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कविता

हमारा भी जमाना था
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हमारा भी जमाना था

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** पीढ़ी देखे चरम बदलाव, चिंता बिन अफसाना था। भला=बुरा का ज्ञान नहीं पर, हमारा भी जमाना था। बिन शर्म संकोच बचपन में, पैदल साइकल जो हुआ। दूर_पास विचार नहीं संग, मां पिता गुरु ईश दुआ। चला करते पीढ़ी के रिश्ते, चाचा मामा बहन बुआ। ढपोरशंख पदवी से दूर, प्रतिशत उच्च अंक छुआ। बगैर संकोच पुस्तक शॉप, क्रय विक्रय ठिकाना था। परिवार सहयोग में कितनी, लाइन भी लग जाना था। अपनी पीढ़ी चरम बदलाव, बिन चिंता अफसाना था। भला-बुरा का ज्ञान नहीं पर, हमारा भी जमाना था। प्रभु प्रलोभन मिठाई का, कम मेहनत विनय करते। पढ़ाई खर्च का बोझ वहन, कभी उजागर ना करते। सिलवटी ड्रेस सस्ते खेल से, जमकर खुशियां पा लेते। कंचा भौंरा पिट्टुल कौंडी, लूडो चेस चला करते। जरा सी पॉकेट मनी बचे, अन्य शौक भी पाना था। घर का मुरमुरा चूड़ा भेल, अपना श...
सरज़मीं
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सरज़मीं

मधु टाक इंदौर मध्य प्रदेश ******************** वो मेरा है ये जमाने को बताना है सोहनी मैं महीवाल उसे बनाना है सजा सख्त पाई दिल लगाने की मोहब्बत के दर्द को यूँ छुपाना है वो ही मेरी शोख यादों में समाया है दिल की सरजमी पर उसे लाना है नजर न लगे कहीं बेदर्द जमाने की हर एक शय से बस उसे बचाना है स्वाति की बूँद का वो मोती सा है साँसों की तसबी में उसे पिरोना है कर न पाया इज़हार-ए-इश़्क कभी मुहब्बत भरा एक लुटा खजाना है मैं वो आँसू हूँ जो छलका ही नहीँ मेरा निगाहों को बस मुस्कुराना है वो मसीहा सारे जमाने भर का है उसकी बेवफाई से दिल लगाना है वो मेरे नाम की गहराई में छुपा है अधरों पर "मधु" उसे ही सजाना है परिचय :- मधु टाक निवासी : इंदौर मध्य प्रदेश घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां...
बोलो पीर सहूँ मैं कब तक
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बोलो पीर सहूँ मैं कब तक

अंजनी कुमार चतुर्वेदी निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** बोलो पीर सहूँ मैं कब तक, तुम्हें दया नहिं आती। पेड़ काट कर गिरा रहे हो, फटती मेरी छाती। धरती माता बोल रही हूँ, अपना दर्द सुनाती। माँ का सीना छलनी करते, तुझे लाज नहिं आती। तेरा बचपन मुझ पर बीता, अब यौवन पाया है। अपने आँचल तुझे दुलारा, दी शीतल छाया है। पर्वत सब उरोज हैं मेरे, बनी वृक्ष से काया। माँ का कर्ज आज तक तूने, क्यों कर नहीं चुकाया? सभी जीव छाया पाते हैं, कोयल मधुरिम गाती। जब कटते हैं वृक्ष धरा से, छलनी होती छाती। ओ निष्ठुर, बेदर्दी मानव, पीर बढ़ा मत मेरी। कब तक पीर सहूँ मैं बोलो? माता हूँ मैं तेरी। परिचय :- अंजनी कुमार चतुर्वेदी निवासी : निवाड़ी (मध्य प्रदेश) शिक्षा : एम.एस.सी एम.एड स्वर्ण पदक प्राप्त सम्प्रति : वरिष्ठ व्याख्याता शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय क्रमांक २ निव...
इंसान से इंसानियत खो गया है
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इंसान से इंसानियत खो गया है

प्रमेशदीप मानिकपुरी भोथीडीह, धमतरी (छतीसगढ़) ******************** परहित परोपकार की बातें करना समाज के लिए जीना और मरना सब कुछ खोखली बातें हो गया है इंसान से इंसानियत खो गया है अच्छे-बुरे की अब परख नही है जीने-मरने मे कोई फरक नही है स्वार्थी अब हर इंसान हो गया है इंसान से इंसानियत खो गया है प्यार-मोहब्बत सब झूठी बातें बेईमानी मे कटती है अब रातें दगा देना,नामे वफा हो गया है इंसान से इंसानियत खो गया है पल-पल बदलती जग की तस्वीर जाने लिखने वाला सबकी तकदीर जीवन कोई फलसफा हो गया है इंसान से इंसानियत खो गया है विकास का क्या असर हो गया है मानव से मानवता ही खो गया है क्यूँ इंसान अब ऐसा हो गया है इंसान से इंसानियत खो गया है परिचय :- प्रमेशदीप मानिकपुरी पिता : श्री लीलूदास मानिकपुरी जन्म : २५/११/१९७८ निवासी : आमाचानी पोस्ट- भोथीडीह जिला- धमतरी (छतीसगढ़) संप्रति : शिक्ष...
वज़न
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वज़न

रंजना श्रीवास्तव नागपुर (महाराष्ट्र) ******************** सही को सही और ग़लत को ग़लत कहने की हिम्मत रखती हूँ, हवाओं के विपरीत चलने का जिगर रखती हूँ, इसलिए मैं भीड़ में अलग दिखती हूँ। खटकता है मेरा आत्मविश्वास और तड़पाती है मेरी ईमानदारी व सच्चाई, नहीं करने देती मनमानी। रोड़ा बन जाता है मेरा हुनर, परेशान करती है लोगों के बीच मेरी पहचान। हाँ !! अकेली ही स्वयं में पर्याप्त हूँ। भीतर बसा हुआ है मेरे भरा पूरा ज़माना। दिल से खिलखिलाती हूँ, बाँटती हूँ मुस्कुराहटें और खुशियाँ, पहचानते हैं कुछ काबिल लोग मेरी काबिलियत को। बस यही... बुरा लगता है कौरवों को और शकुनि के साथ मिलकर रचने लगते हैं चक्रव्यूह। स्वयं में कितने कमजोर हैं!! पैने झूठे वारों से खत्म कर देना चाहते हैं मिलकर मेरे आत्मविश्वास को, मेरे वजूद को। चतुरंगिणी सेना घेर लेती है चारों ओर से मुझे। अक्सर....
दिल में आया है एक ख्याल सुनहरा सुनहरा
कविता

दिल में आया है एक ख्याल सुनहरा सुनहरा

अलका जैन इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** दिल में आया है एक ख्याल सुनहरा सुनहरा निजी गुलशन में लगाए एक अंगूर की डाल खट्टी मीठी याने तेरे नाम की हरिभरी बेल दिल में आया है एक ख्याल सुनहरा सुनहरा गलि मे लगा डालूं एक चंदन का पेड़ सावन में ओर प्राप्त करु भीनी-भीनी तेरे बदन सी खुशबू दिल में आया है एक ख्याल सुनहरा सुनहरा सा किसी गुलशन में लगाए जाये गुलाब के फूल यार प्राप्त करूं गुलाब यानी तेरे लब से सुर्ख लाल गुल दिल में आया है एक ख्याल सुनहरा सुनहरा सा किसी दिन कराया जाये मुकाबला हुस्न और गुल में शायद गुल जीते जाये हुस्न भी है दावेदार मुकाबले मे सुनंदरता के इस मुकाबले में टक्कर कांटे की होगी सुनो चाहे हुस्न जीते या गुलशन के फूल दोनों मेरे अपने हुस्न और गुलशन हिफाज़त करना फर्ज दिवानो का पर्यावरण जब रक्षा होगी समाज की हिफाज़त होगी ...
प्रकृति संरक्षण
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प्रकृति संरक्षण

संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया भोपाल (मध्यप्रदेश) ******************** प्रकृति का दोहन करते हो, और पर्यावरण दिवस मनाते हो, हम सबको मिलकर, प्रकृति संरक्षण करना है, पेड़-पौधे नित नव लगाना हैं, पेड़ काटने से रोकना हैं, वायु प्रदूषण रोकना हैं, व्यर्थ जल बहने से रोकना हैं, जल संरक्षण का संकल्प लेना हैं। अधिक से अधिक पेड़ लगाना हैं, जन्मदिन पर एक पेड़ अवशय लगाना हैं, यही नारा चहुंओर फैला कर, जन-जन को जागृत करना है, वैवाहिक वर्षगांठ पर, एक पौधा उपहार में भेट देना है, वायु प्रदूषण रोकना हैं, अपने मित्र के जन्मदिन पर, एक पौधा अवश्य भेंट करना है, जो भी फल खाएं, उसके बीज संभाल कर रखना हैं। जब कभी अपने शहर से बाहर जाएं, तो रास्ते में किनारे पर, फेंकते जाना है, अपनी कॉलोनी और पूरे मोहल्ले में संगठित हो, अधिक से अधिक को पौधे लगाना हैं। सारे भारतवासियों क...
पिता
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पिता

श्रीमती शोभारानी तिवारी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मां धरती और पिता आकाश है, टिमटिमाते तारों का विश्वास है, पिता रब की,सच्ची अरदास है, जीवन में इनकी जगह, खास है। टूटे हुए मनोबल का सहारा हैं, ऊंगली पकड़ चलना सीखाते है, मां वर्तमान को ही संवारती हैं, पिता भविष्य की चिंता करते है। पिता पतझड़ में भी मधुमास है, माता-पिता ही हमारे भगवान है, जिस घर में पिता का साया न हो वह घर नहीं, उजड़ा रेगिस्तान है। पिता साथ हैं तो दुनिया रंगीन है, वर्ना जीवन में, उदासी के साए हैं, रिश्ते, व्यवहार सब पिता से ही हैं, वर्ना तो सारे अपने भी, पराए हैं। पिता तो बस नाव की पतवार है, उनसे होते सारे सपने साकार है, पिता ही परिवार का पालनहार है वही सिखाते सभ्यता, संस्कार है। पिता से ही बच्चों की पहचान है, मॉ के मंगलसूत्र का वही शान है, हिमालय बनकर रक्षा करते सदा उनसे ह...
वो दिन कब आएगा
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वो दिन कब आएगा

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** हां मानता हूं कि दलित आदिवासियों के पास समस्याएं हैं, पर उनके पास अपनी परंपराएं हैं, उनके मन में भी सवाल है, यदि दाग दे तो बवाल है, व्यवस्था ऊपर आरोप है, सत्ता की ओर से प्रत्यारोप है, अपने पुरखे रूपी भगवान से उम्मीद है, अपने धरोहरों से अटूट प्रीत है, कुछ अतार्किकता है, दिलों में मार्मिकता है, जातियों में खंड खंड है, कहीं कहीं थोड़े बहुत पाखंड है, प्रशासनिक ज्यादिता है, अपनी रूढ़िवादिता है, यहां तक वोट देने का अधिकार है, पर कुछ दलालों के कारण बन जाता एकदिनी व्यापार है, केकड़ावृत्ति वाला समाज है, खंडित जिनका हर साज है, पर अफसोस मानवीयता और अमानवीयता में से चयन करने में पीछे रह जाते हैं, समाज के गोद में बैठे दलालों के कारण हरदम, हरपल धोखा खाते हैं, शिक्षा का सही उपयोग क्यों नहीं कर पाते...
नौकर
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नौकर

मनोरमा जोशी इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मेरा पता पूछकर, मुझकों अपमानित, मत करना। छलक जायगा, दुखः का मनघट, दुखित न मन को करना। दिन अपने कट, जाते हंसकर, सो जाता रातों, को रोकर, मैं होटल का नौकर। दुखः के घूंट, निगलकर अपने, आंसू पी लेता हूँ, फटकारों से फटा, हुआ दिल हँसकर, मै सी लेता हूँ, साहस है मुझमें, जीने का झूठे, बर्तन धोकर, मै होटल का नौकर। तुम्हीं बताओं उम्र है, मेरी ललकारें सुनने की, मैले फटे पुराने कपडे़, पहनू मै नित धोकर, मै होटल का नौकर। किसी चमन का साथी, फूल बना हूँ, जीवन की बहती, धारा का फूल बना हूँ, धुतकारों या पुचकारो तुम तुमकों है अधिकार सभी, मुझको पता नहीं है, कब किसने छोड़, दिया है बोकर, मै होटल का नौकर। परिचय :-  श्रीमती मनोरमा जोशी का निवास मध्यप्रदेश के इंदौर में है। आपका साहित्यिक उपनाम ‘मनु’ है। आपकी जन्...
बारिश की बूॅंदें
कविता

बारिश की बूॅंदें

संगीता सूर्यप्रकाश मुरसेनिया भोपाल (मध्यप्रदेश) ******************** मैं हूॅं बारिश की बूंदें, मैं भी तो प्रभु की सुंदर रचना ही हूॅं। जब सावन की बरसात आती हैं, तब मैं गगन से चलकर। अठखेलियां करती हुई, धरा से मिलन करने आती हूॅं। मैं रिमझिम-रिमझिम वर्षा संग, सबके उर उमंग भरती हूॅं। मैं हूॅं बारिश की बूॅंदें, अति लघु जल कण, अल्पायु हूॅं। मैं धरा पर आकर स्वयं खुश हो, मानव के अधरों पर मुस्कान बिखेरती हूॅं, मैं जब रज में मिलूॅं, सौंधी सुगंध। माटी सी महकाती हूॅं, धरावासियों के तन भिगो रोमांच भरुॅं। मैं हूॅं बारिश की बूॅंदें, जब पेड़, लता, वृक्ष, पत्तों पर गिरती हूॅं। कुछ काल रहती हूॅं, तब भानु प्रकाश किरणें मुझे धवल, सूक्षम मोती सा चमका, मेरा सौन्दर्य बढ़ाती हैं। दादुर, मोर, पपीहा, कोयल, तोता, चिड़िया, मधुर गान करें। मैं हूं बारिश की बूॅंदें, जब मैं ...
आओ साथ बैठते हैं
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आओ साथ बैठते हैं

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** आओ साथ बैठते हैं ना हो कोई भीड़ ना कोलाहल, श्वेत श्याम चित्रों में रंग भरते हैं चाय की प्याली हाथों में लेकर चलचित्र सी बीती जिंदगी को पुनः सिलसिलेवार करते हैं उम्र के ढलते पडाव पर स्वयं की अभिव्यक्ति से सरोकार करते हैं जीवन आनंदमय था या थी दुःख की बदली, क्यूँ हम उस पल को याद करते हैं हम स्वयं ही अपनी देखभाल करते हैं! बच्चे बड़े हो गए उनको उड़ना हमने ही सिखाया, वो ऊंची उड़ान भर सुनहरे भविष्य का सपना साकार करते हैं, सृष्टि ने अद्भुत उपहार दिए हर रंग हर रूप में इस जग को उनके संरक्षण का प्रण लेते हैं हम ही पुराने मित्रों को फिर से नया संदेश भेजते हैं!! परमेश्वर के श्री चरणों में नमन कर, जनकल्याण का आशीष लेते हैं, जीवन जीने की कला का पुनः निर्माण करते हैं आओ पास बैठ...
मेरे पिताजी मेरे भगवान
कविता

मेरे पिताजी मेरे भगवान

हरिदास बड़ोदे "हरिप्रेम" गंजबासौदा, विदिशा (मध्य प्रदेश) ******************** परम पूज्य मेरे पिताजी, तुम मेरे भगवान हो। जीवनदान तुमसे ही पाया, तुम मेरी जान हो।। मेरे मालिक मेरे पिताजी, तुम मेरे जन्मदाता हो। जनम दिया है दुनिया में, मेरे भाग्य विधाता हो। मेरे पिताजी इस संसार के, वह निराले इंसान है। मेरे पिताजी का जीवन में, जो सर्वोत्तम स्थान है। मेरे भाग्य में है पिताजी, यह ईश्वर का वरदान है। मुझे छत की क्या जरूरत, पिताजी आसमान है। बापू की क्षमता माँ की ममता, मैं करूं सम्मान है। अहो भाग्य से मुझे मिले, सर्वदा करूं गुणगान है। जीवन दुःख मेरे जो आया, बापू ने सहन किया। मैने देखे सपने जितने, पिताजी ने ही पूर्ण किया। इस जीवन में पिताजी ने, अमूल्य दिया उपहार है। जीवन में लौटा ना सकूं, अतुल्य किया उपकार है। खून पसीने में रहकर, मुझे मेरा अधिकार दिया। छ...
लहरों का संदेश
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लहरों का संदेश

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** सागर की लहरों में हमदम रेस चला करती है तीव्र गति, अबाध, स्मितमुख दौड़ा करती हैं न कोई रोकटोक न कोई प्रतिस्पर्धा इधर उधर से भाग-भाग कर एकाकार हुआ करती हैं गुफ़ा, कंदरा में ऋषि मुनि खोजा करते मोक्ष मार्ग इन लहरों को देखो, चलचल कर पा जातीं खुला मोक्ष का द्वार लहरें चल-चल कर अपना काम किया करती हैं चलते रहने का मानव को संदेश दिया करती हैं। परिचय :- डॉ. किरन अवस्थी सम्प्रति : सेवा निवृत्त लेक्चरर निवासी : सिलिकॉन सिटी इंदौर (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवासी : मिनियापोलिस, (अमेरिका) शिक्षा : एम.ए. अंग्रेजी, एम.ए. भाषाविज्ञान, पी.एच.डी. भाषाविज्ञान सर्टिफिकेट कोर्स : फ़्रेंच व गुजराती। पुनः मैं अपने देश को बहुत प्यार करती हूं तथा प्रायः देश भक्ति की कविताएं लिखती हूं जो कि समय की‌ मांग भी‌ है। आजकल देशभक्...
काखर पाछु म जाना हे
आंचलिक बोली, कविता

काखर पाछु म जाना हे

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** दु माडल हे देस के आघु जेला चाहव चुन ल जी, का करम कुकरम हे एखर भीतरी आवव थोरकुन गुन ल जी, गोड़ गिरव अउ माथा रगड़व एक माडल ह कहिथे जी, जनमानस ल भरमाये खातिर आस्था के धार बहिथे जी, जात पात बरिन ल मान के खुदे नीच कहलावव जी, बइठान्गुर के बात ल मानव पेट ओखर सहलावव जी, जाति धरम के पाछु म आंखी मुंदा जावव जी, हाथी कस ताकत ल अपन छिन छिन म भुला जावव जी, एक बरन ह राजा रहि एक बरन ह रद्दा बताही जी, एक बरन ह लुटही खसोटही बाकी धार बोहाही जी, हजारों बरस के पाखंड ह जोर से फेर बोमियाही जी, पुरखा हमर रोये रहिन हे जइसे वोही दिन ह लउट के आही जी, अब बात करन दूसर माडल के ओमा का का होही जी, कोन उड़ही अद्धर अकास म कोन धरती म सुत रोही जी, संविधान ह रक्छा करही सबला सबल बनाही जी, भाई बरोबर सब मिल जुल रहीं समता के फुल ...
अतिरिक्त
कविता

अतिरिक्त

राजीव डोगरा "विमल" कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) ******************** तुम चेहरे की मुस्कुराहट पर मत जाओ बहुत गम होते हैं सीने में दफन। तुम झूठी वफाओं में मत आओ बहुत ख़्वाब होते हैं आधे अधूरे से। तुम इन सिमटी हुई निगाहों पर मत जाओ बहुत कुछ बिखरा हुआ होता है छुपी हुई निगाहें में। तुम टूटे हुए ह्रदय पर मत जाओ बहुत शेष होता है प्रेम ओरों के लिए। परिचय :- राजीव डोगरा "विमल" निवासी - कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) सम्प्रति - भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, ले...
वक्त
कविता

वक्त

आनन्द कुमार "आनन्दम्" कुशहर, शिवहर, (बिहार) ******************** गुज़रते वक्त के साथ लोग गुज़र ही जायेंगे रह जाएगी उनकी यादें उन यादो में अनगिनत काफ़िले और उन काफिलो का अकेला मुसाफ़िर जो अब मौन है जिसे सब जानते है पर अब गुजरते वक्त के साथ..! परिचय :- आनन्द कुमार "आनन्दम्" निवासी : कुशहर, शिवहर, (बिहार) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमें hindirakshak17@gmail.com पर अणु डाक (मेल) कीजिये, अणु डाक करने के ...
लोकतंत्र का पवित्र मंदिर हूं मैं
कविता

लोकतंत्र का पवित्र मंदिर हूं मैं

माधवी तारे लंदन ******************** (नया संसद भवन २८ मई २००३) आज की रवि किरणों से चमकता हुआ न कोई गगन से उतर कर आया फरिश्ता परतंत्रता का चोला उतार, अपनों के परिश्रम से निर्मित स्वतंत्र देश के अमृत महोत्सव का प्रतीक हूं मैं. देश का विकास या समस्या का हो मसला या विदेश का हो कोई मामला सबसे खुली चर्चा करके, हल निकालने वाला हलधर हूं मैं न तो मैं विदेश में स्थापित होने वाला न ही देश की हर बात जग भर फैलाने वाला दूरदर्शन का कोई चैनल हूं मैं सब देशवासियों की रगों में देशभक्ति स्रोत जगाने वाला निर्मल बहता हुआ निर्झर हूं मैं गीता का वचन है ”यो माम् यथा प्रपद्यन्ते, ताम् तथैव भजाम्यहम ” मंत्रोच्चार से स्थापित लोकतंत्र का पवित्र मंदिर हूं मैं प्रस्तुति - एक वरिष्ठ भारतीय महिला नागरिक (वर्तमान निवास लंदन) परिचय :- माधवी तारे वर्तमान निवास : लंदन मूल निवास...
शब्द
कविता

शब्द

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** शब्दों को पूर्ण वीराम ना लगाओ शब्द, तार है मन सरगम का छंद अलंकारों से श्रृंगारित शब्द अवलंबन है जिव्हा का। कर, लेखनी, काली स्याही व्यंजन, परिमार्जन शब्दों का शब्द चमत्कृत, शब्द झंकृत शब्द-शब्द से कहानी है। स्वर व्यंजन से रचा गढ है परकोटा है अलंकारों का अंदर बाहर गिरि गव्हर है नव रसों की फुलवारी। व्यंग, राग का परी तोषण करते हास्य करें मनुहारी, क्रोध, शांत रस दर्शाते मानव मन के भाव को तू अकेला नहीं, कहता कोई अभिन्न मित्र बना लो शब्दों को। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ी आप शासकीय सेवा से निमृ...
अक्सर जिंदगी …
कविता

अक्सर जिंदगी …

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** अक्सर जिंदगी छीन लेती है उन हौंसले के पंख। जो उड़ना चाहते हैं आसमान की उंचाई पर। मापना चाहते हैं क्षितिज के पार क्या पता हो कोई अनुपम संसार। अक्सर जिंदगी छीन लेती है उन पैरों को। जो नाचना चाहते थे जीवन की ताल पर। थिरकते थे जिंदगी के हर नये ख्याल पर।। लेकिन टूट कर रह गये अपनी ही ताल पर। अक्सर जिंदगी छीन लेती है उन सपनों को। जो जिंदगी ने खुलीं आंखों में सजायें। लेकिन सपनों की हकीकत के हिस्से सिर्फ, इन्तज़ार के बंद दरवाज़े ही आयें।। अक्सर जिंदगी छीन लेती है उन अपनों को। जो जिंदगी के हर अहसास में हो समायें। लेकिन जिंदगी की हर वजह में, बजूद न बन पायें। जिंदगी को मार दे और मिटा भी न पायें।। अक्सर जिंदगी छीन लेती हैं प्यार को। प्यार के हिस्सें में सिर्फ भटकाव आयें। जब मिला भी तो सा...
आ ज़िंदगी बैठ
कविता

आ ज़िंदगी बैठ

आकाश सेमवाल ऋषिकेश (उत्तराखंड) ******************** आ ज़िंदगी बैठ, समझा के रहुंगा। जो भी मसला है, सुलझा के रहुंगा। जितना भी क़र्ज़ है, वक्त से पूछुंगा, आज,सारा कर्ज चुका के रहूंगा ।। फिर न जिऊंगा दोहरी जिंदगी। न वक़्त की चौकसी करूंगा। जिऊंगा तुझे मैं अपने ढंग से, जिंदगी! और न बेकसी करूंगा । रखुंगा ताउम्र, अपने ही दायरे में, तुझे उंगलियों पर नचा के रहुंगा, आ ज़िंदगी बैठ, समझा के रहूंगा। फिर न मसौदा, न समझौता होगा। अपने ही उसूलों पर सौदा होगा । बहुत कर दी, जी हुजूरी या चापलूसी, अब महकमा अपना, अपना ही ओहदा होगा। लिखुंगा किरदार, हर एक का अपने ढंग से, हर एक को कहानी में बैठाकर रहुंगा। आ ज़िंदगी बैठ, समझा के रहुंगा। जो भी मसला है सुलझा के रहुंगा। परिचय :- आकाश सेमवाल पिता : नत्थीलाल सेमवाल माता : हर्षपति देवी निवास : ऋषिकेश (उत्...
माँ मानसरोवर
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माँ मानसरोवर

विवेक नीमा देवास (मध्य प्रदेश) ******************** माँ मानसरोवर, ऋषिकेश, माँ हरिद्वार, माँ संगम है माँ मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे का एक दृश्य विहंगम है। माँ आशा, अभिलाषा, उम्मीदें, माँ प्रेम का बहता सागर है माँ ममता, करुणा, आदर की एक छलकती गागर है। माँ शक्ति, भक्ति, अभिव्यक्ति, माँ ही गौरव गाथा है माँ ही तो हर संतति की बनती भाग्य विधाता है। माँ चंदा की चाँदनी, माँ ही सूरज का ताप है माँ व्याकुल मन को सहलाती लोरी,राग, आलाप है। माँ सागर से भी गहरी है, माँ पर्वत सी विशाल है माँ के आशीषों से ही तो ऊँचा सबका भाल है । माँ ही शीतल फुहार है, माँ ही धूप और धाम है माँ के चरणों में ही तो बसते चारों धाम है। माँ से ही सब खुशियाँ हैं, माँ से ही सारे सपने हैं माँ से ही तो जीवन में होते रिश्ते सारे अपने हैं। माँ ही चोट पर मरहम है, माँ हर उलझन का हल है माँ से ह...
श्रमिकों की वंदना
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श्रमिकों की वंदना

प्रो. डॉ. शरद नारायण खरे मंडला, (मध्य प्रदेश) ******************** मजदूरों का नित है वंदन, जिनसे उजियारा है। श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।। खेत और खलिहानों में जो, राष्ट्रप्रगति-वाहक हैं। अन्न उगाते, स्वेद बहाते, सचमुच फलदायक हैं।। श्रम के आगे सभी पराजित, श्रम का जयकारा है। श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।। सड़कों, पाँतों, जलयानों को, जिन ने नित्य सँवारा । यंत्रों के आधार बने जो, हर बाधा को मारा ।। संघर्षों की आँधी खेले, साहस भी वारा है। श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।। ऊँचे भवनों की नींवें जो, उत्पादन जिनसे है। हर गाड़ी, मोबाइल में जो, अभिनंदन जिनसे है।। स्वेद बहा, लाता खुशहाली, श्रमसीकर प्यारा है। श्रम करने वालों से देखो, पर्वत भी हारा है।। गर्मी, सर्दी, बरसातों में, श्रम करने की लगन लिए। करना है नित कर्म, यही ...
अर्धनारीश्वर
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अर्धनारीश्वर

शशि चन्दन इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मुझसे गलती हो गई ऐसी भी क्या, जो तन पाया अर्धनारीश्वर का । ना प्रकृति न पुरुष में गणना हुई, जबकि अंश था मुझमें भी ईश्वर का।। बधाईयां गई मैंने घर घर जाकर, फिर कोख जानकी की क्यों सूनी मिली।। ढोल की थाप पे खूब थिरके पांव, क्यों न फिर केशव की रज धूलि मिली।। समाज ने सदा उपेक्षित भाव से देखा, ना शिक्षा का अधिकार न सम्मान पाया।। बीत गए दिन रैन काल कोठरी में, हर स्थान ही तो मेरे लिए शमशान पाया।। मां का आंचल छीना बाबा का कन्धा, जन्म को मेरे धिक्कार सा माना।। क्यों न रूप स्वरूप जैसा मिला था, वैसे ही जग ने सहज ही स्वीकार जाना।। जाते किस ओर कहो ना नर न नारी हम, चौदह वर्ष प्रतीक्षारत अपलक नैन रहे ।। हे राम अहो भाग्य जो तप की श्रेणी में आंका, आशीष वचन जो सिद्ध होते आपकी देन रहे।। झलकते हैं नीर झर झर आँखों से हरपल, प...
प्राण के बाण
कविता

प्राण के बाण

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर (मध्य प्रदेश)  ******************** मेरी लम्बी व लोकप्रिय कविताओं में आए छाँटे हुए उद्धरणीय कवितांश "प्राण के बाण" हैं। पाठकों में इन बाणों की विशेष चर्चा है। ये बाण दोहे नहीं हैं फिर भी‌ दोहे की तरह हर बाण अपना अलग व पूरा अर्थ देता है। सूक्तियों, कहावतों व लोकोक्तियों की तरह अपना कालजयी प्रभाव छोड़ने वाले प्राण के ये बाण प्रायः लावणी, ककुभ अथवा ताटंक छन्दों में होते हैं। एक कविता या एक प्रसंग के न होने से सभी बाण अलग अलग तारतम्य में हैं। पढ़िए। प्राण के बाण की एक किश्त ============= १. जब करती निराश असफलता आती विपदा घड़ी घड़ी। पड़ी पड़ी प्रतिभाएँ पागल हो जातीं हैं बड़ी बड़ी।। २. कापुरुषों के लगे निशाने महाशूरमा चूक गए। कोयल रही टापती मौका पाकर कौए कूक गए।। 3. जब कवियों ने बढ़ाचढ़ा कर, कौओं को खगराज कहा। व्याख्या करने वालो...