पत्ते
श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
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जो जुबान से निकला
वो शब्द थे
जलजले सा भीतर
थम गया वो अनुभूति थी
यू ही पत्तों से रह गए
जिंदगी के रिश्ते,
कुछ मुरझा गए कुछ
सीलन से हैं भरे हुए
कुछ थे जो अपनी
गुमान में गुम थे
उनको भनक भी नहीं
आने वाले तूफान की
जो मिटा देता है
मिटा सकता है
अहम के अस्तित्व को
रिश्तों की कहानियां भी
कुछ ऐसी ही हैं
कभी सूख जाते हैं
कभी सीलन से
बोझिल हो जाते हैं
जीवन का सफर
रुकता नहीं किसी के
इंतजार में
यूँ ही झड़ जाना है,
विलीन हो जाना है कहीं
बटोरते रहे इन पत्तों को
आजीवन हम
मिले कहीं किसी
किताब के पन्नों में सूखे हुए
कभी रिश्तों की तह में
धूल से भरे हुए
मौसम की हवाओं ने
नए हरे पत्तों का संदेश भेजा है
जिंदगी फिर से
शोभायमान हो,
ऐसे रंगों से
बहारों ने चमन को घेरा है!!!
परिचय :- श्रीमती क्षिप्...