अनुराधा बक्शी “अनु”
दुर्ग, (छत्तीसगढ़)
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“शरीर मिट्टी में शामिल हो मिट्टी का पुनर्निर्माण कर देता है, फिर क्या है जो मरता है? ये दिल इतना शोर क्यों करता है। किसी के जाने से असह्रा दर्द क्यों और कहां से आता है? खुद को समाप्त करते ही उनकी यादें भी खत्म हो जाएंगी और बेकाबू रुदन से जिंदा रहा नहीं जाता।”
दर्द के अवसाद में सुबह-शाम डूबी अक्सर मैं अपनी दुनिया अपनी आंखों से निहारती।
“इन दिनों प्रकृति जिस तरह अपने अदृश्य पन्नों पर अपने असहज घोटाले की कहानियां लिख रही थी और हम अपने हाथ हाथों में लिए दृष्टा की भांति उसे निहार रहे थे वो बहुत कुछ कह रही थी और बहुत कुछ सिखा भी रही थी।”
कभी सोचा ना था दूध की चिंता बिस्तर छोड़ने पर और रोजमर्रा की जरूरतें है दरवाजे से बाहर निकलने पर मजबूर कर देंगी। स्कूल जाते वक्त वो मुझे बस स्टॉप पर छोड़ते और मेरे आने से पहले बस स्टॉप पर गाड़ी लिए खड़े रहते। स्कूल, बाजार, समाज, परिवार कहीं भी कभी भी वो हमेशा मेरे साथ होते। मैं हाई स्कूल की प्रोफेसर पर दरवाजे से बाहर की दुनिया मैंने हमेशा उनकी आंखों से देखी और उनकी उंगली पकड़ कर ही चली।
उनके जाने के बाद जैसे मेरी पूरी दुनिया ही बदल गई। मुझ में अकेले बाहर निकलने का डर एक बीमारी की तरह था। मैं किसी फंक्शन में जाती भी तो मन वहां ना लगता। मैं अक्सर अधूरा फंक्शन छोड़कर घर आ जाती। सब्जियों का रेट अक्सर पड़ोसिनों से पता चलता तब उन पर गुस्सा होते हुए कहती है- “आज मैंने टमाटर की सब्जी बनाई है। आपने बताया क्यों नहीं कि टमाटर महंगा है। बता देते तो मै कुछ और बना लेती ।”
तब वो मुस्कुराते हुए कहते- “तो क्या हुआ ? कितना खर्च हुआ होगा? खाने के लिए ही तो कमाता हूं। मेरे रहते तुम्हें फिक्र कैसी।”
सचमुच दाल आटे का भाव कभी पता ही नहीं चला। उस दिन पहली बार मोहल्ले के किराना स्टोर्स पर सामान लेने गई। दुकानदार ने मेरी स्थिति को बखूबी भांपकर सबसे पहले मेरा सामान मुझे थमा दिया। मैं संकुचित सी लगभग दौड़ते घर के गेट से अंदर घुस गई। घर से बाहर निकलते दिल जोरो से धड़कता। कई बार कदम पीछे हटाते मजबूर कदमों को मजबूत करती और आगे बढ़ती। खुदको समझती- “कुछ भी स्थाई नहीं। ये वक्त भी नहीं। ये परिस्थितियां भी कुछ दिन की है फिर सब ठीक होगा।”
मैं अक्सर स्कूल से आते जरूरत का सामान लाने लगी। मुझमें धीरे -धीरे परिवर्तन होने लगा। मैंने घर से अकेले निकलना सीख लिया था। मैं देर रात तक सारे काम निपटाते कुसकुराते हुए घर पहुंचती। “जब कुछ स्थाई नहीं तो ये दर्द भी नहीं। वक्त गुजरने में वक्त लगता है पर गुजर जाता है।फिर जीवन से हारना कैसा?”
धीरे-धीरे मैं आत्मविश्वास से भरने लगी। सकारात्मक परिवर्तन के साथ मैं अब स्वयं का साथ देने लगी। समझने लगी हूं कि जिम्मेदारियां उसे मिलती हैं जो उसे निभा पाता है और मैं अपनी जिम्मेदारियां बखूबी निभा पा रही थी।
“हां मैं भी हिम्मत हारती हूं मुझे भी डर लगता है। हां मैं अक्सर अपना साथ नहीं दे पाती हूं पर अब मैं अपने साथ ज्यादा वक्त बिताने लगी। जन्म और मृत्यु की से परे हर पल सार्थक बनती। मैंने वापस लौटकर अपने आप को पा लिया था।
“जीना महत्वपूर्ण है और उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है अपने आप को महत्व देना”
मेरे चेहरे का ओज़ और आत्म तृप्ति मेरे परिवर्तन की कहानी कह रहे थे।
परिचय :- अनुराधा बक्शी “अनु”
निवासी : दुर्ग, छत्तीसगढ़
सम्प्रति : अभिभाषक
घोषणा पत्र : मैं यह शपथ लेकर कहती हूं कि उपरोक्त रचना पूर्णतः मौलिक है।
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