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बचपन

डॉ. प्रभा जैन “श्री”
देहरादून

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क्या बचपन का जमाना था
ना अपना, ना पता क्या सुहाना था
भागते कभी तितली के पीछे
कभी उड़ाते, छत पर पतंग।

कभी झूलते सावन के झूले
कभी रिमझिम वर्षा में नहाते,
बना कागज की नाव बहाते
रख पैर रेत में घर बनाते।

कोई तोड़ता कट्टी क़र जाते
मन था निर्मल गंगा समान,
फिर से हप्पा क़र जाते
था तनाव रहित जीवन।

बदला समय, जीने का ढंग
जन्म लेता आज बच्चा,
समय बाद ए बी सी डी करने
लगता,
लाद भारी बस्ता स्कूल जाता
दादी-नानी से कहानी सुनता बचपन।

देख जिन्हें दिल खिल जाता
भंवरों की तरह मचल जाता,
बड़ों की तरह बात करता बचपन

कुछ का बचपन सड़क पर सोता
स्कूल का सपना चाँद का सपना
हर चीज में दो समय की रोटी दिखती
कहीं छोटी-छोटी टोकरी में नींबू
धनिया बेचता बचपन।

क्यूँ होता अपहरण
क्यों चौराहे पर फैला हथेली
खड़ा बचपन।

कहाँ खो गया वो मासूम
सहज सरल बचपन,
कहाँ खो गया देखते-देखते
वो गुलाब सा प्यारा बचपन।

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परिचय :डॉ. प्रभा जैन “श्री” (देहरादून)


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