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बचपन

मनीषा शर्मा
इंदौर म.प्र.

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आज अचानक बहुत सालों बाद एक सहेली से बात हुई। बात क्या हुई, समझ लीजिए बचपन से मुलाकात हुई। वह बेफिक्रा बचपन ना जाने कहां खो गया। जिसमें ना कोई दुख था, ना परेशानी थी, ना जिम्मेदारी, न कड़वाहट थी। सभी तो अपने थे। वह गांव की गलियां जहां निडर होकर दिन रात घूमा करते थे। गांव में एक मंदिर था। जिसके हाल में गर्मियों की दोपहरे गुजरा करती थी। गांव के सभी लोग बच्चों से प्यार करते थे। गलतियां करने पर डांट भी देते थे। पर जब डांट पड़ती तो सोचते हम कब बड़े होंगे। जब हम बड़े होंगे तो कोई हमें नहीं डांटेगा। हमारे पास पैसे होंगे। हम कहीं भी अकेले घूमने चले जाएंगे। अपनी मर्जी के मालिक हो जाएंगे। जो चाहेंगे वही करेंगे। ना कोई रोकने वाला होगा ना कोई टोकने वाला। किंतु तब कहां पता था, कि बड़े होना क्या होता है? जैसे-जैसे हम बड़े होते गए वैसे वैसे हमारी छोटी-छोटी परेशानी बडी होती गई। पतली-पतली किताबें मोटी होती गई। और सरल सी जिंदगी कठिन होती गई। जीवन एक संघर्ष लगने लगा। दौड़ भाग भरी इस जिंदगी में मैं खुद को भूल ही गई। बचपन की शैतानियां संजीदगी में बदल गई। अब लगता है बचपन के वो दिन फिर से लौट आए तो कितना अच्छा हो। सारी जवानी लेकर भी कोई बदले में बचपन लौटा दे तो क्या बात है। पर ऐसा होना मुमकिन नहीं। हाँ एक चीज जरूर मुमकिन है, कि हम अपने बच्चों को बचपन का पूरा आनंद लेने दे। पढ़ाई, ड्राइंग, डांस जैसी प्रतिस्पर्धा से बच्चों को थोड़ा दूर ही रखें तो बेहतर होगा। बच्चा जो भी आनंद के साथ करें वही उसे करवाएं अपनी उम्मीदें बच्चों पर ना थोपे क्योंकि बचपन सिर्फ एक बार आता है और एक बार चले जाने के बाद कितना ही प्रयास कर लो लौटकर दोबारा नहीं आता।

 

परिचय :-  मनीषा शर्मा
जन्म : २८/८/१९८२
शिक्षा : बी.कॉम., एम. ऐ.
लेखन शुरुआत वर्ष : लेखन में रुचि बचपन से है
लेखन विधा : कविता ,व्यंग्य ,कहानी समसामयिक लेखन।
व्यवसाय : आकाशवाणी केंद्र इंदौर उद्घोषक
पता : इंदौर म.प्र.


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