०११) तथा ‘रंग श्रेयाली’ (दीपावली २०१२ तथा दीपावली २०१३), कोल्हापुर से प्रकाशित, ‘साहित्य सहयोग’ (दीपावली २०१३), पुणे से प्रकाशित, ‘काव्य दीप’, ‘सत्याग्रही एक विचारधारा’, ‘माझी वाहिनी’,”चपराक” दीपावली – २०१३ अंक, इत्यादि में कथा, कविता, एवं ललित लेखों का नियमित प्रकाशन। अभी तक ५० कहानियाँ, ५० से अधिक कविताएँ व् १०० से अधिक ललित लेखों का प्रकाशनI फेसबुक पर हिंदी/मराठी के ५० से भी अधिक साहित्यिक समूहों में सक्रिय सदस्यता। मराठी कविता विश्व के, ई – दीपावली २०१३ के अंक में कविता प्रकाशित।
एक ही विषय पर लिखी १२ कविताऍ और उन्ही विषयों पर लिखी १२ कथाओं का अनूठा काव्यकथा संग्रह, ‘कविता सांगे कथा’ का वर्ष २०१० में इंदौर से प्रकाशन। वर्ष २०१२ में एक कथा संग्रह, ‘व्यवस्थेचा ईश्वर’ तथा एक ललित लेख संग्रह, ‘नेते पेरावे नेते उगवावे’ का पुणे से प्रकाशन। जनवरी – २०१४ में एक काव्य संग्रह ‘फेसबुकच्या सावलीत’ का इंदौर से प्रकाशन। जुलाई २०१५ में पुणे से मराठी काव्य संग्रह, “विहान” का प्रकाशन। २०१६ में उपन्यास ‘मी होतो मी नव्हतो’ का प्रकाशन , एवं २०१७ में’ मध्य प्रदेश आणि मराठी अस्मिता” का प्रकाशन, मध्य प्रदेश मराठी साहित्य संघ भोपाल द्वारा मध्य प्रदेश के आज तक के कवियों का प्रतिनिधिक काव्य संकलन, “मध्य प्रदेशातील मराठी कविता” में कविता का प्रकाशन। अभी तक मराठी में कुल दस पुस्तकों का प्रकाशन।
८६ वे अखिल भारतीय मराठी साहित्य सम्मेलन, चंद्रपुर (महाराष्ट्र) में आमंत्रित कवि के रूप में सहभाग। पुस्तकों में मराठी में एक काव्य संग्रह, ‘बिन चेहऱ्याचा माणूस खास’ को इंदौर के महाराष्ट्र साहित्य सभा का २००८ का प्रतिष्ठित ‘तात्या साहेब सरवटे’ शारदोतस्व पुरस्कार प्राप्त। राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच इंदौर म. प्र. (hindirakshak.com) द्वारा हिंदी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान, मराठी काव्य संग्रह “फेसबुक च्या सावलीत” को २०१७ में आपले वाचनालय, इंदौर का वसंत सन्मान प्राप्त। २०१९ में युवा साहित्यिक मंच, दिल्ली द्वारा गैर हिंदी भाषी हिंदी लेखक का, बाबूराव पराड़कर स्मृति सन्मान वर्ष २०१९ हेतु प्राप्त। दिल्ली, इंदौर, भोपाल, ग्वालियर, इटारसी, बुरहानपुर, पुणे, शिरूर, बड़ोदा, ठाणे इत्यादि जगह काव्यसंमेलन, साहित्य संमेलन एवं व्याख्यान में सहभागीता। 


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