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कविता

पकरे कान आज से
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पकरे कान आज से

प्रेम प्रकाश चौबे "प्रेम" विदिशा म.प्र. ******************** भइया, पकरे कान आज से। दूरई अच्छे जा समाज से। जीबो नइं मरबोई तै है, "बिस पानी" और "जहर नाज" से। सत्तर बरस गए, पै अब भी, दूरी बई की बई, सुराज से। बड़े सेठ जे सांची मानो, पल रए "हमरे खून" ब्याज से। "प्रेम" रोज की चें चें, किल किल, भले अकेले जा लिहाज से। . परिचय :-  प्रेम प्रकाश चौबे साहित्यिक उपनाम - "प्रेम" पिता का नाम - स्व. श्री बृज भूषण चौबे जन्म -  ४ अक्टूबर १९६४ जन्म स्थान - कुरवाई जिला विदिशा म.प्र. शिक्षा - एम.ए. (संस्कृत) बी.यु., भोपाल प्रकाशित पुस्तकें - १ - "पूछा बिटिया ने" आस्था प्रकाशन, भोपाल  २ - "ढाई आखर प्रेम के" रजनी  प्रकाशन, दिल्ली से अन्य प्रकाशन - अक्षर शिल्पी, झुनझुना, समग्र दृष्टि, बुंदेली बसन्त, अभिनव प्रयास, समाज कल्याण व मकरन्द आदि अनेक  पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक पत्रिका...
इंकलाब जिंदाबाद…
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इंकलाब जिंदाबाद…

बिपिन कुमार चौधरी कटिहार, (बिहार) ******************** संप्रभुता का आया गंभीर संकट, उचित नहीं राजनीतिक नाटक, मां भारती कर रही पुकार, विश्वासघाती चीनियों का हो संहार, नेपाल सिर्फ एक मोहरा है, षड्यंत्र बहुत ही गहरा है, बेशक सीमा पर वीर जवानों का पहरा है, देश के अंदर कुछ चेहरों पर कई चेहरा है, बासठ का ज़ख्म हमें भूलना नहीं चाहिए, वाजपेईजी के जिम्मेदार विपक्ष का अनुकरण करना चाहिए, राजनीतिक प्रतिद्वंदिता चलती रहेगी, हमारी एकता और राष्ट्र की अखंडता अक्षुण्ण रहना चाहिए, देश के कोने कोने से आ रही एक आवाज, बता दो दुश्मनों को उसकी औकाद, हर धर्म से ऊपर हमारा राष्ट्रवाद, आओ सब मिलकर बोलें, इंकलाब जिंदाबाद... . परिचय :- बिपिन कुमार चौधरी (शिक्षक) निवासी : कटिहार, बिहार आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्ष...
क्या करें हम
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क्या करें हम

डॉ. कामता नाथ सिंह बेवल, रायबरेली ******************** दहकती है पीर की ज्वाला यहां हर दम, बताओ क्या करें हम।। सर्जना के पंख पर उड़ते मकानों की खिड़कियों से झांकते सपने सयाने, किन्तु कुत्सित मानसिकता के अंधेरों की स्याह परछाईं लगी उनको डराने; चीरते हैं तीर अपने तरकशों के दिल, बताओ क्या करें हम? दहकती है पीर की ज्वाला यहां हर दम बताओ क्या करें हम।। सर्व नाशी सोच की हठ जम गई जैसे- पत्थरों पर काइयों की मूक परतें, आत्महत्या के लिए तैयार बैठी हैं पीढ़ियों की ज़िद लिए दो टूक शर्तें; जब धड़कता ही नहीं सीने में इनके दिल, बताओ क्या करें हम। दहकती है पीर की ज्वाला यहां हर दम, बताओ क्या करें हम।। किस तरह जीना हमें है, कौन करता है प्यार, इतना जानवर भी जानते हैं, आस्तीनों के मगर ये सांप पी कर दूध, सिर्फ डसना और डसना जानते हैं; तोड़कर बिषदन्त इनके सिर कुचलने के अलावा फिर, बताओ क्या करें हम...
हाँ मैं भी अब लिखने लगी
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हाँ मैं भी अब लिखने लगी

रश्मि श्रीवास्तव “सुकून” पदमनाभपुर दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** मैं गुमसुम सी धीर गंभीर सी उन्मुक्त होकर खुलने लगी मुख्यधारा से अब जुडने लगी हाँ मैं भी अब लिखने लगी। कहीं डर और शंका मन में लिए कहीं हीन भावना से जकड़े हुए खुद को बेहतरीन कहने लगी हाँ मैं भी अब लिखने लगी। जिंदगी के कुछ पहलू थे अनछूए कुछ सवाल ऐसे थे अनसुलझे उन सवालों में ही हल ढूँढने लगी हाँ मैं भी अब लिखने लगी। दर्द ऐसा किसी से कहा ना गया कहीं चुप रह गई कहीं कराया गया अब हाल-ए-दिल अपना कहने लगी हाँ मैं भी अब लिखने लगी। जंजीरों ने पाँव जकड़ रखे थे हर कदम पर सवाल खड़े कर रखे थे अब कदम दर कदम मैं बढ़ने लगी हाँ मैं भी अब लिखने लगी। कभी दौर ऐसा भी आया था जहां खुद को मैंने अकेला पाया था अब हौसलों के कारवां बनाने लगी हाँ मैं भी अब लिखने लगी। बिना गलतियों के सज़ा पायी है जमानत मुझे रब ने दिलाई है अब इंसाफ के लिये लड़ने लगी हाँ म...
क्या ज़माना आ गया है
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क्या ज़माना आ गया है

दामोदर विरमाल महू - इंदौर (मध्यप्रदेश) ******************** शकल भले ही अच्छी न हो उनकी, सेल्फी लेकर मन को खुश करते है वो। कोई देखे न देखे उन्हें प्यार की नज़रों से, एक तरफा ही अजीब प्यार करते है वो। अगर पूछ लिया उनसे की चाहते क्या हो? फिर तो इज़हार करने से भी डरते है वो। आग लगी रहती है, शोले भड़कते रहते है, अपनी होते हुए भी दूसरी पे मरते है वो। कई दिलजले है इस जमाने मे यारों, बुढ़ापे में भी जवानी का दम भरते है वो। जो बने फिरते है ज़माने में खड़कसिंह, घर मे ही अपनी बीवी से डरते है वो। क्या ज़माना आ गया है ये क्या हो रहा है? गुनाह करते है और फिर मुकरते है वो। . परिचय :- ३१ वर्षीय दामोदर विरमाल पचोर जिला राजगढ़ के निवासी होकर इंदौर में निवास करते है। मध्यप्रदेश में ख्याति प्राप्त हिंदी साहित्य के कवि स्वर्गीय डॉ. श्री बद्रीप्रसाद जी विरमाल इनके नानाजी थे। हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindiraks...
आंगन में उठता अशोक
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आंगन में उठता अशोक

सतीश राठी इंदौर मध्य प्रदेश ********** आंगन में उठता अशोक नहीं कर पाता है जीवन को शोक मुक्त आते रहते हैं सुख और दुख के बादल कभी बरसने के लिए कभी  तपाने के लिए रोप देता है अपने आंगन में जाने कब उम्मीदों के बीज, पिता उगती हुई हरियाली के बीच भागता हुआ पिता लेने लगता है सेवानिवृत्त होने के बाद सुकून की सांस सोती रहती है जब सारी दुनिया जीवन जागता रहता है तब भी और धड़कता है शायद आसपास के पेड़ पौधों में या फुदकती हुई गिलहरी में कभी किसी की आंखों में भी चमकता है जीवन आंखें  मूंदने के बाद किसे याद रहती है चले जाने वाले पिता की सृजन छाया। परिचय :-  सतीश राठी जन्म : २३ फरवरी १९५६ इंदौर शिक्षा : एम काम, एल.एल.बी लेखन : लघुकथा, कविता, हाइकु, तांका, व्यंग्य, कहानी, निबंध आदि विधाओं में समान रूप से निरंतर लेखन। देशभर की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सतत प्रकाशन। सम्पादन : क्षितिज संस्था इंदौर के लिए...
जनक
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जनक

वैष्णो खत्री 'वेदिका' अधारताल, जबलपुर (म.प्र.) ******************** जन्म लिया जब धरा पे तुमने, जननी ने जग दिखलाया। ऊँगली थाम नेह से तुमको, जनक ने चलना सिखाया। वे भूखे पेट सोए होंगे, पेट तुम्हारा भरने को। रात-रात भर जागे होंगे, सपने पूरे करने को। देव तुल्य हैं चरणों में उनके, सचमुच स्वर्ग समाया। ऊँगली थाम नेह से, तुमको जनक ने चलना सिखलाया। कड़वे शब्दों के न करना, दिल पर उनके वार कभी। और न करना जीवन में है, उन पर अत्याचार कभी। क्योंकि वे तो सदा चाहते, सुखी रहे उनका जाया। ऊँगली थाम नेह से, तुमको जनक ने चलना सिखलाया। यदि बन श्रवण उनकी की सेवा तुम कर जाओगे। ईश्वर की भी कृपा रहेगी, सुखमय जीवन पाओगे। रही सदा है मात-पिता की, शुभ आशीषों की छाया। ऊँगली थाम नेह से, तुमको जनक ने चलना सिखलाया। बड़े हुए तो शुभ विवाह के, बन्धन में बन्ध जाओगे। कुछ वर्षों में तुम भी तो है, जननी-जनक कहलाओगे। ...
सफ़र
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सफ़र

अमरीश कुमार उपाध्याय रीवा म.प्र. ******************** जो मकान किराए के है, दरो दरख़्त की परवाह नही करते, समंदर से भी गहरी दीवारें है, एक जैसी नहीं रहती, नदियों सा अपना लेते है किनारों को, ऐसे मकान दिलो पर राज करते है, बना किराए का मकान, हम सफ़र साथ नहीं रखते, घरोदा भी नहीं बनते, वो जमीन पर निगाह नहीं रखते, हौसलों की उड़ान कम नहीं रखते, वे बेपरवाह पंछी है, बादलों के नीचे उड़ान नहीं करते, जो मकान किराए के है, दरो दरख़्त की परवाह नही करते......। . परिचय :- अमरीश कुमार उपाध्याय निवासी - रीवा म.प्र. पिता - श्री सुरेन्द्र प्रसाद उपाध्याय माता - श्रीमती चंद्रशीला उपाध्याय शिक्षा - एम. ए. हिंदी साहित्य, डी. सी. ए. कम्प्यूटर, पी.एच. डी. अध्ययनरत आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर...
मेरी मां
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मेरी मां

मनीषा शर्मा इंदौर म.प्र. ******************** बदल देती सारे बिगड़े हालात है मेरी मां थोड़ी सीधी साधी थोड़ी चालाक है मेरी मां रखती है हिसाब किताब घर का वह सारा पर भूल जाती है गिनती जब रोटी परोसती है मेरी मां थोड़ी सीधी-साधी थोड़ी चालाक है मेरी मां डांटती है खूब झगड़ती भी है मुझसे पर रूठ जाऊं तो मनाती प्यार से है मेरी मां थोड़ी सीधी-साधी थोड़ी चालाक है मेरी मां चाहक उठता है घर का हर एक कोना जब चूड़ी पायल छनकाती है मेरी मां थोड़ी सीधी-साधी थोड़ी चालाक है मेरी मां बिन उसके बेजान है सारा घर परिवार मेरे इस छोटे से घर की जान है मेरी मां थोड़ी सीधी-साधी थोड़ी चालाक है मेरी मां अस्त व्यस्त है साड़ी और बिखरे से है बाल फिर भी दुनिया में सबसे खूबसूरत है मेरी मां थोड़ी सीधी-साधी थोड़ी चालाक है मेरी मां अन्न के दाने दाने में स्वाद भर देती कभी दुर्गा तो कभी अन्नपूर्णा बन जाती है मेरी मां थो...
तर्क वितर्क
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तर्क वितर्क

विमल राव भोपाल म.प्र ******************** सूचनाओं के अभावो का प्रभाव देखिए। मूर्खता के तर्क का स्वर्णिम सुझाव देखिए॥ ना कोई प्रत्यक्ष हैं और ना कोई प्रमाण हैं। पर अड़ीग हैं आत्म मत पर, हौसले तों देखिए॥ वेद अध्यन और शिक्षा का अभाव हैं जहाँ। बांटते हैं ज्ञान सबकों, दुर्दशाएँ देखिए॥ पद प्रतिष्ठा के लिये, परिवार कों ले संग में। धेर्य खोते निर्बलों की, मंद बुद्धि देखिए॥ देखिए उनका समन्वय, तोड़ता हैं कांरवा। और अपना ध्येय खोता, लक्ष्य भी तों देखिए॥ रुष्ट होते बाल हट से, ये बड़ी विडम्बना हैं। उम्र का अनुभव नही हैं, याचनाये देखिए॥ स्वप्न हैं सम्मान का, तों योग्यता भी चाहिये। पर विषय भटका रहें हैं, संगती तों देखिए॥ . परिचय :- विमल राव "भोपाल" पिता - श्री प्रेमनारायण राव लेखक, एवं संगीतकार हैं इन्ही से प्रेरणा लेकर लिखना प्रारम्भ किया। निवास - भोजपाल की नगरी (भोपाल म.प्र) कवि, लेखक, सामाजिक ...
ग्रहण…. मानते हैं
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ग्रहण…. मानते हैं

प्रीति शर्मा "असीम" सोलन हिमाचल प्रदेश ******************** प्रकृति के, प्राकृतिक चलन पर। कितने विरोधाभास उठाते हैं। ग्रह -नक्षत्रों को, पढ़ने की बात करते हैं। लेकिन ..........??? अपने से ही, अनजान रह जाते हैं। ग्रहण ....मानते हैं। कितने अनिष्ट ग्रहों की, सूची को गढ़ जाते हैं । लेकिन अपनी सोच पर, अंधविश्वास के लगे, ग्रहण का कोई हल नहीं पाते हैं। ग्रहण ......मानते हैं। भगवान..... मानते हैं। सब अच्छा ...करता है। यह .......भी मानते हैं। फिर .....बुरे पर, तिलमिलाते हैं। बुरा ..... क्या है। अपनी सहूलियत के लिए, क्यों .........हमारे, संवाद बदल जाते हैं। शायद...... हम, भगवान को भी, आधा ही मानते हैं। अजीब ढोंग ओढ लेते हैं। खुद प्रश्न देकर, खुद उत्तर गढ़ लेते हैं। जब सहूलियत का, प्रश्न आता है। हम बीच वाला, रास्ता पकड़ लेते हैं। जबकि .........हम सब, अपनी सहूलियत से ही, अपने फायदे के ल...
पिता की सख्ती
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पिता की सख्ती

सुरेश मीणा बांसवाड़ा (राजस्थान) ******************** पिता की सख्ती बर्दाश करो, ताकी काबील बन सको। पिता की बातें गौर से सुनो, ताकी दुसरो की न सुननी पड़े।। पिता के सामने ऊंचा मत बोलो वरना भगवान तुमको निचा कर देगा। पिता का सम्मान करो, ताकी तुम्हारी संतान तुम्हारा सम्मान करे।। पिता की इज्जत करो, ताकी इससे फायदा उठा सको। पिता का हुक्म मानो, ताकी खुश हाल रह सको।। पिता के सामने नजरे झुका कर रखो, ताकी भगवान तुमको दुनियां मे आगे करे। पिता एक किताब है जिस पर अनुभव लिखा जाता है।। पिता के आंसु तुम्हारे सामने न गिरे, वरना भगवान तुम्हे दुनिया से गिरा देगा। पिता एक एसी हस्ती है ...।। माँ का मुकाम तो बेशक़ अपनी जगह है! पर पिता का भी कुछ कम नही, माँ के कदमों मे स्वर्ग है पर पिता स्वर्ग का दरवाजा है, अगर दरवाज़ा ना ख़ुला तो अंदर कैसे जाओगे ? जो गरमी हो या सर्दी अपने बच्चों की रोज़ी रोटी की फ़िक्र ...
हाँ वो पैसे बचाते थे
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हाँ वो पैसे बचाते थे

जनार्दन शर्मा इंदौर (म.प्र.) ******************** पुरानी पेंट रफू करा कर पहनते जाते थे, ब्रांडेड नई शर्ट देने पे आँखे दिखाते थे टूटे चश्मे से हीअख़बार पढने का लुत्फ़ उठाते थे टोपाज के ब्लेड से ही वो दाढ़ी बनाते थे हा वो  पिताजी  पैसे बचाते थे …. कपड़े का पुराना थैला लिये दूर की मंडी तक जाते थे, बहुत मोल-भाव करके फल-सब्जी लाते थे आटा नही खरीदते, वह तो गेहूँ पिसवाते थे.. वो  पिताजी ही थे जो पैसे बचाते थे… वो स्टेशन से घर तक पैदल ही आते थे सदा ही रिक्शा लेने से कतराते थे। अच्छी सेहत का हवाला देते जाते थे ... बढती महंगाई पे हमेशा चिंता जताते थे वो  बाबूजी थे जो सबके लिये पैसे बचाते थे ... कितनी भी  गर्मी हो वो  पंखे में बिताते थे, सर्दियां आने पर रजाई में दुबक जाते थे एसी/हीटर को सेहत का दुश्मन बताते थे लाइट खुली छूटने पे नाराज से हो जाते थे वो पप्पा ही थे जो भविष्य के लिये पैसे बचाते थे....
पापा
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पापा

रुचिता नीमा इंदौर म.प्र. ******************** हर खुशी आपके बिना अधूरी और हर गम आपसे ही दूर होता है हा पापा मेरा दिन आपसे ही शुरू होता है जब समझ न आती कोई राह तब आप ही सही राह दिखाते हो मुझ भटकी हुई को आप ही अपनी मंजिल तक पहुँचाते हो कभी गुरु बनकर कभी दोस्त बनकर तो कभी पिता बनकर आप हर क्षण मेरा मार्ग दर्शन कर जाते हो मेरे मन की बात को मुझसे पहले ही आप पढ़ जाते हो हाँ पापा हर बार आप मुझको मुझसे ज्यादा समझ जाते हो अक्स हु आपका ये कहते हुए बहुत फक्र होता है,,, इतने अच्छे पिता का मिलना बहुत कम को नसीब होता है।।। शुक्रगुजार हूं उस ईश्वर की जिसने मुझे आप जैसे पिता दिए बस विनती इतनी सी है कि हर जन्म में आप ही पिता के रूप में मिले परिचय :-  रुचिता नीमा जन्म २ जुलाई १९८२ आप एक कुशल ग्रहणी हैं, कविता लेखन व सोशल वर्क में आपकी गहरी रूचि है आपने जूलॉजी में एम.एस.सी., मइक्रोबॉयोलॉजी में बी.एस....
संवाद
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संवाद

हंसराज गुप्ता जयपुर (राजस्थान) ******************** सोचिये एक माँ जिसकी असमय ही अंतिम विदाई थी शरीर शिथिल हो चला था उसने एक बार आँखें खोली पति और छोटे छोटे बच्चों की तरफ देखा उस पल संकेतों में जो संवाद हुआ प्रस्तुत है:- एक माँ की असमय विदाई नयनन पीडा, फिर भी मुस्काई गालों बालों पर पति के हाथ निःशब्द संवाद फिर छूटा साथ तब तुमसे संवाद हुआ था, इस घर को कौन चलायेगा. आगे निशा अंधकार है, ऊषा बन कौन जगायेगा. सूरज किरण, आभा से चंदा, तारा टिमटिम से भाता है. बाती से ज्योति दीपक की, तम हरता चमक जगाता है. तुमने धीरे से कहा, भ्रमर! इस भ्रम में समर न खो देना. मीठा जल है, उपजाऊ मिट्टी, श्रेष्ठ पौध हैं, बस बो देना. मैं शक्तिरूप में साथ रहूँगी, जब विषाद उन्माद करोगे. संवाद का वचन दिया प्रियतम, जब तुम मुझको याद करोगे. तुलसी कालीदास प्रसाद की, तुम ही तो कथा सुनाते थे. 'ब...
कानों की बालियां
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कानों की बालियां

रंजना फतेपुरकर इंदौर (म.प्र.) ******************** जब जब तुम्हें देखा फूलों में कोई ख्वाब सा महका था बरसते सावन में आरजुओं का कारवां तुम्हारी ही यादों में जिया था नूर की बूंदें जो कानों की बालियों में पहनी मैंने एक कतरा चाँद का तुम्हारी मुस्कानों पर बिखरा था अंदाज़ तुम्हारी कशिश का यूं ही तो नहीं सबसे जुदा था तुम्हारी यादों में बसा दिल तुमसे ही ये कहता है बेहद हसीन था वो पल जो तुम्हारे खयालों से गुजरा था . परिचय :- नाम : रंजना फतेपुरकर शिक्षा : एम ए हिंदी साहित्य जन्म : २९ दिसंबर निवास : इंदौर (म.प्र.) प्रकाशित पुस्तकें ११ सम्मान : हिंदी रक्षक मंच इंदौर (hindirakshak.com) द्वारा हिन्दी रक्षक २०२० राष्ट्रीय सम्मान सहित ४७ सम्मान पुरस्कार ३५ दूरदर्शन, आकाशवाणी इंदौर, चायना रेडियो, बीजिंग से रचनाएं प्रसारित देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में निरंतर रचनाएं प्रकाशित अध्यक्ष रंजन कल...
आत्महत्या
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आत्महत्या

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** कभी हम भी मुस्कराया करते थे, दोनों हाथों से खुशियाँ लुटाते थे, चेहरे पर नूर, होंठों पर मुस्कान सजती थी, चाँद सितारों को तोड़ने की शर्तें लगती थी फिर मन में क्यों मचा हाहाकार जीवन काअंत क्यों लेरहाआकार, कह न सका अन्तस की पीड़ा को, सह न सका दुःख के आवेगों को सागर. मन के उठे हुए उद्वेगों को, सह न सका पत्थरीलें चेहरों को, फिर क्यों न मन में हो हाहाकार, इसीलिए जीवन का अंत ले रहा आकार कहाँ लुप्त हुआ आशा का प्रपात क्यों हुआ मेरे साथ पक्षपात, क्यों नही लिपट सकी प्यार की किरण क्यों लगा फौलादी इरादों को ग्रहण। तभी मन में मच रहा हाहाकार आ रहा जीवन के अंत का विचार दूर गगन में उगता सूरज, दे गया नया विश्वास, इश्क करना है तो देश से कर, मरना है तो, देश के लिए मर जीवन है अनमोल, इससे प्यार कर, अन्तस से निःसृत नव सजृन चाप सुन, मन में अब नह...
मायने यारी के
कविता

मायने यारी के

निर्मल कुमार पीरिया इंदौर (मध्य प्रदेश) ******************** बिछड़ गये हम साथी तो क्या, मन मे कोई पीर नही, याद तुम्हें करते ना हो हम, ऐसी कोई रात नही... संग बतियाए हर इक लम्हा, भुला सको तो हम जाने, बरसों का था संग हमारा, कल परसो की बात नहीं... यारी का दम भरते थे तुम, यारी के है मायने क्या, संग यारो के जिंदा है हम, समझे क्यो ये मर्म नही... अगर कभी रुसवा हो जग से, याद हमे कर लेना तुम, हाथ बढ़ा थामेगे तुमको, "निर्मल" मन की पीर यही... परिचय :- निर्मल कुमार पीरिया शिक्षा : बी.एस. एम्.ए सम्प्रति : मैनेजर कमर्शियल व्हीकल लि. निवासी : इंदौर, (म.प्र.) शपथ : मेरी कविताएँ और गजल पूर्णतः मौलिक, स्वरचित और अप्रकाशित हैं आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने ...
असहनीय पीड़ा
कविता

असहनीय पीड़ा

अंजली सांकृत्या जयपुर (राजस्थान) ******************** सुना हैं मैं बेज़ुबान जानवर हूँ!! बहुत विस्मय की बात हैं ना? जहाँ मानुष जीवन हैं वहाँ मेरा भी अस्तित्व हैं सुनो ना! मैं भी भूखा हूँ मुझे भी खाना चाहिए मुझे भी खिलाओ ना खिलाओगे ना? मैंने तो जंगल में ख़ूब ढूँढा पर सब सूखा हैं मानुष ने अपने लिए वृक्षों की कटाई जो की हैं। देखो ना वहाँ कुछ मानुष हैं लगता हैं भले लोग हैं अब मेरी भूख प्यास मिट जाएँगीं हैं ना? देखो वो आ रहे हैं साथ अपने कुछ ला रहे हैं मालिक मुझे खिलाओ ना बहुत भूखा हूँ मालिक हाँ खिलाता हूँ। मैं सब खा गया उनका ज़िन्दगी भर का क़र्ज़दार बन गया... कब तक ? आह मानुष ये क्या किया ? मुझे इतनी पीड़ा क्यूँ मुझसे सहन नहि हो रही... ये मुझे मार देगी हँस रहे हो? मानुष ऐसा क्यों किया.. मेरी हत्या क्यों कि? मानुष तुमने ये क्या किया! हाहाहाहाहा...।। ये मेरी ख़ुशी मेरी भूख मिटाएँगीं तेरी मौत आख...
बेटियां
कविता

बेटियां

मनीषा व्यास इंदौर म.प्र. ******************** बेटियां आसमान पर का रही हैं बेटियां, पदक भी पा रही हैं बेटियां। श्रृंगार तक वो सीमित न रही, जिंदगी के फर्ज भी निभाती हैं बेटियां। फूलों सी नाज़ुक दिखती हैं बेटियां, महलों के ख्वाब बुनती हैं बेटियां। परियों सी नाज़ुक होती हैं सपनों को साकार करती हैं बेटियां। उदास मन को कोमल सा अहसास देती हैं बेटियां। मुश्किल घड़ी में कोमल सा आभास देती हैं बेटियां। पंछियों की उड़ान सी चंचल, आकाश की बुलंदियां भी छूती हैं बेटियां। जिंदगी का मान बढ़ाती हैं बेटियां, जिस घर से अनजान रहती हैं बेटियां, उस घर की पहचान बन जाती हैं बेटियां। टूटी हुई चीजों से घर बनाती हैं बेटियां, माटी के खिलौनों से संसार रचाती हैं बेटियां। नींदों में भी ख्वाबों के साथ मुस्कुराती हैं बेटियां। खुशियों के लम्हे सी सुहानी हैं बेटियां, माटी की सौंधी खुशबू बिखेरती हैं बेटियां। बारिश की बू...
अमर शहादत
कविता

अमर शहादत

माधुरी व्यास "नवपमा" इंदौर (म.प्र.) ******************** ना थी उनकी कोई रियासत, ना की उनने कोई सियासत, माँ के आँचल के शहजादों में, सर देने की थी लियाकत। मन मयूरा उनका होगा नाचा, जब रंगीन बहारे जीवन में आई, माँ का आँचल देख निशाने पे, खुद सीने पर उसने गोली खाई चैन से जी सके अपना ये वतन, अर्पित कर दिया तन, मन, बदन। चीनी-सी मिठास देने के खातिर, चीनियों की उसने मिट्टी चटकाई। नापाक इरादे ने नजर उठाई, दुश्मन ने जब भी घात लगाई, रणबाँकुरे सच्चे सपूत ने तब, हर हुँकार पर उसे धूल चटाई। ना तो थे वो कोई बाजीगर, ना कि भावों की तिजारत, माँ के मुकुट के सितारों में, अमर वीरों की जड़ी शहादत। . परिचय :- माधुरी व्यास "नवपमा" निवासी - इंदौर म.प्र. सम्प्रति - शिक्षिका (हा.से. स्कूल में कार्यरत) शैक्षणिक योग्यता - डी.एड ,बी.एड, एम.फील (इतिहास), एम.ए. (हिंदी साहित्य) आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, ल...
पिताजी
कविता

पिताजी

जीत जांगिड़ सिवाणा (राजस्थान) ******************** मैं दफ्तर से लौटू तो ऐसा लगता हैं कि कोई बुला रहा है, घर के अन्दर से निकलकर जैसे कोई मेरे पास आ रहा है। लगता हैं कि वो डाँटेगा और कहेगा कि मास्क लगाया नहीं तूने, अरे ये बाईक और मोबाईल भी आज सेनेटाइज किया नहीं तूने। महामारी फैली हुई हैं और तू बेपरवाह होता जा रहा है, हेलमेट भी नही लगाया कितना लापरवाह होता जा रहा है। हर रोज की तरह आज भी तू मुझको बताकर नही गया, तेरी माँ सुबह से परेशान है कि तू खाना खाकर नही गया। सोचता हूँ कि ये सब घर पर सुनूंगा और सहम जाऊंगा मैं, मगर ये क्या पता कि अब ये सिर्फ एक वहम पाऊंगा मैं। अब घर लौटते ही दरवाज़े पर खड़े पिताजी नहीं मिलते, मेरी जीवन नौका तारणहार मेरे वो माझी नहीं मिलते। अब क्या गलत है और क्या सही है ये बताने वाला कोई नहीं, बार बार डांटकर फटकार कर अब समझाने वाला कोई नहीं। आज सब कुछ पाकर जब अपने पैरो...
पिता का करें सम्मान
कविता

पिता का करें सम्मान

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** नहीं है दूजा पिता समान। पिता का करें सभी सम्मान। पिता है जनक,पिता पालक। पिता ही होता है रक्षक। पिता गृहशाला का शिक्षक। पिता संयोजक-संचालक। सृष्टि में बहुत पिता का मान। पिता का करें सभी सम्मान। पिता सर्वदा है सुखदाई। पिता के मन में गहराई। पिता से डरती कठिनाई। पिता शंकर सम विषपाई। गगन भी करता है गुणगान। पिता का करें सभी सम्मान। पिता के जीवन का संघर्ष। निकेतन में लाता है हर्ष। साक्षी दिवस साक्षी वर्ष। पिता के श्रम ही से उत्कर्ष। पिता के सफल सभी अभियान। पिता का करें सभी सम्मान । पिता की छाया है वरदान। पिता का होना घर की शान। पिता जीवन-अनुभव की खान। पिता की सेवक हो सन्तान। पिता से मानव की पहचान। पिता का करें सभी सम्मान। पिताश्री जब हो जाएं वृद्ध। या किसी निर्बलता से बद्ध। आप अक्षम हो या समृद्ध। करें सेवा सविनय करबद्ध। नहीं हो वृ...
जंग जरूरी है
कविता

जंग जरूरी है

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** जंग जंग जंग जरूरी है, जंग स्वाभिमान के लिए। परंतु, जंग, छीन लेती है मुस्कान। टूट जाता है घोसला चिड़िया का जो ऊंचे चिनार की टहनियों पर बना है। हो जाता है पानी सुर्ख नदियों का, पिघलती है बर्फ जाड़ो में भी, और रिसने लगती है आँखे, बून्द बून्द। जंग जंग जंग जरूरी है, जंग स्वाभिमान के लिए परंतु, टूटी चूड़ियां खनका नही करती सिंदूर की लाली मांग की हद तोड़ कर उतर आती है, वर्धियो पर कस के चिपक जाती है वर्धिया बेजान जिस्मो पर। फिर खो जाता है सिंदूर अनंत में हमेशा हमेशा के लिए। अबोध बचपन लाचार बुढापा बेबस जवानी टुकुर टुकुर ताकते रहते है उन बक्सों को जो दूर कही से लाया होता है घर के आंगन में। सपने व सिंदूर रिसते रहते है उसकी किनारों से बून्द बून्द। जंग जंग जंग जरूरी है, जंग स्वाभिमान के लिए परंतु, ढक लेते है धूल के गुबार गेंहू की बालियों को भर जाती है ...
भारत पर स्वर्ग
कविता

भारत पर स्वर्ग

विनोद सिंह गुर्जर महू (इंदौर) ******************** थाली, लोटे, शंख बजाये, और खुशी में नाचे हम। यज्ञ, हवन भी कर डाले, देव ऋचायें वांचे हम।। राम नाम के दीपक भी घर-घर सभी उजारे थे। देवों जैसे वो क्षण पाकर, सारे दुख विसारे थे।। विनाश काल विपरीते बुद्धि, मति कैसी बौराई है। अर्थतंत्र को पटरी लाने, व्यर्थ की सोच बनाई है। किसने तुमको रोका-टोका, वेतन हिस्सा दान किया। देश समूचा साथ तुम्हारे, किसने यहाँ अभिमान किया।। महिलाओं का छिपा हुआ धन, बच्चों ने गुल्लक फोड़ी है। आपदा के इस संकट में, नहीं कसर कोई छोड़ी है।। गर और जरूरत थी तुमको, आदेश का ढोल पिटा देते। खुद को गिरवी रख करके, ढेरों अर्थ जुटा देते।। किंतु नहीं ये करना था मंदिर भूले, मदिरा खोले। पवित्र घंटियां मूक रहीं, प्यालों के कातिल स्वर बोले।। मदिरालय सब खोल दिये। देवालय सारे बंद पड़े। कोरोना को आज हराने बुलंद हुए स्वर मंद पड़े।। बोतल और प्...