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बचपन

मनीष कुमार सिहारे
बालोद, (छत्तीसगढ़)
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ना कुछ पाने का शौक था
ना कुछ खोने का गम था
बिना कपड़ा के तन था
मिट्टी से सना बदन था
मां के हाथों में डंडा
कंचा से जेबें तन (तन्यता) था
घर में सबका लाडला मै
फिर भी मैं अतलंग था
बालपन में ऐसे जैसे
उड़े गगन पतंग था
ना चिंता, ना फिकर किसी का
ना खोया किसी में मन था
कुछ ऐसा मेरा बचपन था
कुछ ऐसा मेरा बचपन था

ना कोई छल कपट
ना मित्रों में फरेब था
मित्रता की एक डोरी
बगावत टोली समेत था
विद्यालय की वेश भूषा
मां पहनाएं शर्ट सफेद था
वापसी की संध्या बेला
वही शर्ट बलेक (धूल धूल) था
मित्रों के साथ में दूर
घर से मन मलंग था
फिर मां की पूजा-आरती से
लाल लाल बदन था
कुछ ऐसा मेरा बचपन था
कुछ ऐसा मेरा बचपन था

ना थिरकते पांव जमीं पर
ना थिरकते आसमान था
मैं मां का लाडला
इस बात का अभिमान था
दौड़ धूप ऐसे जैसे
बिल्कुल ना थकान था
लगे भूख तो मां की आंचल
में सारा समाधान था
मां के हाथों का एक निवाला
से मेरा पेट टन्न (भरा हुआ) था
फिर भी मां की आंखो से
इतना खाना कम था
कुछ ऐसा मेरा बचपन था
कुछ ऐसा मेरा बचपन था

परिचय :-  मनीष कुमार सिहारे
पिता : श्री झग्गर सिंह
निवासी : पटेली, जिला बालोद, (छत्तीसगढ़)
घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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