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कविता

ढूँढ रही हैं आँखें किस को
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ढूँढ रही हैं आँखें किस को

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* ढूँढ रही हैं आँखें किस को क्या खोया कुछ खबर नहीं है. भटकन-तड़पन-बेचैनी है सब है लेकिन सबर नहीं है। क्या ऐसा था गुमा दिया जो जिसको ढूँढ रही हैं आँखें ग़लत दिशा में हो बाहर की बाहर कोई डगर नहीं है। खुद में ही खुद मंजिल अपनी खुद में ही खुद रस्ता अपना जो खोया खुद में खोया है किसी शहर किसी नगर नहीं है। कैसी तुम को बेचैनी है पहले खुद में खुद पहचानों कैसी भी आफ़त हो खुद में आखिर खुद से जबर नहीं है। ग़ाफ़िल-सा दौड़े खुद में ही खुद का कोई होश नहीं है ज़रा सुकूँ भी पा नहीं पाओ जो गर खुद में ठहर नहीं है। कुछ न कुछ तो खोया लगता कुछ न कुछ असआर ग़लत हैं या तो ये फिर ग़ज़ल नहीं है या फिर इसमें बहर नहीं है। क्या चाहा क्या पा जाओगे क्या मर्ज़ी का जी जाओगे? मरे-मरे जीना पड़ता है यहाँ हौसल...
सरल ह्रदय छला जाता है
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सरल ह्रदय छला जाता है

प्रमेशदीप मानिकपुरी भोथीडीह, धमतरी (छतीसगढ़) ******************** एक दिन बदल जाता है सच्चा मन भी बार-२ दोष दो बदल जाता जीवन भी बदलाव से सहजता ही चला जाता है सरलता से युक्त मन ही छला जाता है मानस के मति की अब कहनी क्या है जीवन समर की आगे नियति क्या है चंचल मन जो वक़्त पर बदल जाता है सरलता से युक्त मन ही छला जाता है जीवन बन गया क्या कठपुतली जैसा आरम्भ क्या और इसका अंत ये कैसा जो दूसरों के इशारे कैसे चला जाता है सरलता से युक्त मन ही छला जाता है छलते है लोग जब तक है आप सरल छलाते हुये अक्सर पी लेते कटु गरल खेला किसी के मन से खेला जाता है सरलता से युक्त मन ही छला जाता है सरल हृदय जब पत्थर जैसे बन जाता सहजता सारी मानस से निकल जाता अब उसे ही पत्थर दिल कहा जाता है सरलता से युक्त मन ही छला जाता है सच की राह मे चलने से डरते है लोग आडम्बर और दिखावे मे उलझें लोग सच नहीं...
अमूल्य रत्न ..
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अमूल्य रत्न ..

गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" बमोरी, गुना (मध्यप्रदेश) ******************** अट्ठाईस दिसम्बर सन सैंतीस, अवतरण नवल निकुंज, बिखरा जननी सोनू के दामन, अत्युत्तम प्रकाश पुंज। उद्योग जगत क़े अमूल्य रत्न थे, ये दानवीर रतन टाटा, मानवार्थ रहते थे सदैव समर्पित, भुला व्यापार में घाटा। भारतीय उद्योग जगत का जग ने, लोहा माना था सहर्ष, सूई से लेकर हवाई जहाज तक, भारत ने किया उत्कर्ष। पायी शिक्षा स्नातक रतन ने, कार्नेल विश्वविद्यालय से, पचास मिलियन डालर दान की, रख भाव हिमालय से। कम मूल्य पर "टाटा नैनो" लाए, हो उठे उपभोक्ता मगन कर्मपथ पर चलकर ही बनता, स्वर्णिम सबका जीवन। अविवाहित रहना रतन जी का, हर मन को खल गया, शायद किसी की यादों में ही, जीवन सारा निकल गया। पदम् विभूषण, पद्म भूषण से, अलंकृत थे रतन टाटा, नैस्कॉम ग्लोबल लीडरशिप से, शोभित रहे रतन टाटा। नों अक्ट...
आज के आज
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आज के आज

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** देखता हूं आज का काम आज, बेवजह पाल के नहीं रखा हूं रिवाज, हाड़तोड़ मेहनत दिन भर की करता हूं, देखता हूं आज को कल पर नहीं विचरता हूं, दुनिया के लोग कहते हैं 'कल किसने देखा', मुझे कल को देखने की जरूरत भी नहीं, तभी चैन की नींद सो पाता हूं, ज्यादा लंबा दिमाग नहीं लगाता हूं, यदि नींद ही नहीं होगी, तो बन सकता हूं रोगी, अतः मुझे रोग नहीं पालना, आज का आज कल पर नहीं डालना, कल के बारे में सोचने के लिए दुनिया में भरे हैं और लोग, चिंता से उबर नहीं पाते भले ही खाएं छप्पन भोग, न किसी देवता से आस न किसी काले जादू का डर, क्योंकि हमें फुरसत नहीं दिन भर, काम कर अपनी उमर बढ़ाता हूं, बचत,निवेश और टैक्स चोरी की संभावित झंझट में नहीं आता हूं, मरने का डर नहीं तभी तो जीना आता है, डरपोक दिन में कई कई ब...
धर्मयुद्ध
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धर्मयुद्ध

संजय कुमार नेमा भोपाल (मध्य प्रदेश) ******************** धर्मयुद्ध के महासंग्राम में सत्य सदा अजेय रहा। रणभेरी बजेगी, अब धर्म युद्ध का घोष करो। खुद को तुम निर्दोष करो। जो धर्म के साथ खड़ा रहा वह योद्धा रहा। रण में अब कूद पड़ो। शंखनाद करो, तुम प्राचीरों से धर्म युद्ध अविलंब करो। कौन कहता है, महाभारत का युद्ध था। वह तो सिर्फ धर्मयुद्ध का जयघोष रहा। धर्म युद्ध अब सज रहा, सारथी मार्ग प्रशस्त करो। कारण जो भी हो, सच के साथ कृष्ण सदा खड़ा रहा। इतिहास कहता है, धर्म युद्ध में सत्य का प्रहार रहा। चाहे विजय मिले या हर मिले, सत्य कर्म का युद्ध रहे। चाहे वीरगति मिले या विजय मिले, धर्म रक्षा के लिए तू अब क्यों बैठा है। धर्म के साथ जो न रहा, वह धर्म युद्ध के विरुद्ध रहा। परिचय :- संजय कुमार नेमा निवासी : भोपाल (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि सर्व...
आदर्श
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आदर्श

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** आदर्श युवा की पहचान जैसे अब कम दिखाई देती बुरे व्यवसनो की बेड़ियों ने शायद जकड़ रखा हो। युवा समाज का उत्थान करना चाहे तो क्या और कैसे करें कोई नही बताता। युवा को तलाश है जागरूकता के तरकश की जिसमे पड़े तीर को भी इंतजार है व्यवसन रूपी राक्षस को मारने का कोई तो आएगा युवाओं को आदर्श का पाठ पढ़ाने जो व्यवसन मुक्त कर समाज के युवाओं का उत्थान कर सकें। परिचय : संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता : श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि : २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा : आय टी आय निवासी : मनावर, धार (मध्य प्रदेश) व्यवसाय : ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन : देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और रचनाओं का प्रकाशन, प्रकाशित काव्य कृति "दरवाजे पर दस्तक", खट्टे मीठे रिश्ते उपन्यास कनाडा-अंतर...
ज्ञान एवं अज्ञानता
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ज्ञान एवं अज्ञानता

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** ज्ञानी-अज्ञानी में केवल एक मात्रा का अन्तर है जो मनुष्य के साथ निरंतर है ज्ञानी मृत्यु की वास्तविकता को सहज रूप मे लेता है अज्ञानी संसारी होता है मृत्यु पर क्रंदन करता है! ज्ञान रोने के कारण को मिटा देता है अज्ञान नित नए रोने के कारणों में उलझता जाता है , ज्ञानी हर परिस्थिति में प्रसन्नचित्त होता है वो जानता है समझता है, जो कुछ भी छूट रहा वो मेरा नहीं इस जनम में कुछ भी "मेरा-तेरा" नहीं एक अखंड सत्य है आत्मा का आना जाना परिवर्तन, शाश्वत सत्य है, समझता है! संसारी रूदन करता है, जो कुछ मिला वो उसे अपना अधिकार समझ, स्वयं के परिणामों के फलस्वरुप प्राप्त किया, यही समझता है, जो कुछ छूट रहा उस पर अपना ही प्रभुत्व मान रुदन करता है, यही ज्ञानी-अज्ञानी में भेद का कारण होता है यही अशांति क...
जब भावों में जीते हो
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जब भावों में जीते हो

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* जब भावों में जीते हो तो जीवंत हो, हृदय में हो जब विचार में जीते हो मूर्छा में हो, मस्तिष्क में हो। हृदय और बुद्धि एक नही हृदय आपका स्वभाव है उसका अनुभव सत्य का अनुभव है उसकी सुनना ही वास्तविक धर्म है जब बुद्धि में जीते हो बुद्धि से निर्णय लेते हो तब अस्तित्व की अनंत संभावनाओं से चूक जाते हो बुद्धि का और प्रेम का कोई संबंध ही नहीं. बुद्धिमान, चालाक और चतुर प्रेम कर ही नही सकते वे प्रेमी हो ही नही सकते उनके लिए प्रेम व्यर्थ है वे बुद्धि के तल पे जीते हैं लाभ और हानि के गणित में पड़ते हैं और प्रेम से चूक जाते हैं उनके लिए भावजगत संवेदना का जगत निर्मूल्य है महत्वहीन है। वे एक नीरसता भरे जीवन में अकेली पड़ गई आत्माए हैं जो मृत मुर्दा वस्तुओ के लोभ से ग्रसित हैं वे मरणासन्न हैं, य...
सही मैं हमेशा से हूं
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सही मैं हमेशा से हूं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मुझे बचपन से छोड़ दिया गया था अपनों से दूर गैरों के घर, मजबूरन हो रहा था मेरा बसर, मेरे ही पिता का दिया वे भी खा रहे थे, पर मुझे हरामखोर कह नित गरिया रहे थे, खैर मुझे सहना ही था, उन्हीं के साये में रहना ही था, दूसरों के घर रहना खाना मेरी गलती नहीं थी, बड़ा हुआ तो देखा हालात बदला हुआ, भावनाएं अभी था मचला हुआ, लगना पड़ा घर को संभालना, सभी सदस्यों को काम कर पालना, विवाह, बच्चे के बाद भी कोई सुख नहीं देखे, नहीं चिंता गांव समाज को लेके, पढ़ा लिखा था तो मिला नौकरी, करने लगा सरकारी चाकरी, न कोई बुराई न कोई लत था, बताओ मैं कहां गलत था, संपूर्ण परिवार को खुद संभाला, सबने अलग कर घर से निकाला, बराबर होती रही बुराई, किसी को याद न रहा मेहनत और कमाई, आई रिश्तों में दरार और गफ़लत था, आप ह...
वाचाल सफर
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वाचाल सफर

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** मौन रास्तो का वाचल सफर किनारे झाड़ियों के झुरमुट का अथकार ठिठुरती देह को न अलाव हैं न ठहराव खुली किताब है जिंदगी अपनों के लिये कारवां के ठहराव का प्रश्न नहीं उठता। चलते राहें कदम को रोकना, टोकना नामुमकिन है पर रास्तों के मोड़ चिर निद्रा से जगाकर अतीत की गहराईयों में ले जाते हैं कोई नहीं जानता, न जानना चाहता है न सोचना की सत्य क्या है पुनः समानांतर राह पर आकर झंझावावातो के चकृवातो में फंस जाता है। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ी आप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले ३० वर्षों से ध...
लाठी
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लाठी

गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण" इन्दौर (मध्य प्रदेश)  ******************** बाल कविता कुत्ता पीछे पड़ा दिखा धरती पर पटक जड़ी लाठी। प्राण बचा कर कुत्ता भागा लेकिन खड़ी पड़ी लाठी।। झुकती नहीं टूट जाती है अक्सर बहुत कड़ी लाठी। टुकड़े-टुकड़े हो जाती है कहते रहो लड़ी लाठी।। जब से टूट गई दादा की लकड़ी की तगड़ी लाठी। दादीजी मोटू से बोली ले आ नई छड़ी लाठी।। छोटू-मोटू दोनों भाई लेने चले बड़ी लाठी। धीरे-धीरे चले देखते कहाँ मिले कुबड़ी-लाठी।। बाँसों का बाजार लगा था,बिकती जहांँ छड़ी लाठी। एक परखने को हाथों में मोटू ने पकड़ी लाठी।। उन्हीं लाठियों में लोहे से देखी मूँठ जड़ी लाठी। छोटू बोला यह खरीद लो मोटू तुम तगड़ी लाठी।। छोटी नहीं मिलेगी मोटू ले लो यही बड़ी लाठी। दादा जी के लिए सहारा होती है कुबड़ी-लाठी। लाठी लेकर घर जब पहुँचे कर दी द्वार खड़ी लाठी। दादा खुश हो गए दे...
ऐ ! चौथ के चांद
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ऐ ! चौथ के चांद

निरूपमा त्रिवेदी "नीर" इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** ऐ ! चौथ के चांद तुम आना हर साल लाना आशीष साथ करूं मैं पूजन उपवास दमके बिंदिया मेरे भाल लगाके मेहंदी अपने हाथ सजा के टीका भी माथ पहन के नथ सुहाग ओढ़कर चुनरिया लाल खनकाऊं चूड़ियां हाथ पहनूं पायल बिछिया पांव मंगलसूत्र रहे सदा साथ नैनन लगा कजरा केश सजाऊं गजरा पिया का पाऊं संग प्रीत का घुले रंग गले में बाहों का हार मिले सजना का प्यार रहे मेरा सुहाग अमर सजाऊं मांग सदा सिंदूर परिचय :- निरूपमा त्रिवेदी "नीर" निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना, स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिन्दी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं छायाचित्र के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्ट्र...
चांद की टीस
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चांद की टीस

माधवी तारे लंदन ******************** चांद आधा आज गगन में कहता है धरती को मन में क्यों मैं पूरी चमक दिखाऊं जब श्रद्धा ही न हो विश्व में जनता भटके भ्रमण ध्वनि में समय नहीं है उनको घड़ी पल बंद कमरे में वीडियो गेम पर देखा करते कृत्रिम चांद बेदर्द पड़े दिल सर्द पड़े भटक-भटक ये कहां चले मुझ पर न किसी की नज़र पड़े कहता है चांद मायूसी में सत्ता की धुन में खोए कुछ अमर्यादित चाल चले ऐश्वर्य का संचयन करते-करते कुमार्ग का चयन कई लोग करें कैसे चमकूं पूरा मैं फिर भारत की संस्कृति छूटी चलते सब पश्चिमी पथ पर कैसे चमकूं पूरा अब मैं यह सोच रहा है चांद मन में अकूत ऐश्वर्य का था वो मालिक स्वयं रहा सदा सादगी में विकास के उस रतन को आखिरी नमन करने आधा ही आया मैं नभ में परिचय :-  माधवी तारे वर्तमान निवास : लंदन मूल निवासी : इंदौर (मध्य प्रदेश) अध्यक्ष : अंतर्राष्ट्रीय ह...
बिखरे ना प्रेम का बंधन
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बिखरे ना प्रेम का बंधन

अंकुर सिंह चंदवक, जौनपुर, (उत्तर प्रदेश) ******************** अबकी जो तुमसे बिछड़ा, जीते जी मैं मर जाऊंगा। भले रहूं जग में चलता फिरता, फिर भी लाश कहलाऊंगा।। रह लो मुझ बिन तुम शायद, पर, जहां मेरा तुम बिन सूना। छोड़ तुम्हें अब मैं ना जाऊंगी, भूल गई क्यों ऐसा कहा अपना? एक प्रेम तरु के हम दो डाली, कैसे तुम बिन हवा के टूट गई? जीना चाहा था तुम्हारे वादों संग, फिर तुम मुझसे क्यों रूठ गई? कभी तुम सुना देती थी कभी मैं, लड़ रातें सवेरे एक हो जाते थे। जिस रात तुम्हें पास न पाया, उस रात मेरे नैना नीर बहाते थे।। सात जन्मों का है जो वादा, हर हाल है उसे निभाना। मिलकर हम खोजेंगे युक्ति, जग बना यदि प्रेम में बाधा।। अबकी जो तुमसे बिछड़ा, आहत मन से टूट गया हूं। पढ़ रही हो तो वापस आओ, तुम बिन मैं अधूरा हूं ...।। मांगता हूं गलतियों की क्षमा, हाथ जोड़ कर रहा कर वंदन। गलत...
दिल की गहराईयों में …
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दिल की गहराईयों में …

डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी ******************** तुम्हारी याद मुझे हर वक्त आती है। दिल की गहराईयों में समा जाती है। ******** इतना लम्बा साथ था कैसे भूलूंगा तुम्हे। जब तक जिंदा रहूंगा याद करता रहूंगा तुम्हें। ******* जब कभी तुम्हारी कही कोई बात याद आती है। फिर तुम्हारी मोहिनी सूरत मेरे सामने आती है। ******* तुम रहती हो मेरे दिल में कोई तुम्हें नही निकाल पायेगा। किराया दो या मत दो पर यह तुम्हारा घर कहलायेगा। ******** मैं किसी को याद नही करता दिल की गहराइयों से। केवल एक तुम हो जो रहती हो दिल की गहराइयों में। ******** जब तक जिंदा हूं तुम्हे याद करता रहूंगा। हर जन्म में तुमसे मिलने की फरियाद करता रहूंगा। परिचय : डॉ. प्रताप मोहन "भारतीय" निवासी : चिनार-२ ओमेक्स पार्क- वुड-बद्दी घोषणा : मैं यह शपथ पूर्वक घोषणा करता हूँ कि उपरोक्त रचना पूर...
प्रश्न घनैरे उठते भीतर
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प्रश्न घनैरे उठते भीतर

शिवदत्त डोंगरे पुनासा जिला खंडवा (मध्य प्रदेश) ******************* प्रश्न घनैरे उठते भीतर और समाधान भी पाया है. पर एक प्रश्न सदा से बाकी समझ नहीं जो आया है। यक्ष-प्रश्न से होते तो मैं भी उत्तर कब के दे देता. निजी-प्रश्न मुझी से मेरा पर अपनों में कह लेता। बडा़ सहज सा प्रश्न स्वयं से अक्सर करता रहता हूँ. मै-मैं-मैं-मैं करूँ रात-दिन, हूँ भीतर कहाँ रहता हूँ? आँत-औज़ड़ी हृदय-फेफड़ें हड्डी़-पसली भरी पड़ी है. आमाशय भी भरा फेफड़ें साँस के उपर साँस खडी़ है। मकड़-जाल से जटिल-जाल सिर में सारे नसें भरी हैं. और नसों में रक्त दौड़ता ऐसे-जैसे नस नगरी है। नयनों में भी दृश्य समाये और कानों में घुस आया शोर. आधा-जीवन रात भर गई आधा ही जीवन होती भोर। बाहर तो मैं देखूँ सबको भीतर भी सब जान गया हूँ. कोई जगह नहीं खाली भीतर मैं हूँ तो फिर रहे कहाँ हूँ। इतना त...
अब आदमी जलने लगा
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अब आदमी जलने लगा

गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" बमोरी, गुना (मध्यप्रदेश) ******************** देखके दूसरों की सम्रद्धि, अब आदमी जलने लगा, करता जो जिनकी मदद, वो ही उनको छलने लगा। कैसे आयेगा ज़िंदगी में, कोई किसी के काम अब, स्वार्थ सिद्ध होते हो जाते, लोग नमक हराम तब। लोभ, मोह-ओ-कुंठा की, तन-मन में भरी गंदगी, धरके बगुला जैसा भेष, करे प्रभु की नित बन्दगी। बिखरा है दिग-दिगन्त, छल-छदम भरा व्यवहार, बनकर हम सब रौशनी, मुखरित करें यह संसार। भलाई से नही तोड़ना, भूलकर भी नाता कभी, एक दिन मिट ही जाएगी, बुराई से पोषित छवि। अपनी आंखों के सामने, देखना दगाबाज़ का नाश, होगी विजय सत्य की ही, अंर्तमन ऱखना तू विश्वास। परिचय :- गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" निवासी : बमोरी जिला- गुना (मध्यप्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। ...
चलो खुलकर मुस्कुराते हैं
कविता

चलो खुलकर मुस्कुराते हैं

राजेन्द्र लाहिरी पामगढ़ (छत्तीसगढ़) ******************** मुस्कुरा लो यार तलब न दबाओ, हर एक क्षण खुश नजर आओ, इसके फायदे एक नहीं अनेक है, महत्व इसका बहुत ही विशेष है, सोचो हमने कब कब मुस्कुराया है, हमें हर पल उन्होंने सिर्फ जलाया है, पर हम निराश नहीं हैं, उदास भी नहीं हैं, क्योंकि उपलब्धि की वो कील मेरे बाप ने ठोंके है, विषमताओं का प्रवाह सिर्फ उसने रोके है, वरना मुस्कुराने के पहले गिड़गिड़ाना होता था, हर देहरी पर सर झुकाना होता था, बाबा साहेब ने हर मिथक तोड़ा, अपने पैरों पर खड़ा कर हमें छोड़ा, हम अब शिक्षा की अलख जगा रहे हैं, इत्मीनान से यदि मुस्कुरा रहे हैं, तो इसका कारण सिर्फ बाबा भीमराव है, स्वतंत्र अस्तित्व की ओर जिनका झुकाव है, पुरखों का अहसास सोच भी सिहर जाते हैं, हर पग की कठिनाइयां जो बताते हैं, तो चलो खुलकर मुस्कुराते हैं, हमा...
अस्तित्व की स्मृतियाँ
कविता

अस्तित्व की स्मृतियाँ

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उत्तर प्रदेश) ******************** अस्तित्व की स्मृतियाँ कभी व्यथित मन को सूकून दे ने वाली थपकियाँ भी बन जाती हैं कभी किसी कोने मे खुद की पहचान बनाने के लिए संघर्षरत रहतीं हैं!! वक़्त के बेरहम घाव पर मरहम बन जाती हैं समय मिले तो कभी सुनना मेरे अस्तित्व की स्मृतियाँ ! अगर कभी गुम हो जाए अचानक ये स्मृतियाँ तो ढूंढ लेना फ़ूलों की मीठी खुशबू में ओस की चमकती किरनों में नीले अम्बर में सूकून से उड़ते परिंदों में किसी जीव की करुणामयी पुकार में, किसी जीव की मुस्कराती आँखों में!! फिर भी ना ढूँढ पाओ तो ढूँढ़ना चिता की अग्नि में समाई हुई, यहीं मिलूंगी, यही से समझना है जीवन जीने की परिभाषा, थाम सको तो थाम लेना मेरी थोड़ी सी स्मृतियाँ!! परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म :...
क्या रावण मर गया बता दो?
कविता

क्या रावण मर गया बता दो?

अंजनी कुमार चतुर्वेदी "श्रीकांत" निवाड़ी (मध्य प्रदेश) ******************** मिलकर उसे जलाया सबने, ठोक रहे निज छाती। क्या रावण मर गया बता दो, लाज नहीं क्यों आती? पुतला एक विशाल बनाकर, दस सिर उसे लगाए। राम बने बालक ने पल में, लंकाधीश जलाए। रावण जला, गिरा धरती पर, खड़ा हुआ पल भर में। मुझे जलाने से क्या होगा, रावण हैं घर-घर में? जिसने मुझे जलाया उस पर, प्रकरण हैं थाने में। छेड़ चुका कई बार बच्चियाँ, सकुचाता आने में। राम बने बालक से पूछा, क्यों कर मुझे जलाया? देखे नहीं आचरण खुद के, मुझे जलाने आया। हो गंभीर बताया उसने, मिलकर तुझे जलाते। दोष ढाँक लेते सब अपने, पापी तुझे बताते। दोषारोपण करें और पर, दोष न देखें अपने। मुझे जला, अच्छे बनने के, खूब देखते सपने। गुस्से में रावण झल्लाया, मैं सीता हर लाया। मेरी पुष्प वाटिका में पर, फिर भी कष्ट न पाया। पावनत...
वियोग की पीड़ा में श्रृंगार
कविता

वियोग की पीड़ा में श्रृंगार

शिवम यादव ''आशा'' ग्राम अन्तापुर (कानपुर) ******************** श्रृंगार का अंदाज था। वियोग का भाव। बिछड़ने का डर था, संयोग का अभाव। मिलन का ख्वाब था, बातों का लोभ था। दृश्य ऐसा अपनाया, मिट गई सुंदर काया। संयोग पर हस्ते, वियोग पर रोते। अस्थाई प्रेम पर वचन सुनाते, वियोग होने पर रोते ही जाते। वियोग और संयोग-संयोग से होता है, वियोग खुद संयोग से रोता है। रोद्र भरे मन से निर्वेद की ओर चले, श्रृंगार ऐसा करें अद्भुत सबको लगे। .परिचय :-  आपका नाम शिवम यादव रामप्रसाद सिहं ''आशा'' है इनका जन्म ७ जुलाई सन् १९९८ को उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात ग्राम अन्तापुर में हुआ था पढ़ाई के शुरूआत से ही लेखन प्रिय है, आप कवि, लेखक, ग़ज़लकार व गीतकार हैं, अपनी लेखनी में दमखम रखता हूँ !! अपनी व माँ सरस्वती को नमन करता हूँ !! काव्य संग्रह : ...
बार-बार जल जाने को
कविता

बार-बार जल जाने को

डॉ. कोशी सिन्हा अलीगंज (लखनऊ) ******************** बार-बार जल जाने को बार-बार मर जाने को बार-बार मिट जाने को प्रतिवर्ष आ जाता है रावण अन्याय और अत्याचार असत पूर्ण दुर्व्यवहार का होकर प्रतीक और कटु और कटुतर बनकर लेकिन, रावण ही नहीं आता है बारम्बार! आते राम भी हैं बारम्बार कलेवर बदल बदल कर। अन्याय के ध्वंस हित अत्याचार के विध्वंस हित रुक नहीं पाते हैं राम वह भी आते हैं प्रतिवर्ष रूप, वेश भूषा बदल-बदल कर हम पहचान नहीं पाते हैं पर, वह आते अवश्य हैं। परिचय :- डॉ. कोशी सिन्हा पूरा नाम : डॉ. कौशलेश कुमारी सिन्हा निवासी : अलीगंज लखनऊ शिक्षा : एम.ए.,पी एच डी, बी.एड., स्नातक कक्षा और उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं में अध्यापन साहित्य सेवा : दूरदर्शन एवं आकाशवाणी में काव्य पाठ, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में गद्य, पद्य विधा में लेखन, प्रकाशित पुस्तक : "अस्माकं संस्कृति...
बंद करो अब जयकार
कविता

बंद करो अब जयकार

गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" बमोरी, गुना (मध्यप्रदेश) ******************** असत्य पर सत्य की विजय का, पर्व है दशहरा, छूपा निज ह्रदय में रावण कहते गर्व है दशहरा। जन-जन का अंर्तमन लगता, दशानन जैसा ही, क्षण-क्षण पर छल-कपट करते रावण वैसा ही। जला रहे सिर्फ़ पुतले असली रावण तो जिंदा है, देख मनुज का दोगलापन लगे रावण शर्मिंदा है। सत्य खड़ा पहरेदारी में, कैसे संभव होगा न्याय, पाखंडी पग-पग प्रतिष्ठित, कैद हैं लाखों बेगुनाह। कथनी-करनी का अंतर, स्पष्ठ दिखे कण-कण में, बगुले-सा लिया रूप धर, विष भरा है तन-तन में। निज ह्रदय बैठे रावण की बंद करो अब जयकार, सत्य न्याय ईमान धर्म से, करो सुरभित ये संसार। परिचय :- गोविन्द सरावत मीणा "गोविमी" निवासी : बमोरी जिला- गुना (मध्यप्रदेश) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आ...
चाहे जितनी पीड़ा दे दो
कविता

चाहे जितनी पीड़ा दे दो

बृजेश आनन्द राय जौनपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** चाहे जितनी पीड़ा दे दो, हे! निर्मम, मुझमें बसती हो। नैनों नीर भरा रहता मैं, तुम इतना कैसे हँसती हो। कल तक उर में समा रही थी, आज नदी सी निकल पड़ी हो। मैं पर्वत सा रुका वहीं हूँ, तुम सागर से पहुँच मिली हो। बस एकम अब ध्येय तुम्हारा, एक ही इच्छा बस बाकी है.. 'कुछ अतीत की बात रहे ना, वर्तमान ही बस साथी है।' जुड़े न तुम सँग नाम हमारा... षडयन्त्रों को यों रचती हो। चाहे जितनी पीड़ा दे दो, हे! निर्मम, मुझमें बसती हो।। मैं गीतों के फूल बिछाऊँ, काँटो के तुम तानें रखती। मैं वाणी मधुरस बरसाता, चुभी-बात से तुम हो डसती। कोयल की जब ‌ तान सुनाऊँ, तुम दादुर के ढोल बजाओ! मेरे सम्मुख हर विरोध में कुटिल भाव से फिर मुस्काओ! लाज नहीं अब रही हमारी, क्या कहती हो, क्या करती हो? चाहे जितनी पीड़ा दे दो, हे! निर्मम, ...
सफ़र
कविता

सफ़र

मालती खलतकर इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** कश्ती चलती हैं पतवार के सहारे सागर मचलता हैं लहरों के सहारे दर्दे दिल रोता हे अतीत के सहारे कहां खोजे हम किनारा समन्दर में पत्थरों की फिसलन के मारैं। दरख्तो के सायों का हुजुम चलता हैं साथ-साथ पगडंडी के सफ़र मे कांटे जो हैं साथ आसमां से झांकता आफ़ताब हंस रहा था हम पर कह रहा था मानों मुड़ हो अब निकले हों सफ़र पर। परिचय :- इंदौर निवासी मालती खलतकर आयु ६८ वर्ष है आपने हिंदी समाजशास्श्र में एम ए एल एलबी किया है आप हिंदी में कविता कहानी लेख गजल आदि लिखती हैं व आपकी रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मैं प्रकाशित होते हैं आप सन १९६८ से इंदौर के लेखक संघ रचना संघ से जुड़ी आप शासकीय सेवा से निमृत हैं पीछेले ३० वर्षों से धार के कवियों के साथ शिरकत करती रही आकाशवाणी इंदौर से भी रचनाएं प्रसारित होती रहती हैं आप राष्ट्री...