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बदलता हुआ पहनावा और उसका समाज पर प्रभाव

डॉ. चंद्रा सायता
इंदौर (मध्य प्रदेश)

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परिवर्तन प्रकृति का नियम है। संसकृति और सभ्यता भी इस प्रभाव से नहीं बच सकते। संसकृति का संबंध मानव हृदय से होता है।अत: इस पर परिवर्तन का प्रभाव अत्यंत धीमी गति से होता है। दूसरी और सभ्यता अर्थात मानव परिवेश के अ़तर्गत आनेवाली भौतिक वस्तुएं जैसे खाध पान, पक्षनावा, भवन चल सम्पति आदि।इन पर परिवर्तन का प्रभाव बहुत जल्दी पड़ता है। आज के विमर्श का विषय “बदलता हुआ पहनावा और समाज पर उसका प्रभाव” पर चर्चा करना है। ऐसा बदलाव या परिवर्तन सभ्यता के बदलाव से संबद्ध है। पहनावा सभ्यता का अभिन्न अंग है।विचारणीय है कि कर्मेन्द्रियो़ द्वारा हम जो भी काम करते हैं वही सभ्यता है।

पहनावा हमारी चक्षुओं को आकर्षित करता है। हम जहाँ नए फैशन के परिधान कहीं भी चाहे सिनेमा में ही क्यों न हों, तुरन्त उन परिथानों में स्वत: को काल्पनिक रूप से देखने लगते हैं। चाहे वह अपने समाज के अनुरूप हो न हों। यही कारण है कि हम सिनेमा तथा विदेशों म़े किसी न किसी कारणवश जाते आते रहने से हम वैसे ही वस्त्र पहनने लगते हैं। जल्दी जल्दी फैशन बदलने के कारण ही हमारी अल्मारियां न केवल ठसाठस भरी रहती हैं बल्कि उधकी संख्या म़े वृद्धि की जरूरत लगने लगती है।
फिर भी हमारी संस्कृति हमारे साथ होती है। उसमें परिवर्तन बहुत दीर्घ काल में संभव होता है अथवा किसी संकृति विशेष द्वारा हम पर सांस्कृतिक आक्रमण न किया जाए। जह़ा तक परिधान का समाज पर प्रभाव का प्रश्न है, वह समाज विशेष की संस्कृति से जुड़ा है। हमारे पुरूष प्रधान समाज में पाश्चात्य पहनावा प्रतिकूल प्रभाव डालता है।।

इसी देश में घूंघट प्रथा थी और यहीं आज यथासंभव छोटे परिधानों का प्रचलन हो गया है। दूरदृष्टि पूर्वक यदि आकलन किया जाए तो हमारे संयुक्त परिवारों के एकल परिवारों में तब्दील होने के कारणों में से यह भी एक कारण है। नई बहू हो या नवविवाहित बेटा हो वे आधुनिक परिधान धारण करना चा हते हैं। या बुजुर्ग समझौता कर लें या फिर वे अपना अलग परिवार बसा लें। यह बदलाव तो काफी समय से चल रहा है और तेजी से बढ़ रहा है। हम समझ सकते हैं कि आजकल अविवाहित बच्चे भी इससे बचे हुए नहीं हैं। इसलिए माँँ बाप ने समझौता करते हुए उनकी राह को ही अपना लिया है। आज नहीं तो कल अर्थात कुछ लम्बे समय में संस्कृति का बचा रहना मुश्किल होगा।
इससे बचने के लिए बीच की पीढी को संकृति से मजबूती से बंधकर रहना हैगा।

परिचय :- डॉ. चंद्रा सायता
शिक्षा : एम.ए.(समाजशात्र, हिंदी सा. तथा अंग्रेजी सा.), एल-एल. बी. तथा पीएच. डी. (अनुवाद)।
निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश
लेखन : १९७८ से लघुकथा सतत लेखन
प्रकाशित पुस्तकें : १- गिरहें २- गिरहें का सिंधी अनुवाद ३- माटी कहे कुम्हार से
सम्मान : गिरहें पर म.प्र. लेखिका संघ भोपाल से गिरहें के अनुवाद पर तथा गिरह़ें पर शब्द प्रवाह द्वारा तृतीय स्थान
संप्रति : सहायक निदेशक (रा.भा.) कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,श्रम मंत्रालय, भारत सरकार।
घोषणा पत्र : यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है।


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