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कविता

रामराज्य लाते हैं
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रामराज्य लाते हैं

सोनल मंजू श्री ओमर राजकोट (गुजरात) ******************** आओ सनातनियों हम सब मिल-जुल कर, एक बार फिर से भारत में रामराज्य लाते हैं। ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी, जात-पात का, भेद मिटाकर चलो सबको गले लगाते हैं। नफरत और द्वेष को मन से दूर भगाकर आपसी अनुराग का गीत गुनगुनाते हैं। अपनी जिह्वा और वाणी में मिठास घोल, श्री राम के अवध लौटने का उत्सव मनाते हैं। हर घर, हर आंगन हो खुशियों में डूबा, पुष्प और दीपों से अवध को ऐसे सजाते हैं। करके मानवता की सेवा सारी दुनिया में, अपने आराध्य राम-नाम का ध्वज फहराते हैं। कितनी भी विकट हो स्थिति, या बिगड़े काम, उनके स्मरण से अटके हर काम बन जाते हैं। पूरे ब्रह्मांड में हम सब भारतवासी मिलके, 'जय श्री राम' के जयकारों की गूंज फैलाते हैं। पाठ्यक्रम में छोड़कर अकबर-बाबर को, बच्चों को रामायण-गीता के पाठ पढ़ाते हैं। आओ सनातनियों हम सब मिल-जुल क...
जिसका रहा ध्येय जीवन में
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जिसका रहा ध्येय जीवन में

अंजनी कुमार चतुर्वेदी निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** जिसका रहा ध्येय जीवन में, परमपिता को पाना। ज्ञानवान वह मानव जग में, जिसने खुद को जाना। उत्तम ध्येय सभी को जग में, है सम्मान दिलाता। हृदय सरोवर में, खुशियों के, सुरभित कमल खिलाता। रहा ध्येय जिनका जीवन में, बनें, दीन हितकारी। उनकी जीवन नैया हरदम, प्रभु ने पार उतारी। मन में ध्येय, देश सेवा का, जो मानव रखते हैं। शौर्य,पराक्रम दिखा, विजय का, स्वाद वही चखते हैं। जिनका ध्येय परम पद पाना, वही परम पद पाते। शबरी की महिमा मानस में, बाबा तुलसी गाते। जनहितकारी ध्येय जगत में, पूजनीय होता है। जिसका ध्येय अपावन होता, यश वैभव खोता है। रख,शुभ ध्येय, विभीषण जी ने, शरण राम की पाई। अशुभ ध्येय रख, दशकंधर ने, अपनी जान गवाँई। सदा सर्वदा निज जीवन में, पावन ध्येय बनाएं। पावन ध्येय प्राप्त करने को, प्रभु ...
फिर आ जाओ एक बार
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फिर आ जाओ एक बार

डाँ. बबिता सिंह हाजीपुर वैशाली (बिहार) ******************** हे वीर पथिक, हे शुद्ध बुद्ध! निर्मित तुमसे नवयुग का तन, बुन के संस्कृत का महाजाल, तुम फिर आ जाओ एक बार! जग पीड़ित हिंसा से हे लीन भू दैन्य भरा है दीनों से पावन करने को हे अमिश, तुम फिर आ जाओ एक बार! चेतना, अहिंसा, नम्र, ओज तुम तो मानवता के सरोज तंत्रों का दुर्वह भार उठा तुम फिर आ जाओ एक बार! हे अमर प्राण! हे हर्षदीप ! जर्जरित है भू जड़वादों से, लेकर यंत्रों का सुघड़ बाण, तुम फिर आ जाओ एक बार! तुम शान्ति धरा के सूत्रधार, रणवीरों के तुम हो निनाद युग-युग का हरने विपज्जाल, तुम फिर आ जाओ एक बार! नवजीवन के परमार्थ सार, इतिहास पृष्ठ उद्भव प्रमाण, भारत का भू है बलाक्रांत, तुम फिर आ जाओ एक बार! हे सदी पुरुष, हे स्वाभिमान! तुम हो भारत के अमित प्राण, इस धरा का हरने परित्राण, तुम फिर आ जाओ एक ब...
धर्म
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धर्म

शैल यादव लतीफपुर कोरांव (प्रयागराज) ******************** धार्यते इति धर्म:सर्वमान्य परिभाषा है धर्म की, धर्म में प्रमुखता है सर्वत्र बस केवल कर्म की। सद्कर्मों का अभाव जहाॅं वहाॅं कोई धर्म नहीं, धर्म हीन मानवों में रह सकता कोई मर्म नहीं। इस संसार में मानव का सर्वोच्च धर्म है मानवता, किंतु कुछ वर्षों से हावी‌ है सारे संसार में दानवता। जिसके हृदय में प्राणियों हेतु नहीं है कोई निष्ठा, दानवता की परिभाषा है वह नीचता की पराकाष्ठा। उच्च‌ मानव कुल में जन्म लेकर कार्य न‌ हों नीच, सद्गुणों सद्व्यवहारों की एक आदर्श रेखा खींच। संतानों की उत्तरोत्तर प्रगति में पिता का ही धर्म है, खेती के उत्पादन में केवल अपना‌ कठिन कर्म है। सभी लोग सुखी रहें ऐसी हो सबकी कामना, अनिवार्यतः किसी से नहीं होगा दुःख का सामना। इस धरा पर हैं अनेक जातियाॅं और धर्म भी, सबके भिन्न ...
ख़त
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ख़त

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** डायरी के पन्नों को पलटते-पलटते हमे याद आने लगे वो तुम्हारे खत कितने महके से हुआ करते थे वो ख़त खुशी का खजाना हुआ करते थे वो ख़त गहरी नींद से जगा दिया करते थे ख़त जागती आँखों में सलोने सपने संजोया करते थे वो ख़त दिल के ज़ज्बात से मुलाकात किया करते थे वो ख़त वक़्त की इस दौड़ में कहीं विलीन हो गए वो ख़त ना वो सपने रहे ना मीठी नींद देने वाले वो ख़त दूर तक फैली ख़ामोशियां हमसे ये सवाल करती हैं कभी-कभी तो बाते हजार करती हैँ चलो पुराने ख़तों से फिर से मुलाकात करते हैं शब्द तो अब भी छुपे होंगे उन पन्नों में क्या पता फिर से चल पड़े वो सिलसिलेवार ख़त!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए., एम.फिल – समाजशास...
बेवजह तुम कभी …
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बेवजह तुम कभी …

प्रशान्त मिश्र मऊरानीपुर, झांसी (उत्तर प्रदेश) ******************** बेवजह तुम कभी मुस्कुराया करो, मेरे सपनों में हर रोज आया करो। ये जरूरी नहीं चांदनी रात हो, अपनी यादों के दीपक जलाया करो। नफरतों की गली से कब गुजरना पड़े, प्रेम के गीत हर रोज गाया करो। जब कभी भी बिछड़ने के हालात हों, मुस्कुराकर गले से लगाया करो। जब कभी भी हमारी मुलाकात हो, सारे शिकवे गिले भूल जाया करो। मेरे हर लब्ज़ में तुम रहो बस सदा, तुम मुझे भी कभी गुनगुनाया करो। मैं कभी भी न पूरा तुम्हारे बिना, तुम अधूरा न मुझको बताया करो। हम बुरे ही सही,पर हैं आपके, प्रेम ऐसे ही हम पर लुटाया करो। परिचय :-  प्रशान्त मिश्र निवासी : ग्राम पचवारा पोस्ट पलरा तहसील मऊरानीपुर झांसी उत्तर प्रदेश शिक्षा : बी.एस.सी., डी.एल.एड., एम.ए (राजनीतिक विज्ञान) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है...
हे राम! क्यों प्रश्न तुम पर
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हे राम! क्यों प्रश्न तुम पर

डॉ. किरन अवस्थी मिनियापोलिसम (अमेरिका) ******************** हे राम, क्यों प्रश्न है तुम पर तुमने ही जग को साधा तुम्हीं जगत् के स्वामी क्यों संशय है तुम पर? कहां रहे तुम राघव! कबतक गांभीर्य दिखाओगे कितने दल-बल घायल होंगे कितने शहीद होंगे सैंधव? हे रघुनाथ दयालु तुम कब पुनः ताड़का तारोगे आज अहिल्या पार करा कर पुन शबरी को मोक्ष दिलाओगे ? यज्ञशाला की वेदी पर प्रतिदिन अगणित विध्वंस हुआ करते हैं कब खल दल का नाश करोगे कब धरिणी का पुन उद्धार करोगे? कैसे इतना दुस्साहस है कैसे तुम पर प्रश्न लगे हैं क्षतविक्षत जीर्णशीर्ण मन है आहत भारत माता का जन जन है हे दाशरथि तुम आ जाओ। मां वसुंधरा की करुण पुकार प्रत्यंचा पर कब तीर चढाओगे घायल वसुधा की पीड़ा हरने मर्यादा पुरुषोत्तम कब आओगे? जय जय सुरनायक, सब सुखदायक रघुकुल तिलक तुम आ जाओ। परिचय :- डॉ. किरन अवस...
प्राण प्रतिष्ठा और दुष्ट आत्माएं
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प्राण प्रतिष्ठा और दुष्ट आत्माएं

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, गोण्डा, (उत्तर प्रदेश) ******************** आज एक बार फिर यमराज का बिना किसी सूचना के मेरे घर आगमन हुआ, मैं पहले से ही दुखी था, अब और दुखी हो गया जैसे किसी ने मेरे घावों पर नमक रगड़ दिया। मैं कुछ कहता सुनता उससे पहले शायद उसने मेरे दर्द को महसूस कर लिया और बड़े आत्मीय भाव से कहने लगा, प्रभु! आप परेशान हो मुझे पता है पर आपकी परेशानी का सीधा सा उत्तर मेरे पास है। मैंने संयम बनाए रखा और बड़े प्यार से कहा यूं तो मैं परेशान बिल्कुल नहीं हूँ फिर भी तुम्हें यदि ऐसा लगता है तो तुम ही बता दो, मेरी परेशानी का हल दे दो। यमराज बोला-मुझे चेहरा और मन पढ़ना आता है यह अलग बात है कि मेरा राम मंदिर, निमंत्रण और राजनीति से दूर-दूर का नहीं नाता है। मैं बस रामजी को और रामजी मुझे जानते हैं मेरी वजह से थोड़ा-थोड़ा आपको भी पहचानते हैं, फिर भ...
हिंदी मेरी शान है
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हिंदी मेरी शान है

हरिदास बड़ोदे "हरिप्रेम" आमला बैतूल (मध्यप्रदेश) ******************** हिंदी मेरी शान है, हिंदी मेरी सरल पहचान। हिंदी मेरा वतन है, नित्य करूं मैं गुणगान।। हिंदी मेरी भाषा है, राष्ट्रभाषा सदा महान। हिंदी मेरी मातृभाषा, मातृभूमि का वरदान।। हिंदी मेरा सम्मान है, हिंदी राष्ट्र स्वाभिमान। हिंदी मेरे तन मन रहे, हिंदी मेरा अभिमान।। हिंदी की सेवा मैं करूं, श्री चरण में वंदन। हिंदी की रक्षा में सदा, अर्पण करूं जीवन।। हिंदी ही मेरी जान है, हिंदी मेरा हिंदुस्तान। हिंदी मेरी धड़कन में, जीवन मेरा कुर्बान।। हिंदी भारतवर्ष में, सर्व धर्म का समाधान। हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, राष्ट्र में योगदान।। हिंदी में सबका सार है, गीता ग्रंथ रामायण। हिंदी सबकी जननी है, जग में एक प्रमाण।। हिंदी से जल जंगल जमीन, हिंदी से किसान। हिंदी राष्ट्र भारत की सुरक्षा, करे मेरा जवान।। हिंद...
काँटे क़िस्मत में हो
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काँटे क़िस्मत में हो

गोपाल मोहन मिश्र लहेरियासराय, दरभंगा (बिहार) ******************** काँटे क़िस्मत में हो तो बहारें आयें कैसे, जो नहीं बस में हो उसकी चाहत घटायें कैसे I सूरज जो चढ़ता है करते है उसको सब सलाम, डूबते सूरज को भला ख़िदमत हम दिलायें कैसे I वो तो नादान हैं समंदर को समझते हैं तालाब, कितनी गहराई है साहिल से बतायें कैसे I दिल की बातें हैं दिल वाले समझते हैं जनाब, जिसका दिल पत्थर का हो उसको पिघलायें कैसे I परिचय :-  गोपाल मोहन मिश्र निवासी : लहेरियासराय, दरभंगा (बिहार) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेत...
स्वागत शिशिर का
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स्वागत शिशिर का

विवेक नीमा देवास (मध्य प्रदेश) ******************** पौष माह की श्वेत धुंध में आओ करें स्वागत शिशिर का आँख मिचौली खेल रहा जो घन में लुक-छुप रहे मिहिर का। धवल गिरि के शिखरों पर भी वृक्ष लताएँ सिकुड़ी सिमटी खेत, वाटिका उपवन में भी पत्तों पर है शबनम लिपटी। कोहरे की चादर में देखो छुप कर बैठा है प्रभात भी सूरज के डूबते ही देखो ठिठुर-ठिठुर ढल रही रात भी। तिल गुड़ की मिठास से देखो महक उठी रसोई सभी की दिनभर पसरी दिखती देखो बिस्तर में रजाई सभी की। मालकोंस के गूंज रहे स्वर सिगड़ी इठलाती जलकर चौपालों पर अलाव जले ताप रहे तन जन मिलकर। कुदरत के आँचल में भरा षड ऋतुओं का खजाना जीवन को सुंदरता देता इन ऋतुओं का आना जाना। परिचय : विवेक नीमा निवासी : देवास (मध्य प्रदेश) शिक्षा : बी कॉम, बी.ए, एम ए (जनसंचार), एम.ए. (हिंदी साहित्य), पी.जी.डी.एफ.एम घोषणा पत्र : मैं यह प्रमा...
विधाता मेरे
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विधाता मेरे

गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" बमोरी, गुना (मध्यप्रदेश) ******************** तू ही बता विधाता मेरे, क्या ऐंसा ही जीवन होगा।। कुंठित कोख़ आई की होगी व्यथित बाप का मन होगा। सोचा नही होगा ख्यालों में, कि-बेइज्जत यूं ये तन होगा।। नीर भरे निर्मल नयनों से, कैसे वो उऋण होगा। तुही बता विधाता मेरे, क्या ऐंसा ही जीवन होगा।। हस-हस सही असह पीड़ा, संतति सुख की चाह लिए। सुरभित हों सपनों के सुमन, लाखों जुवा की वाह लिए।। दुखा ह्रदय 'मापा' का, नही पूरा कोई प्रण होगा। तुही बता विधाता मेरे, क्या ऐंसा ही जीवन होगा।। ग़जभर माटी के बंटबारे को, मापा मुश्किल में डाल दिए। छीन कमाई खून-पसीने की, निज, घर से तूने निकाल दिए।। तेरा भी होगा हस्र बुरा, तेरे हिस्से भी कफ़न होगा। तुही बता विधाता मेरे, क्या ऐंसा ही जीवन होगा।। मात-पिता से बढ़के भू पर, नही मूरत भी भगवान की। जिसने ...
समता और न्याय
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समता और न्याय

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** कहां जाएं, कैसे पायें? संविधान के युग में भी नहीं मिल रहा समता और न्याय, आजादी के इतने वर्षों बाद भी कुछ लोगों की मानसिकता आज भी सालों पुरानी वाली है, जो कुचक्रों, कुंठाओं से भरी है बिल्कुल नहीं खाली है, जहां समता दिखने चाहिए वहां ये समरसता की बात करते हैं, मुंह से इंसाफ की राग गाएंगे और दिलों में मसल डालने की चेष्ठा कुख्यात रखते हैं, जब सम की भावना ही नहीं तब न्याय मिलना असंभव है, पर तथाकथित उच्च व रईसों के लिए न्यायालय खुलना रात में भी संभव है, पर दमितों, दलितों के लिए न्याय कहां हैं? उनके मामले पीढ़ियों तक खींचाता है, मरने के बाद न्याय की अंतिम तारीख आता है, जहां विषमता है वहां न्याय की उम्मीद किससे व कैसे? जाति-पाति, ऊंच-नीच से इंसाफ तय होता है, समता के बिना न्याय बिकने लग...
मेहमान बन के
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मेहमान बन के

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* मेहमान बन के आये थे, मकीं बनके बैठ गये, आसमां के चंद टूटे हुए क़तरे, ज़मी बनके बैठ गये, वैसे तो ऐसा कोई दर्द न था, जाने क्यों अश्क़ पलकों पे नमीं बन के बैठ गये, बस दो कदम साथ चलने का ही वादा था, कब कैसे वो, हमनशीं बन के बैठ गये, शरिकेग़म थे वैसे तो वो मेरी हर नफ़स के, भरी बज़्म में न जाने क्यों वो, अज़नबी बन के बैठ गये। ठहाकों से भरी बज़्म लूटने वाले, क्यों अचानक इतनी सादगी बनके बैठ गये। भले बुरे की परख अब वो ही जाने, मुझे परखने के लिए, पारखी बनके बैठ गये। परिचय :- शिवदत्त डोंगरे (भूतपूर्व सैनिक) पिता : देवदत डोंगरे जन्म : २० फरवरी निवासी : पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है। ...
लो जी आ गया साल नया
कविता

लो जी आ गया साल नया

गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" बमोरी, गुना (मध्यप्रदेश) ******************** लो जी आ गया साल नया दे न कर खड़ा बबाल नया। देखे जो स्वप्न हों सब पूरे आये न फिर भूचाल नया। तारों-सा हिलमिल रहें सदा बिछाए न कोई जाल नया। भुला के सारे शिक़वे-गिले सजाए सुंदर ख्याल नया। गूंजे गीत सद्भाव-शांति के मिलजुल करें कमाल नया। जियें औऱ जीने दें सबको समरसता हो सवाल नया। नववर्ष में नवल लक्ष्यों में आओ हम भरदें उबाल नया। हर प्राणी-पूर्णिमा-सा निखरे "गोविमी" शुभ सकाल नया। परिचय :- गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" निवासी : बमोरी जिला- गुना (मध्यप्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्र...
काश
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काश

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** काश तुम जिंदा होती सपने अधूरे वादे अधूरे सब बात अधूरी साथ अधूरा सपने परेशान करते यादों को बार बार दोहराते नींद से उठ बैठता गला सूखने पर मांगता था पानी अब खुद उठ कर पीता हूं पानी काश तुम जीवित होती बीमारी में मुझे छोड़कर न जाती तुम बिन सब अधूरे अगले जन्म में होगी साथ काश यही तो है विश्वास। परिचय : संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता : श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि : २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा : आय टी आय निवासी : मनावर, धार (मध्य प्रदेश) व्यवसाय : ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन : देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "दरवाजे पर दस्तक", खट्टे मीठे रिश्ते उपन्यास कनाडा-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के ६५ रचनाकारों में लेखनीयता में स...
लो पूरा जीवन बीत गया
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लो पूरा जीवन बीत गया

हंसराज गुप्ता जयपुर (राजस्थान) ******************** लो पूरा जीवन बीत गया समर्थ समय था, व्यर्थ गया, होता जीवन का अर्थ नया, अनमोल समय, हर घड़ी घड़ी, लिख जाते हम संगीत नया, लो पूरा जीवन बीत गया, लो जीवन पूरा बीत गया। १। लिया ना राम का नाम कभी, और करने हैं शुभ काम सभी, कल थी जवानी, परसों बचपन आज बुढ़ापा मीत नया, लो पूरा जीवन बीत गया, लो जीवन पूरा बीत गया।२। श्याम-श्वेत कभी छद्म-वेष, और प्यार प्रेम कभी कलह क्लेश, आने-जाने उठने-सोने, खाने-पीने हंसने-रोने, ये दौड़ भाग आपाधापी, और उठा पटक दूरी नापी, मन की गुन-गुन, सबकी सुन-सुन, परिवेश वही फिर जीत गया, लो पूरा जीवन बीत गया, लो जीवन पूरा बीत गया।३। रिश्ते जनम करम के गहरे, पलकों में रहते जो चेहरे, सपनों की तन्द्रा से अपना, पल में ही नाता टूट गया, हर साथी पीछे छूट गया। सोने से जडा, माटी का घडा, था सुघड सलौना, फूट ...
बिगड़े न बातों में बात
कविता

बिगड़े न बातों में बात

ललित शर्मा खलिहामारी, डिब्रूगढ़ (असम) ******************** कभी-कभी समझ में नहीं आती बात समझ के फेर में उलझ जाती बात कभी-कभी बिगड़ी बात तिल का ताड बनकर लाइलाज बन जाती जीवन जीने की बात बिगड़े काज सुधार भी जाती कुछ अच्छी बात जीवनभर जुबान पर कायम रहती अच्छी बात सबसे भारी पड़ जाती जीवन में कई कड़वी बात बिना बुलावे अक्सर कई कारणों में कई बार जुबान पर चली आती है कुछ चुभती बात बीमारी सी हालात कर देती है बात ही बात कभी कभी मन को बेचैन कर जाती जीवन जीने की बात फिर भी शांति सगुन भरने की समझ से परे रहती जीवन जीने की बात नहीं समझ आती जीवन जीने की बात कोई राह नहीं नजर आती बात ही बात में बिगड़ती जाती बात में बात तिल से ताड में उलझ जाती जीवन जीने की तमाम बात कभी कभी खुशियां लाती बात कभी मातम ले आती बात आती चली जाती आती चली जाती कभी कभी दुश्मनी की दीवार खड़ी क...
वहम होता है
कविता

वहम होता है

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* वहम होता है, सितारे कभी टूटा नहीं करते, उड़ा के शिगूफे ख़ुद ही, लूटा नहीं करते, कसैले होते हैं, अक्सर शिकवों के वार, कड़वी बातों से कभी मुंह जूठा नहीं करते, लौट के फिर आ मिलता है, अपना ही कर्मदण्ड, आसमां की तरफ मुँह करके, कभी थूका नहीं करते, उमर भर का लेखा जोखा होता है, यूँ तिनको को संभालना, बना के अपना ही आशियाना, ख़ुद ही फूंका नहीं करते, वज़ह लापरवाही है या और ही कुछ शायद, यूँ हमसफर तो कभी, रस्तों पे छूटा नहीं करते, माना के शिकवे गिलों का बोझ नहीं सँभलता, जान बूझ कर तो, अपनी छाती कूटा नहीं करते, बादलो जी भर के तर कर दो, ज़मीं का जिस्म, बिना नमीं के तो ज़मीं में, अंकुर फूटा नहीं करते। परिचय :- शिवदत्त डोंगरे (भूतपूर्व सैनिक) पिता : देवदत ...
बचपन
कविता

बचपन

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** उम्र हो गई है अब मेरी पचपन। नहीं भूल पाया हूं अब तक बचपन। न किसी की चिंता थी न कोई फिक्र थी। दुनियां में कुछ भी होता रहे हमारी जिंदगी बेखबर थी। हमेशा अपनी मस्ती में मस्त रहते थे। मां को छोड़कर अन्य किसी से नहीं डरते थे। "माल्या"नही थे फिर भी जहाज चलाते थे। बरसात के पानी में कागज़ की नांव चलाते थे। सारा दिन खेलना कूदना सारा दिन मस्ती करना रोना और हंसना कभी चुप नही रहना। व्यापार का खेल खेलकर लाखों रुपये कमाए। तब शायद आज हम सच्चे व्यापारी बन पाए। चिंता और तनाव शब्द हमारे शब्द कोश में नहीं था। जिंदगी में एक अलग प्रकार ही का मजा ही था। बीत गया बचपन बस उसकी यादें अब शेष है। मेरे जीवन में बचपन का महत्व विशेष है। परिचय : डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" निवासी : चिनार-२ ओमेक्स पार्क-...
छटपटाती स्त्री
कविता

छटपटाती स्त्री

डॉ. अर्चना मिश्रा दिल्ली ******************** स्त्री बन सोचा क्या-क्या ना करूँगी उन सभी दक़ियानूसी सोच को दरकिनार करूँगी। बंद अन्धेरें कमरों में आहें मैं ना भरूँगी । लूटी हुई अस्मत का बोझ यूँ अकेले ना सहूँगी। रोज़ अपने स्वाभिमान को तिलांजलि दें, तुम्हें खुश मैं ना करूँगी। हर जगह त्याग की मूर्ति मैं ना बनूँगी। अश्लील बातें और बेवजह के तानों को कानो में ना पड़ने दूँगी। कहीं झुरमुट के किनारे फटें गले चीथड़ों में मैं ना मिलूँगी। विभत्स नंगा नाच जो हो रहा समाज में, मैं इसका हिस्सा ना बनूँगी। बचपन से यही सोचती आई पर हक़ीक़त कुछ और ही नज़र आयी। यूहीं ज़बरदस्ती धकेला गया मुझे भी इस मूक बधिर समाज में। जैसे मेरे अंदर प्राण ना होकर कोई सामान हो । कुत्सित विचारों और कुत्सित सोच का ही परिणाम हूँ। हाँ इसीलिए मैं परेशान हूँ मेरे अंदर भी जलता हुआ एक श्मशान है, रोज़ ह...
जिंदगी कब बेमानी हो जाये
कविता

जिंदगी कब बेमानी हो जाये

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** उम्मीद पाल हर कोई चलता है कि जिंदगी सुहानी हो जाये, कब किसे क्या पता जिंदगी कब बेमानी हो जाये। मत कर उम्मीद कि नफ़रत पालने वाले दिल से गले लगाये, क्या पता जिंदगी कब बेमानी हो जाये। उलझा हुआ है कौन कब कितनी झंझावतों में, कहां पिस रह जाये किस किस की अदावतों में, संबल की आस वाले जब लूटने लगे भरम, सितम भगाने वाले खुद बन जाये सितम, मौत ही पक्का जब निशानी हो जाये, क्या पता जिंदगी कब बेमानी हो जाये। फरेब संग रहकर जब जटिल जाल बुने, दिल का हरा आंगन लगने लगे जब सुने, अनुराग और प्रेम जब लगाने लगे चुने, अहसास नहीं होता अपने अपनों को भुने, अपनों से अपनेपन का विश्वास जब खो जाये, क्या पता जिंदगी कब बेमानी हो जाये। परिचय :-  राजेन्द्र लाहिरी निवासी : पामगढ़ (छत्तीसगढ़) घोष...
अनाथ बच्चा
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अनाथ बच्चा

देवप्रसाद पात्रे मुंगेली (छत्तीसगढ़) ******************** अनाथ बच्चा बेसहारा हूँ। जीवन के सफर में हारा हूँ।। जब भूख लगे न मिले भोजन भूख की अग्नि में जले तनमन बिगड़ी हालात का मारा हूँ। जीवन के सफर में हारा हूँ... मह-मह करती होटल में बनती रोटियाँ झाँकता हूँ। इस पापी पेट की आग बुझाने हरदम मौके ताकता हूँ।। कहते हो लोफर आवारा हूँ जीवन के सफर में हारा हूँ... दे दो न दीदी भैया कहकर हर दिन हाथ फैलाता हूँ। मिले भोजन कभी मिले नहीं पानी से प्यास बुझाता हूँ।। असहनीय दुखों का पिटारा हूँ। जीवन के सफर में हारा हूँ... पढ़ना चाहूँ मैं भी लेकिन हाथ में कलम न किताब है। ढूंढ रहा सुकून का जीवन बस भूख का हिसाब है। कूड़े करकट सा किनारा हूँ। जीवन के सफर में हारा हूँ।। रोटी की खातिर घूमता रहता। हरदम मैं मारा जाता हूँ। होटल-गलियों स्टेशनों चौराहों में दुत्कारा जाता हूँ। कड़वा पानी ...
तेरा-मेरा साथ सुहाना
कविता

तेरा-मेरा साथ सुहाना

बृजेश आनन्द राय जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** तेरा-मेरा साथ सुहाना। ऐ 'चन्दा'! तुम ॲगना आना।। बचपन से ही साथ रहें तुम किस्सों की 'बहु-बात' रहे तुम संग तुम्हारे तारे देखे 'विस्तृत-क्षितिज-किनारे' देखे जब-जब पहलू में तुम आए मीठे-मीठे सपने लाए 'सपनों में फिर याद समाना'। ऐ चन्दा! तुम ॲगना आना।। सॉझ रहे तुम मेले में जब लौट न सका अकेले में तब साथ तुम्हारे यादें आईं यादों में हॅस, रातें-आईं साथ मेरे तुम छत पे आए नभ से आ ऑखों में छाए फिर ऊपर-नीचे तक छाना। ऐ चन्दा! तुम ॲगना आना।। जलधारा में विम्ब तुम्हारे मन्दिर-मन्दिर दीप तुम्हारे कदली-वट-ॲवला-पीपल-तरु- 'तुलसी-चौरा', 'रीत-तुम्हारे' तुमने श्रद्धा के ऑचल में कितने दीपक-राग सजाए अर्चन बन गया 'गान-पुराना'। ऐ चन्दा! तुम ॲगना आना।। परिचय :-  बृजेश आनन्द राय निवासी : जौनपुर (उत्तर प्रदेश) सम्म...
गरीबी
कविता

गरीबी

किरण पोरवाल सांवेर रोड उज्जैन (मध्य प्रदेश) ******************** जीवन में क्या क्या ना कराती गरीबी, झूठन के बर्तन, झाडू और पोछा, ऊपर से चार ताने सुनाती हे ये गरीबी। हथोडा और पावडा, गेती और तगारी, ठंडी हो या हो बारिश, गर्मी मै पसीना बहाती गरीबी। सेठो के बोल सहना थैलो का बोझ सहना, हर वक्त ठेला ढोना, सीखाती हे ये गरीबी। रूखी और सुखी खाना, जीवन को हे चलाना, बच्चों को एक भिखारी बनाती हे ये गरीबी। कोई तो भीख मांगे कोई जेब हाथ मारे, कोई चोरी और डाका डाले, हाथो मै हथकड़ी डलवाती है ये गरीबी। तुम गरीबो को दो सहारा, जीवन को दो किनारा, तुम बाँह उनकी थामो, रोजगार से लगा दो, बन जाये उनका जीवन, धन व्यर्थ ना गँवावो, गरीबी के दिन हे भारी, अमीर की रात न्यारी, जरा सोचकर तो देखो, तुम सूट पेन्ट वालो परिचय : किरण पोरवाल पति : विजय पोरवाल निवासी : सांव...