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कविता

प्रेम
कविता

प्रेम

सपना दिल्ली ******************** माँ-बाप का प्रेम जग में सबसे अनमोल बच्चों की छोटी छोटी खुशियों में ढूँढें जो अपनी ख़ुशी उनकी खुशियों के लिए छोड़ दें जो अपनी सारी खुशियां। कभी बन जाते गुरु हमारे कभी बन जाएँ दोस्त अच्छे बुरे का पाठ सिखाते दुनिया की बुरी नज़र से हमें बचाते। प्रेम का मतलब हमें सिखलाते अपनेपन का एहसास करवाते दूर रहने पर भी जो हर दम रहते पास हमारे। बिना कुछ बोले मन की बात समझ लेते रिश्तों की मजबूती का राज हमें बतलाते। दर्द में देख हमें आँसू उनकी आंखों से बहें बावजूद मुश्किल से लड़ना सिखलाते ख़ुद को भूल ध्यान हमारा रखते जल्दी हो जाऊं ठीक प्रार्थना ईश्वर से करते देख यह त्याग प्रेम से साक्षात हम होते... समझ आता बिना प्रेम जीवन हमारा निरर्थक जैसे बिन पानी मछली का जीवन। स्वार्थ से ऊपर है प्रेम जीवन का आधार है प्रेम नित् नित् बढ़ता ही जाए ऐसा स्पर्श है प्रेम... सबसे करो प्रेम ऐसा पा...
कहाँ खो गई गोधूलि
कविता

कहाँ खो गई गोधूलि

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** शाम को उड़ती धूल में देखता आकाश की लालिमा सूरज की धुँधली छवि सूरज लेता शाम को सबसे अलविदा गाय के गले में बंधी घंटिया सूरज की करती हो शाम की आरती गोधूलि की धूल बन जाती गुलाल धरा से आकाश को कर देती गुलाबी नित्य ये पूजन चला करता वर्षा ऋतु धूल और सूरज छिप जाते देव कर जाते शयन ये गाँव की कहानी शहरों में धूल कहाँ औऱ सूरज भी कहाँ सीमेंट की ऊंची बिल्डिंग सड़के डामर की कहाँ गाय के गले मे आरती की घँटी गोधूलि का महत्व गाँव मे होता शहरों में तो काऊ महज पढ़ाया जाता गाँव प्रकृति से सजा इसलिए तो सुंदर है सोचता हूँ गॉव जाकर प्रकृती को पुनःपहचानू। परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ ...
पैसे मांगलो तो…
कविता, मुक्तक

पैसे मांगलो तो…

दामोदर विरमाल महू - इंदौर (मध्यप्रदेश) ******************** विषय: वर्तमान परिदृश्य (कोरोना) विधा: कविता/मुक्तक हर किसी को रोटी की अहमियत सिखाने लगे है लोग। अबतो चलते रस्ते औकात दिखाने लगे है लोग। जिसने कभी पैसों के अलावा किसी को नही पूजा, अबतो नास्तिक होकर भी मंदिर जाने लगे है लोग। जो जाया करते थे टाई लगाकर रोज़ दफ़्तर को, अब वही सब्जी का ठेला लगाने लगे है लोग। आया अब कोरोना ऐसा सबक सिखाने कि, अब घर मे ही बनी चीज़े खाने लगे है लोग। कोरोना में कमाई की हदें भी पार की जिसनें, अब वही एक एक करके ऊपर जाने लगे है लोग। पहले जो कहते थे कि मरने की फुर्सत भी नही है, अब वही फुर्सत में ज़हर खाने लगे है लोग। जो उड़ाया करते थे कभी लाखों किसी महफ़िल में, अब वही पैसा पाई पाई करके बचाने लगे है लोग। जो छाया है आजकल हमारे बीच तंगी का दौर, पैसे मांगलो तो हालत खराब बताने लगे है लोग। परिचय :- ३१ वर्षीय दा...
बेबसी (कश्मीरी स्त्री की)
कविता

बेबसी (कश्मीरी स्त्री की)

मंजिरी पुणताम्बेकर बडौदा (गुजरात) ******************** वो हर दहलीज और हर शाम उसका इन्तजार करती है वो ढलती धूप और मायूस सुबह कल फिर से होती है वो शौहर जो चंद रोज पहले ले गया कोई आज तक उसके आने का इंतजार करती है वो खुद को क्या कहे ना सुहागन ना विधवा उसे स्वछंद जीने का अधिकार आज ख़त्म हुआ जिंदगी के दुखों को चेहरे पर समेटे अपार दिक़्क़तों को पल्लू में लिये लपेटे पति के इंतजार में आधी जिँदगी बिताये बाकी की जिंदगी बच्चों का भविष्य सवारें कुछ ऐसी ही आधि जिंदगी अपनाये बीता हर दिन और हर निशा एक आशा लेकर आये कि शायद किसी दरवाज़े पर कभी तो दस्तक होगी सुहाग का सामान देख मन का ललचाना दूसरे ही क्षण विधवा का एहसास होना साँझ क्षितिज की लालिमा को देखना और सफ़ेद लिबास देख आँखें भर आना दुनिया की बुरी नजर से खुद को बचाये रखना निर्मल दामन रखकर भी हमेशा लांछन सहना आँखें शुष्क और पथराई सारे अरमानों की सती कर आई ...
शीशा बांँट रहे
कविता

शीशा बांँट रहे

डॉ. कामता नाथ सिंह बेवल, रायबरेली ******************** गन्जों को कंघी, अन्धों को शीशा बांँट रहे। राजा जी घर-घर को ताज़ा किस्सा बांँट रहे।। आओ हम सब झूमें, नाचें गायें गीत मल्हार, रोटी की क्या सोचें , जब अपने ही हैं सरकार; संसद में मुद्दों पर वे मुर्दों को डांट रहे।। गन्जों को कंघी, अन्धों को शीशा बांँट रहे।। हरिश्चन्द्र जी धनपशुओं को दान बाँट देते , लेकिन नौकर चाकर की तो जेब काट लेते, वे विकास के मुद्दे पर गुजराती छांट रहे।। गन्जों को कंघी, अन्धों को शीशा बांँट रहे!! मेहमानों की अगवानी में चुनवा दी दीवार, फिर भी तुम पर निर्धनता का काला भूत सवार?? फटी गूदड़ी पर, वे चिथड़ी चादर सांँट रहे।। गन्जों को कंघी,अन्धों को शीशा बांँट रहे।। परिचय :- डॉ. कामता नाथ सिंह पिता : स्व. दुर्गा बख़्श सिंह निवासी : बेवल, रायबरेली घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौल...
जन-जन के राम
कविता

जन-जन के राम

मनोरमा पंत महू जिला इंदौर म.प्र. ******************** इतना आसान नहीं था, राम का जन-जन के आराध्य राम बनना इसके पीछे छिपा है राम का त्याग, और बलिदान, एक राज पुरूष का साधारण जन में बदलना, संन्यासी, वनवासी बन उत्कल वस्त्र धारण करना, सूर्य के समान देदीप्यमान होकर भी दीपक बन जाना, तिरस्कृत अहिल्या का कर उद्धार उसका सम्मान लौटाया, बाली से भिड़ सुग्रीव का खोया , विश्वास लौटाया, वानर को नर बनाकर, लंका को जीत लिया जिसने रावण सहित निशाचर हीन धरा की जिसने, ऐसे राम बने जन-जन के राम ऐसे राम को है मेरा प्रणाम परिचय :-  श्रीमती मनोरमा पंत सेवानिवृत : शिक्षिका, केन्द्रीय विद्यालय भोपाल निवासी : महू जिला इंदौर सदस्या : लेखिका संघ भोपाल जागरण, कर्मवीर, तथा अक्षरा में प्रकाशित लघुकथा, लेख तथा कविताऐ उद्घोषणा : यह प्रमाणित किया जाता है कि रचना पूर्णतः मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां,...
मातृशक्ति
कविता

मातृशक्ति

प्रियंका पाराशर भीलवाडा (राजस्थान) ******************** आपसी सामंजस्यपूर्ण वाद-विवाद कुछ यूँ प्रारंभ हुआ पति-पत्नी का संवाद कैसे कर लेती हो ये कमाल पति ने किया पत्नी से सवाल नाहक क्रोध करता, बेवजह सुनाता डाँटता हूँ अकारथ मैं पत्नी भक्ति से विरक्त फिर भी तुम बनती पति भक्त स्वयं भारतीय संस्कृति के वेद का विद्यार्थी परंतु आध्यात्मिक शक्ति में तुम महारथी करता हूँ वेद का केवल अध्ययन पर जीवन में तुम करती उसका अक्षरतः पालन सुनो मेरे हमजोली पत्नी मुस्कुराकर बोली माँ की थोडी़ सेवा कर पुत्र कहलाए मातृभक्त पर दिन-रात पुत्र की देखभाल कर माँ नहीं कहलाती पुत्र भक्त पति का कौतूहलपूर्ण प्रश्न प्रारंभ हुआ जब जीवन तब स्त्री पुरूष थे एक समान फिर स्त्री से पुरुष कैसे महान पत्नी ने किया प्रतिवाद दो वस्तु से दुनिया निर्मित वह है ऊर्जा और पदार्थ पुरूष जैसे ऊर्जा तो स्त्री जैसे पदार्थ विकसित होता पदार्थ करके...
मौत आई नहीं
कविता

मौत आई नहीं

निज़ाम फतेहपुरी मदोकीपुर ज़िला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) ******************** मौत आई नहीं फिर भी मारा गया। खेलने जब जुआ ये नकारा गया।। हार कर भी कभी होश आया नहीं। कर्ज लेकर हमेशा दुबारा गया।। जिसको आदत जुआ की बुरी पड़ गई। समझो गर्दिश में उसका सितारा गया।। अब बचा पास मेरे है कुछ भी नहीं। जो था सुख चैन दिलका वो सारा गया।। मुझको चंदे का देखो मिला है कफ़न। कैसे ज़िंदा जनाज़ा हमारा गया।। हर जुआरी का होता यही हाल है। जिसने खेला इसे वो बेचारा गया।। कर दिया इसने बदनाम देखो निज़ाम। मैं जुआरी भी कह कर पुकारा गया।। परिचय :- निज़ाम फतेहपुरी निवासी : मदोकीपुर ज़िला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) शपथ : मेरी कविताएँ और गजल पूर्णतः मौलिक, स्वरचित हैं आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि राष्ट्रीय हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, राष्...
यह हमारा परिवार हैं
कविता

यह हमारा परिवार हैं

राजेश चौहान इंदौर मध्य प्रदेश ******************** दादा-दादी, माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री से बना यह हमारा परिवार हैं..... प्यार, दुलार, स्नेह, संस्कार, अनुभव, सलाह, अपनत्व आदि की पाठशाला हैं यह हमारा परिवार हैं..... दादाजी के पास ज्ञान, अनुभव और संस्कार का भरमार हैं यह हमारा परिवार हैं..... दादीजी के पास भी दुलार, स्नेह और कहानियों का खजाना हैं यह हमारा परिवार हैं..... पिताजी के डांट और सलाह, सही जीवन का मार्गदर्शन हैं यह हमारा परिवार हैं..... माताजी का प्यार, ममता और लोरी का हृदय में स्थान हैं यह हमारा परिवार हैं..... पति-पत्नी, रिश्तो की अहमियत, प्रेम विश्वास, समर्पण, अपनत्व का सम्मान हैं यह हमारा परिवार हैं..... भाई-बहन की आपसी खटपट और प्रेम, स्नेह की अनुपम सौगात हैं यह हमारा परिवार हैं..... पुत्र-पुत्री की चहल-पहल, घर परिवार की रौनक हैं यह हमारा परिवार हैं..... हम सभ...
बेटी: एक सुंदर अल्पना
कविता

बेटी: एक सुंदर अल्पना

श्रीमती विभा पांडेय पुणे, (महाराष्ट्र) ******************** मैं बेटी हूं, अपने पिता का मान हूं। हां, मैं बेटी हूं, अपनी मां का अभिमान हूं। क्यों समझते तुम बेटियों को कम? क्यों मनाते बेटियों के होने पर गम? क्या विश्वास नहीं तुम्हें खुद पर। या खा रहा तुम्हें पुरुष होने का अहम। मैं बेटी हूं, अपने भाई का गर्व हूं। हां, मैं बेटी हूं उच्च संस्कारों की पहचान हूं। मैं झुक जाती हूं जो स्नेह की वर्षा हो मुझ पर। मैं रुक जाती हूं अधिकार भरा आदेश सुनकर। मगर जो तोड़ना चाहो मुझे, तो बस कल्पना हूं। मैं बेटी हूं, नए भारत का नया अरमान हूं। हां , मैं बेटी हूं, अपने पिता का सम्मान हूं। जो दिखलाते सदा सर्वदा मेरी सीमाएं मुझको, तुम्हें क्या अपनी सत्ता के छिन जाने का भय है। जो अत्याचार का बिगुल बजाते, सुनाते मुझको कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने सामर्थ्य पर संशय है। नहीं आश्रिता मैं तुम्हारी, मैं तो स्वयंं पर अव...
वक़्त अपना
कविता

वक़्त अपना

रवि चौहान आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) ******************** वक़्त अपना मुझपे जाया क्यों करते हो। देते हो सारा वक़्त जिसे, यह वक़्त उसे छुपाया क्यों करते हो। जब नहीं रहा प्यार दरमियान हमारे, उसे निभाया क्यों करते हो। बदल गये हो, कहता है ज़माना, फिर नहीं बदलने का ढोंग रचाया क्यों करते हो। माना बहोत की गलतियां मैंने, तुम अपनी गलतियां छुपाया क्यों करते हो। ये जमाना बहोत बेदर्द है, बता दर्द मेरा ज़माने को रुलाया को करते हो। परिचय :- रवि चौहान निवासी : आजमगढ़ (शेखपूरा) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करता हूँ कि मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि हिंदी रक्षक मंच पर अपने परिचय एवं फोटो के साथ प्रकाशित करवा सकते हैं, हिंदी रक्षक मंच पर अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, आदि प्रकाशित करवाने हेतु अपनी कविताएं, कहानियां, लेख, हिंदी में टाईप करके हमेंhindirakshak17@gmail.com...
किताबें
कविता

किताबें

संजय वर्मा "दॄष्टि" मनावर (धार) ******************** किताबें भी कहती हैं शब्दों में हमसे कुछ ज्ञान पाते रहो, हमें भी अपने घरो में फूलो कि तरह बस यूँ ही तुम सजाते रहो। किताबें बूढी कभी न हो तो इश्क कि तरह ये ख्यालात दुनिया को दिखाते रहो, कुछ फूल रखे थे किताबों में यादों के सूखे हुए फूलो से भी महक ख्यालो में तुम पाते रहो। आँखें हो चली बूढी फिर भी मन तो कहता है पढ़ते रहो, दिल आज भी जवाँ किताबों की तरह पढ़कर दिल को सुकून दिलाते रहो। बन जाते है किताबों से रिश्ते मुलाकातों को तुम ना गिनाया करों, माँग कर ली जाने वाली किताबों को पढ़कर जरा तुम लौटाते रहो। परिचय :- संजय वर्मा "दॄष्टि" पिता :- श्री शांतीलालजी वर्मा जन्म तिथि :- २ मई १९६२ (उज्जैन) शिक्षा :- आय टी आय व्यवसाय :- ड़ी एम (जल संसाधन विभाग) प्रकाशन :- देश - विदेश की विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं में रचनाएँ व समाचार पत्रों में निरंतर पत्र और...
कुछ देर में जब
कविता

कुछ देर में जब

होशियार सिंह यादव महेंद्रगढ़ हरियाणा ******************** कुछ देर में जब, रावण होगा दहन, बुराइयां जल जाएंगी, मन हर्षाएंगी, अगले वर्ष फिर रावण, जब जलाएं, रावण खत्म न हो, कोई तो बतलाए। कुछ देर में जब, बम होता विस्फोट, बे-मौत मर जाते, उनका क्या खोट, कब तग आतंकवादी, यूं ही सताएंगे, आतंकवाद को कब तक जला पाएंगे? कुछ देर में जब, सुनते हैं बलात्कार, फिर गई एक औरत जिंदगी ही हार, कब तब ये तमाशा देखते रह जाएंगे, कोई बताए, बलात्कारी मिट पाएंगे? कुछ देर में जब, सुनते हुआ शहीद, एक-एक कब तक शहीद हो जाएंगे, बैर भाव सीमा पर बढ़ता जा रहा है, इस बैर भाव को कैसे हम मिटाएंगे? कुछ देर में जब, सुनते हैं भ्रूण हत्या, एक लिंग जांच गिरोह, और पकड़ा, भ्रूण हत्या का पाप कैसे हम हटाएंगे, देश के दरिंद्रों को कैसे हम मिटाएंगे? कुछ देर में जब, औरत फांसी खाई, आखिरकार ऐसी क्या नौबत है आई, औरत अस्मिता को कैसे हम बचाए...
आज का रावण
कविता

आज का रावण

सुधीर श्रीवास्तव बड़गाँव, जिला-गोण्डा, (उ.प्र.) ******************** कौन कहता है? रावण हर साल मरता है, सच मानिए रावण हर साल मरकर भी अमर हो रहा है। देखिए न आपके चारों ओर रावण ही रावण घूम रहे हैं, जैसे राम की विवशता पर अट्टहास कर रहे हैं। ये कैसी विडंबना है कि मर्यादाओं में बँधे राम विवश हैं, कलयुगी रावण उनका उपहास कर रहे हैं। हमारे हर तरफ लूटपाट, अनाचार, अत्याचार, भ्रष्टाचार, अपहरण, हत्या, बलात्कार भला कौन कर रहा है? ये सब कलयुग के रावण के ही तो सिपाही हैं। अब तो लगता है कि रावण के सिपाही सब जाग रहे हैं, तभी तो वो मैदान मार रहे हैं। रक्तबीज की तरह एक मरता भी है तो सौ पैदा भी तो हो रहे हैं। जबकि राम के सिपाही या तो सो रहे हैं या फिर रावण के कोप से डरकर छिप गये हैं, तभी तो राम भी लड़ने से बच रहे हैं। आज का रावण अब सीता का अपहरण नहीं करता, छीन लेता है, मुँह खोलने पर मौत की धमकी देता है। त...
शरद ऋतु
कविता

शरद ऋतु

रीना सिंह गहरवार रीवा (म.प्र.) ******************** बदलते मौसम संग प्रकृति नव निर्माण करती नव ऋतु का आगाज़ करती नव आशाओं का संचार करती। मंद होती रवि की तपन नव कलियों का ये आगमन नव पुष्पों का यों पृष्फुटन आगाज़ है अंजाम का नई सुबह का और शाम का। पल्लव भी मुस्काते हैं पुष्प जो अगडाते हैं विकसित हो खिल जाते हैं अति हर्षित मन मुस्काते हैं। सर्द सहमी रातों में ममता के अहसासों में तपन अग्नि की हाथों में सब संग हो जज़्बातों में। अकड़ी हुई सी रातें हैं सुबहें भी सर्द सिमटी सी कुहरे का आगाज़ है नव ऋतु का अहसास है। वो आया बचपन याद है उन लडकियों की तपन आबाद है शीत ऋतु और सिगड़ी का जलाना राहत का आगाज़ है। हाँ... ये नव ऋतु का आगाज़ है नव ऋतु का आगाज़ है। परिचय :- रीना सिंह गहरवार पिता - अभयराज सिंह माता - निशा सिंह निवासी - नेहरू नगर रीवा शिक्षा - डी सी ए, कम्प्यूटर एप्लिकेशन, बि. ए., ए...
हाहाकार
कविता

हाहाकार

ओमप्रकाश सिंह चंपारण (बिहार) ******************** आंसू अवतरित होती, हर युग की साक्षी होती- जब भी धरा पर अनाचार बढ़ जाती जब हाहाकार। मां तेरी फिर सृजन होती खड़ग हस्त में अडिग होती- फिर भीषन गर्जन होती, मां धरा पर प्रलय होती। महिषासुर की मर्दन होती, मां तेरी भयंकर हाहाकार से- पुनः धरा प्रकंपित्त होती हर युग हर क्षण में। मां अंबे तुम्हीं साक्षी होती- जब भी पापियों के हाथों, में इस धरा की सत्ता होती। मद मोह और छल प्रपंच से- हर मानवी सभ्यता रक्त रंजित होती। आज पुनः इस विश्व में- मां अंबे तू अवतरित होती। आ गया है वह क्षण माँ, बज चुका अब दुदुंभी। भिषण संग्राम अब छिड़ गया है- संघार शुरू अब हो चुका है। आर्मेनिया, अजरबैजान, ईरान, तुर्की पाकिस्तान चीन और कई राष्ट्र। भीषण युद्ध के आहट लिए- अति संहारक अस्त्र शस्त्रों के साथ। शुरु शुरु में न्याय-अन्याय में होगा पुनः एक भीषण संग्राम। परिचय :- ओमप्...
नेत्रदान महादान
कविता

नेत्रदान महादान

विरेन्द्र कुमार यादव गौरा बस्ती (उत्तर-प्रदेश) ******************** दस जून को हर साल मनाया जाता दिवस नेत्रदान, साधरण व्यक्ति नेत्रदान करने से हो जाता महान। नेत्रदान है व्यक्ति के जीवन का सबसे बड़ा दान, नेत्रदान कराता है मानवता धर्म का ज्ञान। यदि दुनियाँ से जाने के बाद भी अमर रहना चाहता है इन्सान, तो संकल्प लें मृत्यु के बाद करेगा नेत्र- दान। तू हो जायेगा इतिहास में अमर व महान, यदि तू मृत्यु के बाद मानव करेगा नेत्र- दान। केवल दुनियाँ को अनुभव करने वाला इन्सान, कर पायेगा तेरी आँखों से दुनियाँ का दर्शन व पहिचान। तुम हो जाओगे इस संसार में व्यक्ति महान, तुम्हारी होगी तब तक दुनियाँ में गुण- गान। जब तक जिन्दा रहेगा वह नौजवान।। चले जायेंगे जब इस संसार से कफन ओढ़कर , हमारे बाद हमारी नेत्रदान की गई आँखे देखेगी दुसरे की ज्योति बनकर। आओ नेत्रदान करने का मृत्यु के पहले संकल्प करें, मृत्यु के बाद दिव्या...
मृतक पिता और बेटे संग संवाद
कविता

मृतक पिता और बेटे संग संवाद

बबली राठौर पृथ्वीपुर टीकमगढ़ (म.प्र.) ******************** मृतक- ये छूटी है अब तो मोह माया। हमने तिनका-तिनका जोड़ घर है बनाया। पर आज अब हम भए है वीराने बरात खड़ी है अपने लिए आँसू बहाने। कल जोड़ा था जो हमने था अब साथ नहीं मेरे। बेटे अब है मेरी ये धरोहर नाम तेरे। काम ना आवेगी हमारी कीर्ती। चाहे कितने थे मशहूर हम नामी। अरे हाँ छूटा है अब तो सबका साथ। ना रखना अव कोई गिला-शिकवा साथ। मेरा आखिरी वक्त है अब मेरा तुम्हारे साथ। बस अब होगी मेरी सीर्थ ही तुम्हारे साथ। हम आज चले कि कल चले, चले साँसें त्याग। क्यों मृतक हो के हम आज चलेंगे मेरे बाल जलेंगे जैसे घास जले और हाड़ जलेंगे जैसे लकड़ी जले । मेरा अब माटी होगा शरीर ये। तुम भूल पल भर में जाओगे हमें। मैं कितना दर्द सहूँगा। क्या तुम्हें जलाने में मुझे पल भर भी दया नहीं आएगी। बेटा- पापा दुनियाँ का दस्तूर यही है। जो मरा उसे जलाया गया या फिर उसे दफ्नाया ...
मातृ-पितृ भक्त होती बेटी
कविता

मातृ-पितृ भक्त होती बेटी

प्रियंका पाराशर भीलवाडा (राजस्थान) ******************** तन से समर्पण मन से समर्पण सब कुछ अपना कर दे अर्पण नयनो में आत्मिक भाव झलकता हृदय में उपस्थित अति कोमलता उल्लास का अर्णव होती बेटी मातृ-पितृ भक्त होती बेटी दो कुलों की लक्ष्मी और लाज इस आधुनिकता में भी परायी आज कहने को सिर्फ शब्द है आज के युग में, बेटा बेटी एक समान पर जब अधिकारो का बँटवारा होता फिर कर्तव्यों के लिए क्यों असमान दूसरे कुल जाकर, कुल का मान बढ़ाती संवेदनशील होकर हर रिश्ता निभाती फिर भी हर गलती की जिम्मेदार वही ठहरायी जाती क्यों समझी जाती हैं वह परायी बेटी जबकि मातृ-पितृ भक्त होती बेटी हो चाहे धर्म माता-पिता या जन्मदाता हृदय दोनों से स्नेह, अपनत्व है चाहता ससुराल में भी जब बेटी मुस्कुराये, सम्मान पाए तो हर माता-पिता बेटी के जन्म से न घबराए सभी खुशी की अनुभूति से बेटी दिवस मनाएं सर्व गुणों की खान, प्रत्येक क्षेत्र में अ...
मोहब्बत हो गई
कविता

मोहब्बत हो गई

संजय जैन मुंबई ******************** खुद एक चांद हो तो क्यों पूर्णिमा इंतजार करे। और मोहब्बत का इसी रात में होकर मदहोश हम आंनद ले।। तुम जैसे दोस्त से यदि मोहब्बत हो जाये। तो हमें सीधी सीधी जन्नत मिल जाये।। डूब चुका था प्यार के सागर में, और नश नश में मोहब्बत भर गया था। क्यों बहार निकाला मुझे इस सागर से..? इस प्रश्न का उत्तर अब तुमको ही देना है।। गुजारिश है तुमसे आज दिलमें थोड़ी सी जगह दे दो। और अपनी गर्म सांसो से मुझे फिरसे जीवन दे दो।। आज दिलको मत रोकना हजूर दिलसे मिलने को। क्योंकि ये पहले ही व्याकुल था तुम्हारे दिलमें डूबने को।। इतने सुंदर हो तुम की देखकर दर्पण भी शर्मा रहा है। मेरा दिल भी तो आईना है जो परछाई मुझे दिखा रहा।। इसलिए मेरा दिल आज तुम्हारे दिलमें शामाया है। जो धड़कनों को मेरी मोहब्बत करने को बुला रहा।। कितनी हसीन रात है जो हमको बुला रही है। क्योंकि दो दो चांद जो एक साथ...
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
कविता

पीढ़ी-दर-पीढ़ी

विजय गुप्ता दुर्ग (छत्तीसगढ़) ******************** दो पैरों की गाड़ी चलती जा रही है अवनि अम्बरतल सब देख रही है। कोरोना प्रकोप तांडव झेल रही है कुरुक्षेत्र के कृष्ण पांडव टेर रही है। जुनून था कभी जज़्बा बदल रही है नासमझी की राहें बलवा कर रही है। प्रदर्शन धरनों की बौछार सह रही है आस-विश्वास की व्यथा कह रही है। अपनों और सपनों को यूं तौल रही है कटु प्रवचन से जिंदगी जो खौल रही है नाटक पे नाटक के वो पट खोल रही है ममता-समता हर युग अनमोल रही है शिक्षा-संस्कार किस तरह संभाल रही है परिवर्तन अब परंपरा को खंगाल रही है। पुरखे धनपति चाहे पीढ़ी कंगाल रही है नव पारंगत पीढ़ी अब गुरु-घंटाल रही है। मेहनत मन्नत खिदमत की फ़िज़ा रही है किस्मत ताकत आदत की रज़ा रही है नेता नव-भारत के मंसूबे सजा रही है जनता ढपली से अपना राग बजा रही है हौसलों से अब फासलों को नाप रही है गुजरी यादें अपने हाथों से ताप रही है चालें ...
जय माँ महिषासुर मर्दिनी
कविता, भजन

जय माँ महिषासुर मर्दिनी

डॉ. पंकजवासिनी पटना (बिहार) ******************** जय मांँ महिषासुर मर्दिनी जग के सकल कष्ट निवारिणी है अस्तित्व ब्रह्मांड का तुमसे ही आदिस्वरूपिणी जब न था सृष्टि का अस्तित्व था अंधकार ही अंधकार चहुँओर जग में बिखरा हुआ तब तुम ही सृष्टि-रचनाकार सूर्य सी देदीप्यमान तुम सा न कोई कांतिवान सकल जग की प्रसविणी, माँ कूष्मांडा सृष्टि रूपिणी अपनी मंद स्मिति से तूने की ब्रह्मांड की उत्पत्ति अपने उपासकों को देती लौकिक पारलौकिक उन्नति आधि-व्याधि विमुक्तिनी तू मांँ सुख-समृद्धि प्रदायिनी विकार - महिषा का कर मर्दन मांँ तू शुभ भाव संचारिणी युग में फैली अराजकता सबका शमन करो कल्याणी! परिचय : डॉ. पंकजवासिनी सम्प्रति : असिस्टेंट प्रोफेसर भीमराव अम्बेडकर बिहार विश्वविद्यालय निवासी : पटना (बिहार) घोषणा पत्र : मैं यह प्रमाणित करती हूँ कि सर्वाधिकार सुरक्षित मेरी यह रचना स्वरचित एवं मौलिक है। आप भी अ...
रावण
कविता

रावण

रशीद अहमद शेख 'रशीद' इंदौर म.प्र. ******************** जलता अन्दर-बाहर रावण! जीवित होता मरकर रावण! वह बुराइयों का प्रतीक है, करता जादू मन पर रावण! "व्यापक है मेरा अस्तित्व" जग से कहता हँस कर रावण! बौना हो अथवा नभचुम्बी कुछ पल मिटता जलकर रावण! छलता है सबको मायावी अपना रूप बदलकर रावण! अभिमानी है बलशाली भी जाता रहता घर-घर रावण! दस आनन थे मगर राम से हुआ पराजित लड़कर रावण! मारो, काटो, उसे जलाओ नष्ट नहीं होता पर रावण! रशीद' आप सच्चे बन जाओ भग जाएगा डरकर रावण! परिचय -  रशीद अहमद शेख 'रशीद' साहित्यिक उपनाम ~ ‘रशीद’ जन्मतिथि~ ०१/०४/१९५१ जन्म स्थान ~ महू ज़िला इन्दौर (म•प्र•) भाषा ज्ञान ~ हिन्दी, अंग्रेज़ी, उर्दू, संस्कृत शिक्षा ~ एम• ए• (हिन्दी और अंग्रेज़ी साहित्य), बी• एससी•, बी• एड•, एलएल•बी•, साहित्य रत्न, कोविद कार्यक्षेत्र ~ सेवानिवृत प्राचार्य सामाजिक गतिविधि ~ मार्गदर्शन और प्रेरणा...
अहम ब्रम्हास्मि
कविता

अहम ब्रम्हास्मि

धैर्यशील येवले इंदौर (म.प्र.) ******************** जोड़ नाता मानवता से ईश्वर मिलेगा सरलता से।। जो ढूंढ रहा है तू बाहर वो बैठा है तेरे ही भीतर खोल कपाट अंतस के कर दर्शन परमात्मा के जीवन के खेल निराले कुछ उजले कुछ काले कह रहे कोमलता से जोड़ नाता मानवता से ईश्वर मिलेगा सरलता से।। राम नाम की शरण में मोक्ष छुपा है मरण में जीवन को स्वर्ग बनाकर दूजे का बन दिवाकर नित नये आनंद पायेगा जगत चैतन्य हो जायेगा मिला दे कर्म धर्मता से जोड़ नाता मानवता से ईश्वर मिलेगा सरलता से।। जीवन की यही आस है प्रभुमिलन की प्यास है भीतर मेरे जो घट रहा लोगो मे है वो बट रहा आलोकित है मन मेरा दूर कर दूंगा तमस तेरा नाता न रहा दुर्बलता से जोड़ नाता मानवता से ईश्वर मिलेगा सरलता से।। सरिता के जल सा वसुधा के तल सा नभ के परिमल सा दीप के अनल सा पवन के निर्मल सा हो गया मैं ब्रह्मांड सा पंच तत्व की पावनता से जोड़ नाता मानवता से ई...
मासूमियत
कविता

मासूमियत

श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी लखनऊ (उ.प्र.) ******************** (बेटी को समर्पित) हमने देखी है मासूमियत एक सच की तरह, वो मासूम सी है, स्निग्ध चांदनी सी धवल भी, शक्ल पर नूर सा बिखरा है उसके शुद्ध, शांत और सौम्य सी है। कभी नन्ही, चंचल, अल्हड़पन से घिरी हुई से, कभी कठोर, अटल, अडिग सी आसमान की ऊंचाई को नापती हुई दिखती है, कभी गंभीर, समुंदर की गहराई छुपाए हुए चुपचाप सी उमंग की लहरें भी बेतहाशा दौड़ पड़ती हैं ठोकर भी खाती हैं, वापस भी आती हैं, गिर के उठती भी हैं, सपने कल्पना बनकर आंखों में सजते भी हैं आंख खुली तो वो हकीकत बनकर टूटते भी हैं। फिर भी उसकी मासूमियत जिंदा है उसमे, कल भी थी, आज भी है, मासूम सी ही रहेगी खुद में।। परिचय :- श्रीमती क्षिप्रा चतुर्वेदी पति : श्री राकेश कुमार चतुर्वेदी जन्म : २७ जुलाई १९६५ वाराणसी शिक्षा : एम. ए.,एम.फिल – समाजशास्त्र,पी....