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बाल यौन शोषण

सलिल सरोज
नई दिल्ली

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समाज और बच्चे के लिए बाल यौन शोषण कोई नयी समस्या नहीं है। ये एक वैश्विक समस्या है। ये समस्या १९७० और १९८० के दशक के बाद एक सार्वजनिक मुद्दा बन गयी है। इन वर्षों से पहले ये मुद्दा नागर समाज में दर्ज नहीं होता था। छेड़छाड़ से संबंधित मुद्दों की पहली सूचना वर्ष १९४८ में और १९२० के दशक में मिली थी। नब्बे के दशक में बाल यौन शोषण पर कोई औपचारिक अध्ययन नहीं था। जहाँ तक भारत का संबंध है, ये विषय अभी भी चर्चा के लिए वर्जित है, क्योंकि इस मुद्दे को घर की चारदिवारी के ही अन्दर रखने के लिये कहा जाता है और बाहर किसी भी कीमत पर बताने की अनुमति नहीं दी जाती। एक रुढ़िवादी समाज में जैसे कि हमारा भारतीय समाज, जहां छेड़छाड़ के मुद्दे पर लड़की अपनी माता से भी बात करने में असहज महसूस करती है। यह पूरी तरह से अकल्पनीय हो जाता है कि यदि उसे अनुचित स्थानों पर छूआ गया है तो उसे चुप रहने की सलाह दी जाती है। जबकि हाल ही में मि तू कैंपेन चला जिसमें लड़कियों और लड़कों से कहा गया कि यदि वो कभी भी इस तरह के स्थिति से गुजरे हैं तो आवाज़ उठायें।

बाल यौन शोषण एक अपराध है जिसे अनदेखा किया जाता है, क्योंकि लोग इस पर बात करने से बचते हैं। इस विषय के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करने के प्रयासों के द्वारा इस प्रकार की घटनाओं को काफी हद तक कम किया जा सकता है। अपराधियों के मन में डर डाले जाने की आवश्यकता है। यह तभी संभव है जब लोग इसका सामना करने के लिये तैयार हों। अब समय आ गया है कि माता-पिता द्वारा इस तरह के मुद्दों के बारे में अपने बच्चों को जागरूक बनाने के लिये इस विषय पर विचार-विमर्श किया जाये। शैक्षिक संस्थानों को भी जागरूकता कैंप आयोजित करने चाहिये जो सेक्सुएलिटी (लैंगिकता) विषय पर सटीक जानकारी प्रदान करने में सहायक होंगे। यद्यपि इस दिशा में कुछ प्रयास फिल्मों के माध्यम से भी किये गये जैसे: स्लम डॉग मिलेनियर, जिसमें बाल वैश्यावृति को पेश किया गया है, इसमें और अधिक प्रयासों को करने की आवश्यकता है। ये सुनिश्चित करने के लिये कि अपराधी, अपराध के भारी दंड के बिना छूट न जायें इसके लिये कानूनों और धाराओं को और अधिक कड़ा करना होगा। अन्त में, बाल यौन शोषण के मुद्दे से और अधिक अनदेखे मुद्दे की तरह व्यवहार न किया जाये क्योंकि ये समाज के कामकाज के तरीके को प्रभावी रूप में प्रभावित करता है और युवा लोगों के मन पर गहरा प्रभाव डालता है।

सिर्फ लड़कियों ही नहीं यह उन लड़कों के मामलों में भी होता है जो स्वतंत्र रूप से अपने माता-पिता के साथ वर्जित मान लिए गए विषय पर बात करने के लिए सक्षम नहीं हैं। ये पूरे समाज की मानसिकता है जो बुरे लोगों को प्रोत्साहित करने का काम करती है। कुछ लोग मासूम बच्चे के दिमाग में बैठे डर का लाभ उठाते हैं, वो बेचारा मासूम बच्चा/बच्ची जिसे यौन उत्पीड़न के बारे में कोई जानकारी नहीं होती वो दिन प्रतिदिन इस का शिकार होता है।

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लेखक परिचय :-  सलिल सरोज कार्यकारी अधिकारी लोक सभा सचिवालय नई दिल्ली

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